May 9, 2024

पूजा घर, पुजारी और घण्टा

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◆ स्मृतियों का नाद ◆

■ रा जे श ग नो द वा ले

“जब बजाया जाता तब तो अपनी समूची अनुगूँज के साथ बजता था। किनारे कहीं ओझल सा रखा होता तो जैसे एकांत में उसकी चुप्पी बजती थी!”

|| एक ||
घण्टा था वह। कांसे का घण्टा। पता नहीं कितना पुराना, हमारी उम्र उसे देखते हुए बढ़ती चली गई – और वह भी उम्रदराज़ होता गया। अपनी छवि से और अपनी आवाज़ से भी। यों पूजा घर में उसकी अनिवार्य जगह थी , लेकिन आलमारी से बाहर तभी निकाला जाता जब उसे बजाना हो। बजाने वाले निरंतर उसे भूलते जा रहे थे – और नई पीढ़ी का उसके साथ कोई अनुराग नहीं।

पूजा घर परछी के एक किनारे में था। परछी से होते हुए जाना पड़ता था। घर का यह मंदिर उतना ही बड़ा था जितना उसे उस बाड़े के अनुपात में होना था। बालपन से देवी-देवताओं की छवियाँ और पूजा सामग्री के साथ जिन-जिन चीज़ो को हम देखते आ रहे हैं उनमें घण्टा भी एक वस्तु है। इसके दो प्रकार पूजा घर में आरम्भ से ही थे। वैसे उस आलमारी में देव-दैवत्व से जुड़ी ढेर सारी वस्तुएँ थीं। जितनी चीज़ें , उतना ही देवताओं के अनुष्ठान की व्यापकता का पता लगता था, देवालय के पुराने होते जाने का भी। इन्हीं में एक घण्टा भी है जो मंदिर की अकेली वस्तु है जिसे सब को छूने का अधिकार मिला था। लेकिन कोई बजाना जाने तब ना बजाए। जब कभी खास प्रसंगों पर घण्टा आलमारी से बाहर निकाला जाता तो लगे कि मंदिर थोड़ा सा , बाहर आकर भक्तों के बीच घुल मिल रहा है।
यानी दैवत्व का लोकतंत्र जैसा।

हम बाड़े में ही जन्में ,पले और बढ़े। [ अब भी वहीं हैं ] मंदिर बाड़े के भीतर किनारे एक छोटा कमरा में स्थित है। मंदिर सार्वजनिक नहीं था। लेकिन पड़ोसी परिवारों की वृद्धाएं नियमित दर्शन करने आती थीं। यादें जहां से शुरू हो रही हैं उससे पता लगता है मंदिर में पूजा करने पुजारी आता था। बरसों तक पूजा का जिम्मा किसी न किसी ने उठाया। वह आता ,पैर धोकर मंदिर में प्रवेश करता। भगवान को नहलाता , धुलाता। सॉटन के चटख नए वस्त्र पहनाता। और फिर चंदन, चंदन घिस कर निकाला जाता , वही देवताओं को लगता। पूजा करना , प्रसाद बाँटना और फिर निकल जाना। यह नित्य का विधान था। शाम में भी आरती होती। सुबह सांकेतिक प्रसाद के रूप में चांदी की कटोरी में दूध रहता जबकि शाम के समय आटा , घी-चीनी और तुलसी के पत्तों वाला ‘चुरमा’ जैसा प्रसाद। तुलसी की पत्तियां होने से उसमें प्रसाद-तत्व उभरकर आ जाता था, वरना था तो आटे का मीठा बुरादा ही। कृष्ण जन्माष्टमी ,रामनवमी आदि में ‘पंजीरी’ बनाई जाती थी। पंजीरी देख कर ही मंदिर में होने का अहसास जाग जाता था।

उन दिनों पूजा करने जो जो लोग बाड़े में आते थे वे सभी याद रह गए। “मेरे हिस्से में आए हुए लोगों” की तरह उन्हें याद कर रहा हूँ तो वे सारे लोग अपनी-अपनी छवि – प्रभाव और विशेषताओं के कारण ताज़ा होने लगे। पहली काया थी – दमड़ी महाराज की। ‘दमड़ी महाराज’ , उनके परिचय में यहीं नाम घरवालों से सुना हुआ था। कुछ और रहा भी हो तो वे कम से कम हमारे परिवार [ बाड़ा ] में ‘दमड़ी महाराज’ ही थे। काम से ही क्यों देह से भी पुजारी थे नज़र आते थे ‘दमड़ी महाराज’ !

