May 9, 2024

साक्षात्कार : शेखर जोशी

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मध्यवर्गीय व ग्रामीण जीवन के सुख दुख की अपनी कहानियों में मुखर करने वाले कथाकार शेखर जोशी ऐसे कथाकारों में हैं जिन्होने कोई उपन्यास नहीं लिखा और मात्र 60- 65 कहानियां लिखकर एक ऐसे कथाकार के रूप में जगह बनाई जिनके योगदान की चर्चा किए बगैर हिंदी साहित्य के नई कहानी आंदोलन को समझना कठिन है।कोसी का घट्वार शेखर जोशी का पहला कहानी संग्रह है जो 1958 में प्रकाशित हुआ। पर्वतीय क्षेत्र से होने के कारण पहाड़ी अंचल का परिवेश व संस्कृति इनकी कहानियों में प्रमुखता से उभर कर अायी है।पुस्तक ‘ एक पेड़ की याद ‘ पर इन्हें उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार-1987 प्रदान किया गया। इसके अतिरक्त इन्हें साहित्य भूषण-1995, पहल सम्मान-1997 से सम्मानित किया जा चुका है। इनकी कहानियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, चेक, रूसी, पोलिश और जापानी भाषाओँ में अनुवाद किया जा चुका है।कुछ कहानियों का मंचन और दाज्यू नामक कहानी पर बाल फिल्म सोसायटी द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है।
आपकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं- कोशी का घटवार(1958), साथ के लोग1978, हलवाहा(1981), नौरंगी बीमार है1990), मेरा पहाड़(1989), डांगरी वाले (1994), प्रतिनिधि कहानियां और एक पेड़ की याद। प्रस्तुत है शेखर जोशी जी की मीना पाण्डेय से हुई बातचीत –
प्रश्न- अपने प्रारंभिक जीवन की उन परिस्थितियों पर प्रकाश डालें जिन्होंने आपका रुझान साहित्य जगत की तरफ मोड़ दिया?
उत्तर – मेरे साथ बचपन में दो प्रमुख घटनाएं हुई, पहली ग्यारह वर्ष की उम्र में मातृ विहीन हो जाना दूसरा इसी उम्र में मुझसे मेरा प्रिय परिवेश घने वनों,ऊंचे पर्वतों व कल कल करती नदियों,खेत खलिहानों व गावों की सामूहिकता वाला परिवेश जाना। मैं ग्यारह वर्ष की उम्र में रेगिस्तानी इलाके में भेज दिया गया।एक मानसिक आघात की तरह था यह समय मरा जन्मस्थान अल्मोड़ा कविवर पंत जी की जन्मस्थली कोसानी के बहुत नजदीक है।
तो इस तरह मेरा बचपन छूट गया, मै असमय बहुत समझदार हो गया। दूसरों के आंखों की भाषा समझने लगा।जो बच्चे दूसरों के संरक्षण में रहते हैं अपने माता पिता के पास नहीं रहते उनके मनुहार पीछे छूट जाते हैं। वे अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। उसके बाद अपने अस्तित्व बचाए रखने व अपनी अस्मिता बनाए रखने की जिद।
देहरादून में कॉलेज परिसर में रहता था। मैदानी इलाकों के लड़के जो प्राय: व्यवसायियों या समृद्ध किसानों के लड़के होते थे,हम आर्थिक रूप से विपन्न पहाड़ी लड़कों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। बड़ी हीन भावना रखते हुए उन्हें सी भुला’ ‘ ए भुला’ कहकर बुलाते थे।मुझे ये सब बहुत बुरा लगता था।सन 50में कॉलेज मैगज़ीन के लिए मैंने दो गद्य रचनाएं लिखी। , ‘ सेल्फ ओविचूरी ‘ और ‘ रविन्द्र कविता कानन का भ्रमण ‘ अंग्रेजी व हिंदी में।वो रचनाएं मैंने शेखर पहाड़ी नाम से लिखी। तो ये एक जिद्द थी क्षेत्रीय भेदभाव के विरूद्ध।फिर चार वर्षों के व्यावसायिक पाठ्यक्रम के लिए दिल्ली आया।50 के दशक में दिल्ली के होटल वर्कर यूनियन के सदस्यों से परिचय हुआ।उनके साथ सहभागिता करते हुए उनके संघर्ष की मैंने देखा। उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ दिल्ली में बहुत सक्रिय था। प्रगतिशील लेखकों से परिचय हुआ।नई विचारधारा वाला साहित्य पढ़ने को मिला। समझ और विकसित हुई। स्वयं भी लिखने की अपने आप को व्यक्त करने की ललक में में उठी। कविताओं से शुरुवात हुई थी।।दिल्ली में मैंने कहानियां लिखीं।फिर 1955 में इलाहाबाद आने पर साहित्यकारों से परिचय हुआ, गोष्ठियों में भागीदारी बढ़ी। बहुत कुछ सीखने को मिलता रहा।
प्रश्न – अपने समकालीन लेखक व लेखकों के कथा तंत्र को आप किस रूप में रेखांकित करेंगे?
