May 12, 2024

हरि ब्रम्हदेव का खल्लारी में प्राप्त शिलालेख :विक्रम संवत 1470 [1415 ई.]

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कलचुरियों की रायपुर शाखा कुछ समय के लिए खल्लवाटिका(खल्लारी) में शासन कर रही थी। यहां से 1402 ई. एवं 1415 ई. के शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनसे पता चलता है कि रायपुर में एक राजकुमार शासन करता था, जिसका नाम लक्ष्मीदेव था। लक्ष्मीदेव का पुत्र सिंहण, सिंहण का पुत्र रामचन्द्र और रामचन्द्र का पुत्र ब्रम्हदेव हुआ।

प्रस्तुत प्रशस्ति अभिलेख ब्रम्हदेव के समय लिखी गई थी। यह अभिलेख खल्लारी के एक मंदिर के मंडप की दीवाल में लगा पाया गया था। इस अभिलेख के बारे में प्रारम्भिक जानकारी बेग़लर(1873-74) से प्राप्त होती है।बेग़लर लिखते हैं “there is an inscription in another smaller temple in the village….It is dated only 1470 and salary 1334 बेग़लर ने जिस स्थिति मे अभिलेख को दीवार से जड़ा देखा था उससे अनुमान लगाया था कि अभिलेख को दीवार में बाद में जड़ा गया था।

बेग़लर के बाद किलहार्न (1892) ने इस अभिलेख का पाठ प्रस्तुत किया,मगर उन्होने अभिलेख का अनुवाद प्रस्तुत नही किया।मगर किलहार्न ने काल गणना कर इसकी सही तिथि निर्धारित की। लेख में(विक्रम) संवत 1470, शक संवत 1334, साठ वर्षों के चक्र में प्लव नामक सम्वत्सर की माघ सुदि 9, शनिवार रोहणी नक्षत्र का उल्लेख है जो इस प्रशस्ति लिखे जाने की तिथि है किंतु किलहार्न ने दिखाया कि उपर्युक्त तिथि निर्दिष्ट संवत में नही पड़ी थी। इसलिए गणना करने पर विक्रम सम्वत 1471 और शक सम्वत 1336 ठीक जान पड़ता है। तदानुसार प्रस्तुत लेख 19 जनवरी 1415 ई. में लिखा गया था।

अभिलेख का व्यवस्थित सम्पादन मिराशी(1955) ने किया। उन्होने सूक्ष्मता से अभिलेख का पाठ, अनुवाद प्रस्तुत किया है और उसका विश्लेषण किया है।बालचंद जैन(1961) ने अभिलेख का पाठ और अनुवाद प्रस्तुत किया है।

अभिलेख युक्त शिलापट्ट की चौड़ाई 61 से.मी. है किंतु नीचे का भाग खाली पड़ा होने से लेखयुक्त भाग की ऊंचाई केवल 30 से. मी. है। लेख 16 पंक्तियों में है जिसमे 12 श्लोक हैं। अभिलेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि तत्कालीन देवनागरी है।

अभिलेख का पाठ [मिराशी से]
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(1) ॥ ओं श्रीगणपतये नमः । सकलदुरितहर्ताऽभीष्टसिद्धिप्रकर्ता निगमसमुपगीत: शेषयज्ञोपवीतः । ललितमधुकरालीसे-

(2)॥ [वि]ता गंडपालीतटभुवि गणराजः पातु वो विघ्नराजः ॥१॥ वेदानाराध्य वेधाः पठति भगवती यामनायस्तचित्तः श्रीकण्ठस्यापि नादरपहरति मनः

(3)॥ पाव् र्वती किन्नरीभिः । हारा नारायणस्योरसि रहसि रणत्कंकणा यद्भुजाः स्युः सद्यः सत्काव्य- सिद्धयै स्फुरतु कविमुखांभोरुहे भारती सा ॥२॥ व (ब्र)ह्याद-

(4)॥ [यो] द (दि) विषदः श्रुतिवाक्यदृष्टया ध्यायन्ति यं पुरुषमात्मविदोप्यमृत्तं (तम्) । पापानि यत्स्मरणतो विलयं प्रयांति नारायणः स्फुरतु चेतसि सर्वदा वः’। [1*] ३।। अहिह-