कमान की तरह झुका हुआ शरीर जिससे उनकी उम्र ज़रा और अनुभवी दिखाई देती। अपनी सम्पूर्णता में देवताओं के वे क़रीब हैं ऐसा लगता था। वे आते थे फूलचौक स्थित विठोबा मंदिर से निकलकर। बाद में जाना कि रहते भी वहीं थे वे। उनकी आने और जाने की कोई छवि यादों में हैं और न ही उनकी आवाज़ की। अलबत्ता पूजा करती हुई काया पता नहीं कैसे आँखों में ठहरी रह गई।

महीन पतला शरीर उनका। दाढ़ी , मानो सन के सफ़ेद धागे , अब टूटे कि तब टूटे। सिर का काफी हिस्सा खाली- खाली सा था। देह ताम्बई रँग की। काया पकी और तपी दोनों दिखाई देती थीं। ललाट में चंदन की उजली छवि जिसके बीच सुर्ख कुमकुम। सिर पर बाल न होने से माथा अपनी सीमा ऊपर तक ले जाता दिखाई देता था। परिणाम यह था कि चंदन का सिरा सिर तक फैल जाता !

अपनी जीर्ण- शीर्ण काया के साथ वे आरती करने खड़े होते। सीधे हाथ में आरती थाल और बाएँ हाथ में घण्टी। दायाँ हाथ आरती थामे वृत्ताकार घूमता जाता और बायाँ हाथ घण्टी को दाएं-बाएं हिलाता बजाते जाता। दो हाथ, दो विपरीत क्रियाएँ , दोनों अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए। दमड़ी महाराज के निधन के साथ उनका क्रम टूटा।

|| दो ||

एक और पण्डित काफी साल रहे। वाचाल किस्म के थे। अच्छी कद काठी ,भव्य रूपाकृति। देखकर ही लगे कि सीधे ‘दशाश्वमेध घाट’ से आए हैं। बड़े मठों में सर्वराकारों के अगले-बगल में दिखाई देने वाले कुछ बलिष्ठ साधु-संतों की तरह वे थे। उन्नत ललाट वैसा ही उनका डील-डौल। खुले बाल ,खुली दाढ़ी। वे स्वयं ही कभी कभार “भोजन करूँगा” कह दिया करते थे। हालाँकि
घर के श्राद्ध आदि प्रसंगों में उनकी थाली अनिवार्य होती थी। पालथी मार कर बैठते। थाली पीढ़े में रखते और खुद चटाई में बैठते। खुराक अच्छी थी। भोजन जम कर करते। शुगर, बीपी ,पथ्य-परहेज़ आदि-इत्यादी उनके शब्द कोष का हिस्सा नहीं थे। उन्हें भोजने करते देख कर लगता था कि खाना तो असल में इसी ढंग से खाया जाना चाहिये। भोजन करते समय कुर्ता उतार खूंटी पर टाँग देते। उनका जनेऊ आधा पेट पर कसा होता तो धागे का ऊपरी भाग वक्ष के नीचे दबा हुआ सा। और चाबियों का एक गुच्छा कमर में डोलता रहता। डकार लेकर जब वे उठते तो तृप्त होने का अहसास भी सुनाई देता साथ ही जजमान के प्रति नम्रता का बोध भी। अवधि का पुट उनकी हिंदी में था।
वे भी अंत समय तक बने रहे।

बीच में कुछ बरसों का कालखण्ड कानपुर देहात से आए एक त्रिपाठी ब्राम्हण का था। उनकी बोली में उनके जनपद का स्वर मिला हुआ था। नाम था – गयाप्रसाद त्रिपाठी। वे अपनी माता जी के साथ कुछ बरसों तक बाड़े में ही किराए से रहे। बड़े मृदु भाषी और अपनी सज-धज से पुरातन मालूम देते। उनकी आवाज़ का ग्राफ मन्द्र स्वरों में ही सिमटा रहता। दरअसल आए तो थे किराएदार बनकर , लेकिन बोली-बानी से धरम करम के प्रति उनकी आस्था का पता लग जाता था। आरती के दौरान आदर्श भक्त की तरह विनीत भाव से खड़े रहते कि जैसे समर्पण कर रहे हों!