उत्तर – देखिए,इस प्रश्न के उत्तर में मैं एक बात जोड़ना चाहूंगा कि हमें प्रेमचंद्र का यथार्थ वाद विरासत में मिला है साथ ही कफ़न का कटुयथार्थ वाद वभी हमें विरासत में मिला। मैं यहां एक बात स्वीकार करता हूं प्रगतिशील आंदोलन की कट्टरपंथी आलोचना के बाद जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी व अज्ञेय जी के प्रति पूर्वग्रह पूर्ण मानसिक स्थिति बनी हुई थी और बहुत समय तक हम इन्हें बहुत महत्व नहीं देते थे।ये एक तरह की अपनी कमजोरी थी। यह अतिवाद का समय था। साथ ही यह भी महसूस होता रहा कि प्रगतिशील विचारधारा के नाम पर पूर्व निर्धारित निष्कर्षों वाला जो लेखन हो रहा है वो सैद्धांतिक अधिक है उसमें जीवन की धड़कन नहीं है और उसमें अपनी अपनी बात कहने के लिए पात्रों का सृजन किया जाता है, और निष्कर्ष रखे जाते हैं। लगा इसमें जीवन नहीं है।तो एक मानसिक धरातल विकसित हुआ।इसका एक कारण अनुवाद के माध्यम से अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य से अपना परिचय होना भी रहा।नई कहानी एक तरह से हिंदी कहानी के क्रमिक विकास की कड़ी थी और प्रेमचन्द्र के ही परिवर्तित यथार्थवाद का परिवर्तनशील भाषा का प्रतिनिधित्व था।नई कहानी के दौर की पीढ़ी में स्पष्ट दो अलग अलग धाराएं थीं।एक ओर आर्थिक, सामाजिक धाराओं से जुड़ी कहानियां थीं तो दूसरी तरफ रुमानी व स्त्री पुरुष दैहिक संबंधों को लेकर रची कहानियों की प्रधानता थी। ये बात दूसरी है कि नई कहानी के प्रवक्ता को लोग बने जिनकी प्रकृति दूसरी प्रकार की कहानी की थी।अच्छा,उस समय दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर पश्चिमी साहित्य में एक व्यक्तिवादी सुनसान आ गया था।इसका बहुत कुछ प्रभाव हमारे देश की विभिन्न भाषाओं के लेखन पर भी परिलक्षित होता है। जिन्हें उस दौर के लेखन की कमियां भी कहा जाता है। वो बहुत कुछ वैश्विक प्रभाव के कारण उस दौर की रचनाओं में परिलक्षित होता है।
आप ये भी का सकते हैं कि साठोतरी में जो निसंगता व बेबाकी हम पाते हैं उसका नई कहानी दौर में अभाव है थोड़ी बहुत भावुकता होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।उस दौर का लेखन पूरी तरह भावुकता से उबरा नहीं कहा जा सकता था।
प्रश्न – हिंदी की प्रथम नई कहानी के विषय में कथा आलोचकों में मत विभेद है। नामवर जी निर्मल वर्मा की कहानी ‘ परिंदे’ को प्रथम नई कहानी घोषित करते हैं आप क्या कहेंगे?
