October 6, 2024

आशीष की वर्षा करता एक ऋषि

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【30सितंबर जयंती विशेष】
बसन्त राघव

पंडित मुकुटधर पाण्डेय जी स्वयं में साहित्य – तीर्थ थे , उनके दर्शनों का लाभ मुझे 10-12 वर्ष की उम्र से होता रहा । पंडित जी काव्य पाठ के लिए कभी बाहर नहीं निकलते थे । हम उनके पड़ोसी थे । अस्तु जब भी गोष्ठियाँ होती । हमारे यहाँ आकर कवियों का बराबर उत्साहवर्धन किया करते थे । इन गोष्ठियों में पुरानी पीड़ी के लोगों में पंडित जी के अतिरिक्त वयोवृद्ध साहित्यकार पं.किशोरी मोहन त्रिपाठी , सेनानी कवि स्व.बन्दे अली फातमी , लाला फूलचन्द , चन्द्रशेखर शर्मा , जनकवि आनंदी सहाय शुक्ल , मुस्तफा हुसैन जैसे सशक्त गीत हस्ताक्षर हुआ करते थे । डॉ . महेन्द्र सिंह परमार , आलोचक प्रवर अशोक कुमार झा और ठाकुर जीवन सिंह भी उपस्थित रहते थे। नये कवियों में स्व.रामेश्वर ठेठवार , रामलाल निषाद , शम्भु प्रसाद साहू आदि दर्जनों कवि हुआ करते थे । इनके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ अंचल , और उसके बाहर , देश के दूर – दूर से प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ . बलदेव के आमन्त्रण पर रायगढ़ आते तो पंडित जी के दर्शन अवश्य करते , गोष्ठियों अक्सर हमारे यहाँ ही जमती और पाण्डेय जी हम लोगों का आग्रह नहीं टालते । हमारे ऊपर उनकी अपार करुणा और प्रेम था । एक बार आचार्य विनय मोहन शर्मा को लेकर वे हमारे घर स्वयं पहुँचे। हम लोगों के आश्चर्य और आनंद का ठिकाना न था । पंडित जी बाहर कुछ भी नहीं लेते थे । परन्तु उस दिन दोनों वयोवृद्ध साहित्यकारों के सामने अच्छा पका हुआ मीठा, पपीता हम लोगों ने संकोच के साथ रखा । दो – दो फांक खा लेने के बाद , आचार्य विनय मोहन शर्मा ने कहा , पपीता तो बहुत मीठा है , पर इतना ही है गया ? मैने कहा पंडित जी पपीता आंगन का है , खूब फला है , और पका भी है । तब शर्मा जी ने कहा – देखते क्या हो ? और उस दिन दोनों महान विभूतियों को पपीता का स्वाद से लेकर , खूब अंतरंग बातें करते हुए हमने सुना । हमारा घर – आंगन धन्य हुआ ।

पंडित जी के कई संस्मरण मुझे याद है , मेरी जब इच्छा होती उनके दर्शनार्थ चला जाता । पुस्तक की अदला – बदली करने मैं ही जाता था । कभी कभी वे मुझे पत्र पढ़ने को कहते । एक बार आचार्य विनय मोहन शर्मा का पत्र पड़ने की आज्ञा मुझे मिली । पंडित जी को अक्षरों से हिन्दी के विद्वान परिचित ही है मैं बार – बार उनका पत्र पढ़ता हुआ अटक जाता । तब पाण्डेय जी मेरा चेहरा देखते और मुस्करा कर वाक्य खुद पूरा कर देते। पंडित जी की एक खास विशेषता यह थी कि वे हरेक पत्र का जवाब देते थे और मिले हुए पत्रों में जवाब का दिनांक लिख देते । पत्र चाहे बड़े से बड़े साहित्यकार का हो , चाहें अपरिचित किसी जिज्ञासु पाठक का । वे तत्काल उत्तर देते थे । वे अपनी सन्दूकची में 20-25 कोरे कार्ड अवश्य रखते थे।