धीरे-धीरे मंदिर के प्रति उनका अनुराग जागा और खुद गया प्रसाद ने एक दिन इच्छा जताई कि पूजा कर दिया करेगा। इस तरह गयाप्रसाद भी पूजा करने लगा। यद्यपि काम चलाऊ ही था उसके भीतर का दैवत्त्व। रायपुर छोड़ने तक उसने पूजा की। बाद में कभी रायपुर आना होता तो मुलाकात करने बाड़े में ज़रूर आता था। पहले मंदिर को प्रणाम करता फिर घर वालों से मिलता। मुझे देखकर “बहुतै तंग किया रहा हमका” कहता और मुस्कुराते लगता! वापस कानपुर लौटने के काफी सालों बाद उसने गृहस्थी बसाई। एक बार पत्नी को भी बाड़ा और मंदिर दिखाने लाया तो अपनी पत्नी से मेरा परिचय कराते तंग करने वाली बात दोबारा दोहराई! अब गयाप्रसाद भी शांत हो गया – इसका पता असल में कानपुर से आई एक चिट्ठी से लगा।

गयाप्रसाद की कद काठी मध्यम थी। कुरता-धोती में ही रहते। चेहरा गहरी रंगत वाला। लट्ठे का कपड़ा उनके शरीर की पहचान था। आज जब उनके बारे में लिखने बैठा तो लगता है यदि प्रेमचंद के जीवन पर कोई नाटक तैयार होता तो वह क़िरदार गयाप्रसाद को सूट करता। असल में उनका चेहरा, कपड़े और चेहरे पर टँगा हुआ विनीत भाव। गयाप्रसाद ने, जैसा कि याद आता है दो-एक बार अपने साथ लेकर मुझे फ़िल्म भी दिखाई।

इनके बाद और भी कुछ आए-गए कोई याद रहा न उनकी पूजा याद रही। जबकि वे उस उम्र में आए जब मेरी युवावस्था का दौर आरंभ हो गया था। लेकिन मैं उन्हें याद नहीं रख सका।

|| तीन ||

पूजा घर का जो छोटा कमरा है उसमें उसमें पीछे की तरफ एक खिड़की है – जो जब से उसे देखा बन्द ही थी! बन्द खिड़की वाला पूजा घर। पूजा घर कहलाने के बाद ज़रूर खिड़की बन्द रही होगी ऐसा लगता है। वहीं एक आलमारी है। तीन खण्ड वाली। है तो वह आलमारी ही , लेकिन भरी हुई वस्तुएँ उसे स्टोर रूम में बदल देती थी। जर्जर होती पोथियाँ , एकाधिक चित्र , गंगाजल रखने का ताम्बे का सुराहीदार पात्र , बड़ा सा शंख , घण्टा – खंजरी , खड़ताल और झाँझ। एक मटमैली खाल भी सिमटी हुई कोने में रखी रहती। ढेर सी मालाएँ, रुद्राक्ष सहित और भी न जाने क्या-क्या था उसमें! भरी और बिखरी वस्तुओं के कारण आलमारी भीतर झाँकना अच्छा लगता था। सब मिलकर आलमारी की उम्र और बढ़ा देते। एकत्र वस्तुओं का शमिलात मटमैला रँग और इन सबके कारण उभरने वाला “सीपिया टोन” भी नॉस्टैल्जिया था।

ज्यों ही उसे खोला जाए खास क़िस्म सुगंध खुलते ही नाक में समा जाती। कभी-कभार तो उस सुगन्ध का अनुभव करने आलमारी का एक पल्ला खोल कर आँखें बंद कर कुछ देर खड़ा हो जाता था। केवल सुगन्ध नहीं , ‘दृश्य’ भी बन जाता था उसे नथुनों में समाते देखना।