उत्तर – वास्तव में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि परिंदे में उच्च कोटि का काव्यात्मक परिष्कार था। आप इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते कि नामवर जी मूलतः कवि थे और बाद में आलोचक बने। तो अगर नामवर जी को वह रुचिकर लगा, उसकी काव्यात्मक था उसकी भाषा व थोड़ा उसको अतिशयोक्ति के रूप में भी लिया गया है। तो उसमें उनका दोष नहीं है।लेकिन यह सही है कि परिंदे एक अलग तरह की कहानी थी। लेकिन साथ ही इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि अमरकांत या कुछ अन्य लोगों की कहानियां एक नए यथार्थ का सृजन कर रही थी। वह भी एक। पहल थी।
प्रश्न – आपके लेखन का प्रारंभिक दौर स्वतंत्रता आंदोलन व उसके बाद नई नई आजादी का दौर था। एक लेखक के तौर पर आजादी के बाद कौन सी जिम्मेदारियां या चुनौतियां आप महसूस कर रहे थे?
उत्तर – जब मैंने लिखना आरंभ किया वह पृष्ठभूमि स्वतंत्रता आंदोलन की थी। अधिकांश साहित्य जातीय गौरव, देश प्रेम व त्याग संघर्ष की भावना से ओतप्रोत था। उसी से हमारे संस्कार बने और दूसरी तरफ प्रगतिशील संघ के संपर्क से समाजवादी चेतना का विकास हुआ। मानसिक व आर्थिक दोनों तरह के शोषण की पहचान हुई। वर्गीय समाज के मध्य एक समतामूलक समाज का सपना मन में मन में उभरने लगा। क्योंकि मुझे अपना माध्यम लेखन को बनाना था अतः रूमानी तरलता के बजाय यथार्थ के धरातल पर सोचने व लिखने की चुनौती वह जिम्मेदारी मेरे सामने उस समय आई। इस सब के पीछे राष्ट्रीय प्रगति के मार्ग में जो अवरोध थे उनकी पहचान धीरे धीरे होने लगी थी।
प्रश्न – नई कहानी दौर में कथाकारों के मध्य कई स्तर पर मसलन ग्रामीण बनाम नागर इत्यादि विभाजन रेखा उभर रही थी। कथाकारों के लेखन में कई ढर्रे बन रहे थे। आप जैसे कथाकारों के लेखन में ग्राम्य जीवन प्रमुखता से उभर रहा था। इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर – देखिए, ऐसा कोई औपचारिक विभाजन कभी नहीं किया गया। अधिकांश कहानीकारों ने इस विभाजन को गंभीरता पूर्वक नहीं लिया। या यूं कहूं कि यह मात्र उपहास का विषय बन कर रह गया। अब जहां तक मेरी कहानियों की बात है, मैं पहाड़ से दूर तो हो गया लेकिन मेरा एक जीवन संपर्क बना रहा। वहां की परिस्थितियों के बारे में, वहां की समस्याओं के बारे में जानकारी मिलती रहती थी और एक लगाव भी बना। मेरी जन्मभूमि है वह। वहां के परिवेश व लोगों के प्रति आकर्षण बना रहा। इसको आप नॉस्टैल्जिया भी कह सकते हैं। मगर इस नॉस्टैल्जिया को मैं अगर इंटरप्रेट करूं जैसी मेरी हलवाहा कहानी का उदाहरण देता हूं। यह एक बदला हुआ यथार्थ था। पहले जो ब्राह्मण हल चलाता था उसे जाति बहिष्कृत कर दिया जाता था। लेकिन परिस्थितियां ही ऐसी हो गई कि ऐसा नहीं करता तो भूखा मरता। तो मैं देख रहा हूं उस यथार्थ को और यदि मैं उसे चित्रित कर रहा हूं तो वह मेरा लगाव है। मेरी एक चिंता है उस क्षेत्र के प्रति जो चित्रित होती है।
प्रश्न – आपने अपनी कहानियों में किसानों व मजदूरों के जीवन को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। क्या आप मानते हैं कि मध्यवर्गीय यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए प्रत्यक्ष जीवन अनुभव व भिन्न जीवन दृष्टि का होना आवश्यक है?