(5) ॥ यनृपवंशे शंभुभक्तोऽवतीर्णः कलचुति (रि) रिति शाखां प्राप्य तीव्रप्रतापः । निजभुजगुरुदर्पाद्योऽरि-
दुर्गाण्यजैषीद्रणभुवि दश चाष्टौ सिंहणक्षोणिपाल: ॥

(6)॥४॥ अभवदवनिपालस्तत्सुतो रामदेवः समरशिरसि धीरो येन भोणिंगदेवः । मणिरिव फणिवंश- स्याऽहतः कोपदृष्ट्या तरुणतरणितेजःपुंजराजत्प्रतापः ॥५॥

(7)॥ तत्पुत्रः शत्रुहंता जगति विजयते चंद्रचूडस्य भक्तः श्यामः कामाभिरामो मनसि मृगदृशामुद्भूटानां कृतांतः । सर्वेषां याचकानां स्फुरदमरतरुक्पितिः पंडिता-

(8)॥ नां गीतज्ञानां द्वितीयो भरत इव नृपः श्रीहरिव (ब) ह्मदेवः ॥६॥ तद्राजधानी नगरी गरिष्ठा खल्वाटिका राजति वाटिकाभिः । सुरालया यत्र हिमालयाभा विभांति

(9)॥ शृंगैरतिशुभ्रतुंगै:10 ॥७॥ भूदेवा यत्र वेदाध्ययनमनुरताः स्वस्तिमंतो वसंति श्रीमंतः श्रीविलास-
रमरपरिवृढं राजराजं हसंतः । कामिन्यः कामदेवं त्रिपुरहर-

(10) ॥ दृशा दग्धमुज्जीवयंत्यः प्रोद्यद्दोर्मूलकांत्या स्मितमधुरगिरा भ्रूलताडंव (ब) रेण” ॥८॥ मोची तत्रंदु-
रोचीरुचिरतरयशाः कर्मनिर्माणदक्षः सौजन्या-

(11) ॥ दग्रजन्माऽनुचर इव जसौनामवेयस्य पौत्रः । नानाधर्माभिलाषी गुणनिधिशिवदासाऽभिधानस्य
पुत्रः श्रीमन्नारायणस्य स्मरणविमलधी राजते

(12)॥ देवपाल: ।।९।। नारायणस्यायतनं स्वशक्त्या भक्त्या महत्या सह मंडपेन । निर्मापितं तेन परत्र चात्र तस्मै हरियच्छतु वांच्छि (छि)तार्थ (र्थम्) ॥१०॥ हरिचरणसरोजध्यान-

(13)। पीयूषसिंधुप्रसरदलघुवेलास्फालकेलीरसेन । सरसकविजनानां निम्मितेयं प्रशस्तिमनसि रसविधात्री
मिश्रदामोदरेण ॥११॥ वहति जगति गंगा याव-

(14)॥ दादित्यपुत्र्या स्फुरति वियति तारामंडलाऽखंडलेन । तरणिरमरसद्मच्छद्मना तावदेषा जयतु जयतु
मोचीदेवपालस्य कीत्तिः ॥१२॥ श्रीवास्तव्यान्वयनैषा

(15)॥ प्रशस्तिरमलाक्षरा। लिखिता रामदासेन पंडिताधीश्वरेण च ॥१३।। स्वस्ति श्रीसंवत् १४७०
वर्षे सा(शा) के १३३४ षष्टयाव्दयोर्मध्ये प्लवनामसंवत्सरे माघ सुदि ९

(16)॥ शनिवासरे रोहिणीनक्षत्रे [[] शुभमस्तु सर्वजगतः ॥ सूत्रधाररत्नदेवेन [॥]

