May 10, 2024

वश में कर सके, है बस में किस के
ये बंधन – डोर तुमने ही बांधे कस के

सांसों की बेड़ी से जकड़ रखा है तन
मन-कारागर में रहते हो तुम फंस के

खुली है आंख पर दृष्टि के पट हैं बंद
जागे है सत्य खुले जो द्वार अंतस के

पर्वत-रुदन बनाए तुमने हृदय धरा पे
पीड़ा-प्रवाह झरने दो आंख से हंस के

बेसुध हैं बोल, वाणी बरसे गरल-धार
अधर से छलकाओ बूंद अमृत रस के

तुमने बोए बाधा सहज मुक्ति मार्ग पर
आहत यात्रा पर मिटे हैं स्वप्न बरस के।

– मनिषा सिंह
स्वरचित, मौलिक
©स्वाधिकार सुरक्षित

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