उत्तर – किसानों के जीवन का चित्रण तो हिंदी कथा साहित्य में बहुत पहले से होता रहा है। प्रेमचंद, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, रेणु, जगदीश चंद्र व भीमसेन जैसे लेखकों ने किसान जीवन पर विस्तार से लिखा है। लेकिन मजदूर खासतौर पर औद्योगिक जीवन का परिचय देने वाला लेखन बहुत कम हुआ। कहानी पत्रिका इलाहाबाद से निकलती थी सरस्वती प्रेस से। उसके वार्षिकांक बड़े महत्वपूर्ण माने जाते थे और सभी लेखक ये प्रयत्न करते थे कि उनके वर्ष भर की सर्वश्रेष्ठ रचना उस में प्रकाशित हो। एक बार उसके विशेषांक को पढ़कर मैंने एक पत्र संपादक को लिखा था। उससे पहले मेरा परिचय कहानी पत्रिका वालों से नहीं हुआ था। मैंने पत्र में यह प्रश्न उठाया था कि जो पसीने का रिश्ता होता है वह भी एक रिश्ता होता है, मजदूरों का मजदूरों के साथ। वह दिन का एक बड़ा हिस्सा साथ बिताते हैं। उनके संघर्ष, परेशानियां एक तरह के होते हैं और उनके सुख भी एक तरह के होते हैं जिनको वह शेयर करते हैं। तो मैंने संपादक को लिखा आपके विशेषांक में मध्यवर्गीय जीवन की कहानियां है किसानों के जीवन की कहानियां है, महिलाओं के आंतरिक जीवन की कहानियां है लेकिन औद्योगिक मजदूरों के बारे में किसी लेखक ने कलम तक नहीं उठाई है। कहानी के कार्यकारी संपादक भैरव प्रसाद गुप्त हुआ करते थे। उन्होंने वह पत्र तो छाप दिया पर जब परिचय प्रगाढ़ हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा। क्यों आपका तो परिचय है ना। तो आप क्यों नहीं लिखते मजदूर जीवन की कहानियां। तब अगले ही अंक में मेरी कहानी ‘ उस्ताद’ छपी और उससे पहले हंस का वार्षिकांक अमृतराय वह बालकृष्ण राव ने निकाला था। तो उसमें मेरी ‘ बदबू’ कहानी छपी थी। बाद में इसरायल व सतीश जमाली ने भी औद्योगिक जीवन पर बहुत अच्छी कहानियां लिखी। लेकिन फिर वही शून्य पसर गया। फिर जो आपने पूछा तो यह रचनाकार के रचना कौशल पर निर्भर करता है कि जो जीवन अनुभव उसने अर्जित किए हैं उन्हें वह रचना द्वारा किस प्रकार विश्वसनीय तरह से प्रस्तुत करता है। यह लेखक की जीवन दृष्टि का प्रश्न भी है। ऐसा नहीं है कि मध्यवर्गीय यथार्थ को करीब से अनुभव ना करने वाला रचनाकार उसे पकड़ ना सके। संवेदना ग्रहण करने की ही चीज होती है और गहरी संवेदना व वैज्ञानिक दृष्टि से ही सार्थक और श्रेष्ठ रचना संभव है।
प्रश्न – आप प्रगतिशील विचारधारा के लेखक हैं। प्रगतिशील धारा के हिंदी कहानी को योगदान को आप कैसे रेखांकित करते हैं?