तीन भाई हैं हम। तीनों ने भी काफी समय तक पूजा की। काफी सालों से बड़े भाई पूजा करते हैं। आजकल उतना भव्य रूप पूजा का बचा है न अब उतने लोग हैं बाड़े में। घर के छोटे सदस्यों की बाहरी व्यस्तता भी धीरे -धीरे रौनक कम किये दे रही हैं , बस परम्परा निभ रही है। उस दिन रामनवमी थी। पूजा के दौरान आदतन और हर साल की तरह घण्टा निकाला। इस बार मैंने ही बजाया। क़रीब-क़रीब तीस सालों बाद। वह भी मात्र सांकेतिक रूप से। लेकिन बजाने का ढंग वैसा नहीं था जैसा इसे बजाया जाता है। जिन्होंने घण्टा बजाया है वे जानते हैं। अगर दो घण्टे हुए – जो कि आमतौर पर होते, हैं , होना चाहिए तो उसकी शैली बदल जाती हैं। आप उसे ढमर – ढमर पीट कर नहीं बजा सकते। एक खास तरह से हाथों को झुलाते आगे-पीछे करते हुए उसे बजाना पड़ता है। कहने का मतलब दोनों के सामूहिक नाद से एक रूपाकार बनता है।

तो इस साल बरसों बाद घण्टा हाथों में आया मन में गर्मजोशी भी आई। यह सब दशकों पुराने अनुभव के क़रीब होने जैसा था। आरती हो गई थी। घण्टा मैंने जहां का तहाँ रखा, फिर वापस अपनी दिनचर्या में उतर गया। लेकिन देख रहा था घण्टा तो निरंतर बज ही रहा है! उसके हर बजाव के साथ यादों का झुलाव भी आगे-पीछे हो रहा है। फिर दिन भर उससे जुड़ी स्मृतियाँ आने-जाने लगीं। लगा कि मंदिर में बीता हुआ कितना अधिक समाया है जो अभी भी आलमारी में बेतरतीब बिखरा है। घण्टा उन्हीं में एक है , जिसकी आवाज़ में मिठास थी और दर्द भी। समय के साथ जिस तरह शास्त्रीय संगीत में तानपुरा और भरावदार ( गम्भीर ) होता चला जाता है क्या कांसे की धातु वाला घण्टा भी बरसों बरस बीतते जाने के साथ अपना सुरीलापन बढ़ाते जाता है? उस रोज़ बजाते हुए मैंने उसकी आवाज़ में घण्टे की बढ़ी हुई उम्र का असर भी सुना।

न जाने क्यों घण्टा अगले दिन दोबारा निकाला और काफी देर तक उसे उलट-पुलट कर देखता गया। कितने स्पर्श , कितनी अनुभूतियाँ और कितने लोगों की हथेलियों में वह आया गया होगा। कहने को भले धातु की निर्जीव प्लेट। लेकिन हमारा तो बचपन ही उसे लेकर इठलाते हुए गुज़रा था। अचरज ही कहिये कि पहली बार उस दिन उसे गौर से देखा।

|| चार ||

हमारी गली में एक हमारा ही मकान है जहां से पूजा के स्वर बाहर आते हैं। एक सिंधी गुरुद्वारा होता था कभी। हमारा ही किराये पर दी हुई जगह में। गली के मुहाने पर भागीरथी मंदिर है। बालपन में वहीं बजते देखा था। उसी झूमती हुई हथेलियों के साथ। अब वहाँ बजता है या नहीं इसकी कोई स्मृति नहीं है। रायपुर के किन्हीं मंदिरों में उस झुलाती हथेलियों के साथ लयदारअंदाज़ में घण्टा बजते नहीं देखा।

एक रोज़ गोलबाजार जाकर कांसे की कुछेक बर्तन दूकानों में पता लगाया। घण्टा मिल तो जाता है। लेकिन पतला और स्वरहीन! कभी कोई आता है महीनों में खरीदने। वाद्य यंत्रों की एक दुकान में अलबत्ता बिजली चलित घण्टा देखा। स्पर्श रहित , बटन दबाओ ,बजता रहेगा। एक वेग में। बिना अर्थ और सम्मोहन के! अब बस आरती करने वाला रोबोट आना बचा है! आज का समय कृत्रिम मेधा का है। “आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ के इस दौर में अदना से पूजा पात्र ‘घण्टा’ के लिए कोई क्यों अपना समय गँवाएगा !

समय ने सब बदल दिया। जीवन की वह सामूहिकता ख़त्म हो गई। बाड़ा है अपनी निर्जनता की तरफ बढ़ता।दादी काफी पहले नहीं रही। पहले वही पूजा किया करती थीं पंडितों के पहले। अब न पण्डित रहे और न ही वे किरायेदार। अधिकांश शांत हो गए हैं। मैं हूँ अपनी बढ़ती जाती उम्र के साथ। आँखें ठीक हैं और कान भी। हाथ-पैर चल रहे हैं।

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