अनुवाद [बालचन्द जैन से]
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ओम् । श्री गणपति को नमस्कार । विद्वानों के राजा गणराज आपकी रक्षा करें जो सब पापों को हरने वाले हैं, अभीष्ट की सिद्धि करने वाले हैं, जिनका वेदों में गुणगान किया गया है, जो शेष (नाग) का यज्ञोपवीत धारण करते हैं, और जिनके गण्डस्थल ललित भौंरों की पंक्ति द्वारा सेवित है। १। सत्काव्य की रचना के लिए भारती कवि के मुख रूपी कमल में प्रकट हो (वह) भगवती (भारती) जिसे ब्रह्मा वेदों की आराधना करके मन लगाकर पढ़ते हैं, किन्नरियों द्वारा जिसके उच्चारण करने से पार्वती श्रीकंठ (शंकर) के मन को (अपनी ओर) आकृष्ट करती हैं। (और) जिसकी खनखनाते कंकणों वाली भुजाएं नारायण की छाती पर एकांत में पड़े हारों के (समान) हैं। २ । वे नारायण आपके मन में सदा प्रकट हों जिनके स्मरण से पाप दूर भाग जाते हैं (और) आत्मज्ञाता ब्रह्मा इत्यादिक देव भी वेदवाक्यों के अनुसार जिस अमूर्त पुरुष का ध्यान करते हैं। ३। अहिहय राजा के वंश में कलचुरि शाखा में शंभु का भक्त राजा सिंहण बड़ा प्रतापी हुआ जिसने अपनी भुजाओं के भारी बल से युद्धभूमि में शत्रुओं के अठारह किले जीते। ४ । उसका बेटा राजा रामदेव हुआ, वह रणभूमि में धीर था, उसने क्रुद्ध होकर उस भोणिंगदेव को आहत कर दिया था जो नागवंश के मणि के समान था (और) दोपहर के सूर्य के तेजपुंज।जैसे प्रताप वाला था। ५। उसका बेटा श्री हरि ब्रह्मदेव संसार में विजयी है और शत्रुओं को मारने वाला।है, चंद्रचूड़ (शिव) का भक्त है, श्याम (वर्ण) है; (फिर भी) मृग के समान सुन्दर आंखों वाली (स्त्रियों) के मन में कामदेव के समान प्यारा है। योद्धाओं के लिए यम (के समान) है, सभी याचकों के लिए प्रकाशमान् कल्पवृक्ष (के समान) है, पंडितों में वाक्यपति है और गीतज्ञों में द्वितीय भरत के समान है। ६। उसकी मुख्य राजधानी खल्वाटिका नगरी वाटिकाओं से सुशोभित है, जहां देवालय अत्यन्त शुभ्र और ऊंचे शिखरों से हिमालय के समान शोभायमान है। ७ । जहां वेदाध्ययन में लगे सुखी ब्राह्मण वास करते हैं, लक्ष्मी के विलास से धनी लोग देवताओं के राजा कुबेर की हंसी उड़ाते हैं (और) कामिनी स्त्रियां अपनी कांखों से उठती कांति, मुस्कराहट भरी मीठी बोली (और) भौंह रूपी लता के आडम्बर।से (उस) कामदेव को पुनः जीवित करती हैं जो शिवजी की आंख से जल मरा था। ८ । वहां देवपाल नामक मोची है। (वह) गुणों के सागर शिवदास का बेटा (और) जसौ का नाती है; चन्द्रमा के समान कान्तिवाला है, उसका यश अत्यन्त रुचिर है, वह अपने काम में दक्ष है, अपने सौजन्य से ब्राह्मणों का अनुचर जैसा है, विभिन्न धर्मकायों का अभिलाषी है (और) उसकी बुद्धि भगवान नारायण का स्मरण करते रहनेसे विमल हो गई है। ९ । उसने अपनी शक्ति (के अनुसार) और।महान भक्ति से नारायण का मंडपयुक्त मंदिर बनवाया। हरि उसे इस लोक और परलोक में इच्छित वस्तु दें।१०। विष्णु के चरणकमलों के ध्यान रूपी अमृत सागर में उठने वाली बड़ी-बड़ी लहरों के खेल में आनंद लेने वाले दामोदर मिश्र ने यह प्रशस्ति रची जो सरस कवि लोगों के मन में रस का निर्माण करने वाली है। ११ । गंगा जब तक संसार में यमुना के साथ बहती है, आकाश में (जब तक) तारामंडल का स्वामी सूर्य चमकता है, तब तक (इस) देवमंदिर के बहाने मोची देवपाल की यह कीर्ति जीवित रहे।१३। और श्रीवास्तव्य वंश के श्रेष्ठ पंडित रामदास ने यह प्रशस्ति स्वच्छ अक्षरों में लिखी। १३ |
स्वस्ति। श्री संवत् १४७० वर्ष शक (वर्ष) १३३४, साठ वर्ष के (चक्र) मध्य में प्लव नाम वर्ष में माघ सुदि ८ शनिवार, रोहणी नक्षत्र में । सम्पूर्ण जगत को शुभ हो। सूत्रधार रत्नदेव ने (उत्तीर्ण किया)।