उत्तर – प्रगतिशील धारा के योगदान के विषय में एक भागीदार की हैसियत से क्या कहूं। उस दौर में लेखन फार्मूलाबद्ध व क्रांतिकारी लेखन भी बहुत हुआ। ऐसे लेखन को प्रचार भी बहुत मिला। लेकिन अंततः वही रचनाएं जीवित रही जिनका आधार गहरी संवेदना, सकारात्मक जीवन दृष्टि, व विधा के अनुरूप कलात्मक परिष्कार था। मैं मानता हूं कि विचारधारा के बिना किसी भी प्रकार का लेखन नहीं हो सकता। अब सवाल उठता है कि किस प्रकार की विचारधारा समाज सापेक्ष होती है जो आपके लेखन को धारदार बनाने में सहायक हो। नियतीवादी सोच, रूढ़ प्रदतशील परंपराओं का पोषण आपको किसी प्रकार के परिवर्तनकारी साहित्य की प्रेरणा नहीं दे सकता। आदर्शवादी व भावुकतावादी छवियां मात्र पाठक का मनोरंजन कर सकती हैं। यहां तक कि उन्हें अश्रु विघलित भी कर सकती हैं। परंतु किसी प्रकार की जीवन दृष्टि व संघर्षों से जूझने की प्रेरणा पाठक को नहीं दे सकती। ना ही सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा दे सकती हैं। अतः वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न विचारधारा ही परिवर्तनकामी लेखक के लिए काम्य है। स्वस्थ जीवन मूल्यों के पोषण व संरक्षण के लिए तार्किक व वैज्ञानिक सोच जरूरी है। जिस दर्शन में यह तत्व निहीत हैं उसके प्रति आप प्रतिबद्ध हैं तो यह स्वागत योग्य है।
प्रश्न – आपने पहले नॉस्टैल्जिया का जिक्र किया। अक्सर ग्रामीण जीवन को अपनी कहानियों में उकेरने वाले कथाकारों पर नॉस्टैल्जिया से ग्रसित होकर लेखन करने के आरोप लगते रहे हैं। इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर – देखिए, नॉस्टैल्जिया वाली जो बात है उस पर मैं कहूंगा कि पढ़ा-लिखा तबका आजीविका के लिए गांव से शहर की तरफ पलायन करता है। और वहीं का होकर रह जाता है। उसके पास लड़कपन तक की स्मृतियां होती हैं। वह जुगाली करता रहता है। इसमें कोई बुराई नहीं है पर एक खतरा बना रहता है कि गांव का जो बदला हुआ यथार्थ है वह उसके हाथ से छूट जाता है। इसके लिए जरूरी है कि लेखक का ग्राम समाज से संपर्क बना रहे। नॉस्टैल्जिया पूरी तरह से नकारात्मक नहीं है उसमें बहुत सकारात्मक ढंग की चीजें भी होती हैं। यदि उसके माध्यम से कथा चलती है तो जो जीवन दर्शन होता है वह भी सकारात्मक होता है।
प्रश्न – आमतौर पर कथाकार आलोचकों से संतुष्ट नहीं दिखाई पड़ते। वर्तमान कथा आलोचना के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तर – आलोचक भी कई तरह के होते हैं और रचनाकारों की प्रकृति भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है। तो यह कहना रचनाकार आमतौर पर संतुष्ट नहीं रहते यह एक प्रकार का सरलीकरण है। रचनाकार को आलोचक की राय को विवेक पूर्ण ढंग से ग्रहण करना चाहिए। अपने विश्वासों मूल्यों की कीमत पर आलोचक की प्रशंसा पाने के लिए यदि रचनाकार समझौते करता है तो उसके हित में नहीं है। हां, आलोचक की तर्कसंगत व्याख्या में उसे यदि कोई सार दिखाई देता है तो उसे अवश्य ग्रहण करना