June 30, 2024

दृश्यों को बुझाकर,
मुँदी पलकों पर रखे गए चुम्बनों की तरह
क्या किसी ने पृथ्वी को उसके स्पर्श से पहचाना है?

यदि, नहीं
तो मत कहिए
अंधे की अंतिम इच्छा दो आँखें हैं।

दुनिया रेटिना पर चमगादड़ की तरह उल्टा लटकी कोई कलाकृति भर नहीं होती।

सामूहिकता से बाहर खदेड़े गए बधिर कहलाए लोग
सुनते हैं जीवन की इंद्रियभेदी धुन,
अनहद की तरह अपनी आत्मा पर

मत कहिए उनको कि उनका व्यक्तित्व लघु है
छुप-छुपकर बातें सुनती पत्थर की दीवारों से भी।

माँ का स्तन पकड़े अनिमेष शिशु
अपनी जिह्वा पर जो चखता है,
उसे दूध का नहीं,
जिजीविषा की मोहित स्वाद कहिए।

मनुष्य,
इंद्रियों के तुम्हारे अनुभव, सत्य हो सकते हैं
किंतु अंतिम नहीं हैं वे।

रोने की परिभाषा में
आँसुओं में डूबा अंधत्व शामिल है।
जिन्होंने हमेशा,
सब कुछ साफ़-साफ़ देखा,
वे दुनिया के बहुत बर्बर तानाशाह हुए।
किंतु अंधत्व संदिग्ध है, भाषा अब तक कहती है-
अंधों के आगे रोना अपनी आँखें खो देना है।

भाषा ने स्वनिमों का नमक खाया था,
इसलिए उनकी जी हुज़ूरी करती है।
प्रेम के बारीक संवाद
शब्दों की बाती तले, काँपते मौन में होते हैं।
पीड़ा की धधक में कराह बँधती है,
उन्माद में छाती हूकती है, शब्द छूटते हैं।

कहाँ तो स्वर राजद्रोह करते हैं
और निर्वासन मिलता है मौन संवाद को।

भाषाओं का वह यक्ष-हठ था,
जिसने कहा-पहले प्रमाणित करो!
अन्यथा गूँगे का गुड़
हमेशा से; गुड़ जितना ही मीठा था।

इस लोकतांत्रिक देश की ग़ैर-लोकतांत्रिक झिझक थी,
जिसने कभी नहीं पूछा कि
अंधों का राजा भला अंधा क्यों नहीं हो सकता?*
या फिर इस देश की जनता की कायरता
जो चीखती रही
सरकार बहरी है, बहरी है
जबकि कहा जाना था कि वह मक्कार और निकम्मी है!

इस दुनिया के ‘सामान्य जनों’ ने
उन ‘असामान्य’ में जाने कितनी लाचारी देखी
कि चिताओं पर बैठते हुए भी गिनते रहे अपने अंग
कि अस्पताल की दीवार पर चिपका अंगदान का पर्चा
भयभीत करता रहा मृत्यु के उस पार तक।

दुःखद है,
जिन्होंने कभी रहज़नी नहीं की,
हत्याएँ-युद्ध नहीं किए थे
हमारी सभ्यता की कथाओं में
उन्हें खलनायकों की भूमिकाएँ ही मिलीं ।
भाषा में वे अपशकुनों की तरह बीतते रहे
श्रापों की तरह उच्चारित होते रहे।

-एकता वर्मा

पोस्टर में प्रयुक्त पेंटिंग- अनु प्रिया

*(कविता का यह बिंब मित्र Dipesh Kumar की बातचीत से मिला, जिसका श्रेय उन्हें पहुँचे।)

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