निष्कर्ष के कुछ बिंदु
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(1) अभिलेख के प्रारम्भ में गणेश, भारती, नारायण की वंदना है।

(2) हैहय वंश के कलचुरी शाखा में प्रतापी शासक ‘सिंहण’ हुआ, जिसने शत्रुओं के अठारह किले जीते।

(3) उसका(सिंहण का) बेटा रामदेव(रामचन्द्र) हुआ। रामदेव ने (फणि) नागवंश के ‘भोणिंगदेव’ को पराजित किया।

(4) यह ‘भोणिंगदेव’ किस नागवंश का था, स्पष्ट नही हो पाया है। तत्कालीन समय में छत्तीसगढ़ क्षेत्र में दो नागवंशी शासक थे। एक बस्तर के छिन्दक नागवंश और दूसरा भोरमदेव(कवर्धा) के फणि नागवंश। बस्तर के छिन्दक नागवंश का अंतिम अभिलेख राजा हरिश्चंद्र का टेमरा अभिलेख सम्वत 1226(1324 ई.)का माना जाता है, इसके बाद इस क्षेत्र में काकतीय वंश का अधिकार हो गया था। अतः उल्लेखित भोणिंगदेव काफी बाद का होने के कारण छिन्दक नागवंश का होना नही जान पड़ता। लक्ष्मीशंकर निगम के अनुसार चौदहवी शताब्दी ईसवी में उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र मे एक नागवंश की स्थापना की गई थी। सम्भव है भोणिंगदेव इसी नागवंश का हो।

(5)मगर अभिलेख में स्पष्टतः भोणिंगदेव को फणि वंश का कहा गया है(फणिवंशस्याऽहतः)।इससे फणि को केवल नागवंश न लेकर फणिनागवंश लेना उचित प्रतीत होता है।इसलिए मिराशी ने इसके फणिनागवंश के होने की सम्भावना व्यक्त किया है। फणिनागवंशी रामचन्द्र के मड़वा महल अभिलेख विक्रम सम्वत 1406(1349 ई.) में रामचन्द्र के पुत्र अर्जुन और हरिपाल का उल्लेख है।यदि भोणिंगदेव फणि वंशी रहा होगा तो इन्ही के बाद की पीढ़ी का रहा होगा, मगर इस सम्बन्ध में अभी तक कोई साक्ष्य नही मिल सका है।

(6) उसका(रामदेव का) बेटा ब्रम्हदेव हुआ। उसकी मुख्य राजधानी खल्लावाटिका(खल्लारी) है।

(7) वहां(खल्लारी में) देवपाल नामक ‘मोची’ है। वह शिवदास का बेटा तथा ‘जसौ’ का का नाती है। उसने नारायण(विष्णु) का मण्डपयुक्त मंदिर बनवाया। देवपाल द्वारा विष्णु मंदिर का बनवाया जाना,तत्कालीन मध्यकालीन समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। तत्कालीन सामाजिक संरचना में एक दलित वर्ग के व्यक्ति द्वारा मंदिर निर्माण वर्णव्यवस्था के प्रचलित मान्यता से भिन्न है।

(8)यह प्रशस्ति इस उपलक्ष में लिखा गया है। दामोदर मिस्र ने यह प्रशस्ति रची। श्रीवास्तव वंश के पंडित रामदास ने प्रशस्ति लिखी तथा सूत्रधार रत्नदेव ने इसे अंकित किया।

(9)सम्वत 1470 शक(वर्ष) वर्ष 1334, साठ वर्ष के(चक्र) मध्य में प्लव नाम वर्ष में माघ सुदि 8 रोहणी नक्षत्र।
अर्थात 19 जनवरी 1415 ई.।

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संदर्भ
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(1) आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया वॉल 07 (1873-74)- बेग़लर

(2)एपिग्राफीका इंडिका वॉल 02 (1892)- किलहार्न

(3)कार्पस इंस्क्रिप्सन इंडिकेर वॉल 04 पार्ट 02 (1955)- मिराशी

(4) उत्कीर्ण लेख (1961)- बालचन्द जैन

(5) छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल के कलचुरी(2008) – डर ऋषि राज पांडेय

(6) छत्तीसगढ़ का इतिहास(2014, द्वितीय संस्करण)- डॉ रामकुमार बेहार

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#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छ.ग.)
मो. 9893728320

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