चाहिए। कहानी की आलोचना बहुत वस्तुनिष्ठ ढंग से अभी तक हो नहीं पाई है। कहानी आंदोलनों, दशकों, वादों के खाते में डाल कर बहुदा प्रवृत्तियों पर चर्चा होती है। बहुत कम लोगों ने अलग-अलग कहानियों पर स्वतंत्र रूप से विस्तार में जाकर चर्चा की है। कोई कहानी महत्वपूर्ण है तो क्यों और उसमें एक अच्छी कहानी की संभावना होने के बावजूद कोई कसर रह गई है तो वह क्या है। जैसे कहानी पढ़ने पर बहुत अच्छी लगती है लेकिन उसके निहितार्थ यदि घातक हैं तो यह बताना पाठक को सीखने सिखाने का मौका तो देता ही है आलोचक की वस्तुनिष्ठता को भी दर्शाता है। 60 के दशक में जिस प्रकार नामवर जी ने नई कहानी पत्रिका के ‘हाशिए पर ‘ स्तंभ में नई कहानी के स्वरूप,शिल्प, भाषा, गुणवत्ता, शैली पर विस्तार से चर्चा की थी, उस परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए था। नामवर जी की किताब ‘ कहानी और नई कहानी’ पुस्तक में वह सब लेख हैं जो वह इलाहाबाद में रहकर लिखते थे। उसमें उन्होंने कहानियों के उदाहरण दिए हैं। उनका तरीका यह होता था कि अगले अंक में क्या लेना है उसकी रूपरेखा उन्होंने बनाई, जैसे कहानी थी हेमिंग्वे की किलर तो पहले अंक में वह अनूदित कहानी हत्यारा आई और उसके बाद नामवर जी की प्रतिक्रिया। उन्होंने उस की बारीकियां समझाई की हत्यारा कहानी बड़ी कहानी है और क्यों बड़ी कहानी है। इस तरह का काम बहुत आगे नहीं बढ़ा। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है विश्वनाथ त्रिपाठी जिस प्रकार रचना के अंदर प्रवेश कर उसका विश्लेषण करते हैं वह प्रशंसनीय है। पर एक अकेला कथा आलोचक समृद्ध होती कथा परंपरा के साथ न्याय नहीं कर सकता। विश्वनाथ जी अभी भी वसुधा पत्रिका में जो कहानी छपती है उन्हें लेकर कई स्तरों पर विश्लेषण करते हैं और बताते हैं क्यों यह कहानी महत्वपूर्ण है। जिस मात्रा में कहानियां लिखी जा रही है और अच्छी कहानियां लिखी जा रही हैं उनसे पाठकों को परिचित कराने के लिए कथा आलोचना को और भी समृद्ध होना चाहिए।
प्रश्न – वर्तमान कथा परिदृश्य को आप कैसे रेखांकित करेंगे?
उत्तर – पिछले कुछ सालों से नेत्र विकार के कारण पढ़ने में अक्षम हूं। नए लिखने वालों को पढ़ नहीं पाया हूं। इसीलिए कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।
प्रश्न – नए कहानी लिखने वालों को आप क्या संदेश देंगे?
उत्तर – मेरी एक कहानी है ‘ आशीर्वचन ‘। उसका नायक श्यामलाल रिटायरमेंट में जाने वाला है। वह नई पीढ़ी को कुछ संदेश देना चाहता है मगर जब यह मौका उसे नहीं मिलता तो सोचता है कि हमारा कुरुक्षेत्र हमने लड़ा,नई पीढ़ी अपना कुरुक्षेत्र स्वयं लड़ेगी। मेरा भी यही संदेश होगा कि नई पीढ़ी स्वयं अपने हथियार जुटाए और अपना कुरुक्षेत्र लड़े।

साक्षात्कारकर्ता
मीना पाण्डेय
एम-3, सी-61, शालीमार गार्डन एक्सटेंशन-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद-201005
मो. 9891542797

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