पांडेय जी की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता थी , नियमितता ( रेगुलरटी ) नित्यक्रिया के बाद वे सुबह – शाम ‘ ध्यान ‘ किया करते थे । विनय पत्रिका का पाठ करते थे । भोजन और सोने का समय निश्चित था । एक बार रामेश्वर शुक्ल अंचल उनके यहाँ पधारे । पंडित जी ने शाम के भोजन के लिए शुक्ल जी को आमंत्रित किया , अंचल जी डा . बलदेव को लेकर बाहर अपने शुभचिन्तकों से मिलने चले गए । लौटने में देरी हुई । पाण्डेय जी उनका इन्तजार कर रहे थे । अंचल जी को देखकर वे मुस्करा दिए । अंचल जी समझ गए , देरी हो चुकी है , वे चुपचाप उनके साथ भोजन के लिए बैठ गए । दोनों के बीच समय की पाबंदी विषयक वार्ता , मौन – संकेतों में ही हो गई । अंचल जो उन्हें पितृ तुल्य मानते थे । उनके पिता पं . मातादीन शुक्ल ( माधुरी – सम्पादक ) उनके अभिन्न मित्रों में थे ।

पाण्डेय जी को पढ़ने का व्यसन था । ये बगैर चश्में के दिन में , 8-8,10-10 घंटे पढ़ा करते थे । उड़िया , बंगला , संस्कृत , अंग्रेजी , ब्रज , अवधी , उर्दू – फारसी के वे जानकार थे । सैकड़ों कवियों की कविताएं उन्हें याद थी । भवभूति ,कालिदास ,तुलसीदास ,गालिब ,वर्डसवर्थ , मैथिलीशरण गुप्त उनके कंठ में सदैव विराजमान रहा करते थे ।

पाण्डेय जी की चौथी विशेषता थी , मितव्ययिता । वे सादे – भोजन और फलों के अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे । वे खर्च के नाम पर द्रवित होकर गुप्त दान किया करते थे । इसमें गरीब विद्यार्थी अधिक थे । भिखमंगों को 5 पैसे अवश्य देते थे , पाण्डेय जी बोलने में भी मितव्ययी थे । पाण्डेय जी के दीर्घ जीवन का रहस्य है , नियमितता एवं मितव्ययिता ।

पाण्डेय जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी , विनम्रता । वे अपने से छोटे – छोटे वय के लोगों का भी आदर करते थे । उनकी बातें ध्यान से सुना करते थे । उनमें गजब की स्मरण शक्ति थी । उन्हें अपने बचपन की बातें तो याद थी ही , पुराण , दर्शन और इतिहास की बहुत सारी घटनाएं याद थी । उनकी स्मरण शक्ति इतनी प्रबल थी , कि वे छोटी सी छोटी बात को नहीं भूलते थे । वे पुस्तक कम देते थे,देन पर उसकी वापसी का ध्यान बहुत रखते थे।

पांडेय जी पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय जी के अनुज थे , वे उनके परम भक्त भी थे । आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी , आचार्य जगन्नाथ भानु को अपना गुरु मानते थे । प्रसाद जी और गुप्त जी को वे अपना अग्रज मानते थे , उन पर उनकी अट्टू श्रद्धा थी । डाँ. बलदेव को वे अपना मानस – पुत्र मानते थे । वे उनका परिचय अन्यों से ‘मेरे युवा मित्र ‘ कहकर देते थे । सैकड़ों पत्रों और अपने लेखों में उन्होंने डाँ. बलदेव का जिक्र किया है , जो उनकी कृपा और प्रेम का परिचायक है । उम्र में , दादा और नाती का अन्तर होते हुए भी वे दोनों कई कई घंटे बतियाते देखे गए हैं।यह क्रम 12 वर्ष तक जारी रहा । पंडित मुकुटधर पांडेय पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी, , हरि ठाकुर , दानेश्वर शर्मा , पाठक बन्धुओं और देवी प्रसाद वर्मा को भी खूब याद करते रहते थे । छत्तीसगढ़ी कवियों के वे प्रेरणास्रोत थे । पं ० श्याम लाल चतुर्वेदी , अक्सर उनके दर्शन करने बिलासपुर से आते , तो सबसे पहले हमारे घर आते तो हम खुशी से भर जाते । उनका भी हमारे ऊपर अपार प्रेम था । उनके साथ पांडेय जी को सुनते हुए हम हिन्दी साहित्य के सत्तर – अस्सी वर्ष को प्रत्यक्ष सा देखने लगते । पंडित मुकुटधर पाण्डेय पर उनकी श्रद्धा का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता, जब हम लोगों ने पांडेय जी की श्रेष्ठ रचनाओं को (विश्वबोध काव्य संकलन ‘ ) और ‘ छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध” शीर्षक से श्रीशारदा साहित्य सदन रायगढ़ से प्रकाशित किया तो पहले व्यक्ति थे , जिन्होंने पुस्तकों की कीमत हाथ में जबरदस्ती रख दी , और बोले , अगर मूल कीमत भी वसूल नहीं हुई , तो पाण्डेय जी की कृतियाँ और कैसे छाप पाओगे? यह उनकी नैतिकता तो है ही , पांडेय जी पर उनकी श्रद्धा का भी परिचायक है ।

यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि हम दोनों भाइयों ( शरद- बसन्त ) को उनकी श्रेष्ठ रचनाओं के प्रकाशक होने का सौभाग्य मिला । हमने उनके साहित्य को विव्दानों तक पहुंचाने के लिए ‘विश्वबोध’ और छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध शीर्षक से प्रकाशित किया । आज इन पुस्तकों के आधार पर विव्दान पाण्डेय जी पर फिर से चर्चा करने लगे है, और कहा जा सकता है , पिछले चार दशक से वे चर्चा के केन्द्र में है , तो हमें बड़ा संतोष मिलता है । हमने प्रकाशित पुस्तकों की पचास प्रतिशत विद्वानों को भेंट कर दी है । करीब दो सौ प्रतियों में पाण्डेय जी के हस्ताक्षर हैं । उनके हाथ से जिन विव्दानों को पुस्तकें प्राप्त हुई हैं, वे महाशय भाग्यवान् है । क्योंकि यह प्रसाद उनके पास सदैव सुरक्षित रहेगा । लेकिन उन लेखक शोधकर्ता और सम्पादक महोदयों की लेखनी पर तरस आती है जो पुस्तकों के कलेवर का उपयोग तो करते ही प्रकाशकीय और सम्पादकीय वक्तव्य को ज्यों की त्यों उतार देते हैं और इन पुस्तकों का उल्लेख करने में शर्म महसूस करते हैं यह पाण्डेय जी के प्रति उनकी निष्ठा को प्रदर्शित करने वाली बात है खैर…

पंडित मुकुटधर पांडेय संगीत के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने माधुरी में सन् 1930-32 के बीच मनहरण बरवे , ओंकारनाथ ठाकुर और पंडित विष्णु दिगम्बर पर रोचक लेख लिखे थे। वे गुणग्राही थे । रामा चक्रधर सिंह इन्हीं कारणों में उन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखा करते थे । पांडेय जी संगीत और साहित्य का आनंद तन्मय होकर लेते थे ।

शास्त्रीय संगीत की सभाओं में आधी रात जागते रहते थे । सितम्बर 83 की 9 तारीख की सुबह उन्होंने रामेश्वर वैष्णव और लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे गीतकारों को बड़े ध्यान से सुना , उन्हें आशीषा और हरि ठाकुर , श्यामलाल जी चतुर्वेदी , आराधना ठाकुर , देवधर महंत के सहित अपने हाथों उन्हें श्री चक्रधर ललित केन्द्र के अध्यक्ष होने के नाते प्रशंसा पत्र भी दिए थे। यह उनके साहित्यिक कार्यक्रम का विराम था ।

पंडित मुकुटधर पाण्डेय के स्वर्गारोहण के पन्द्रह दिनों पूर्व तक बराबर पढ़ते लिखते रहे । जब वे अशक्त होकर खाट में पड़ गए तभी उन्होंने अपने पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों की सेवा ली, वह भी लगभग अचेतनावस्था में । उनके मझले लड़के श्री छेदीलाल पाण्डेय और पौत्र अवधेश पांडेय ने उनकी सेवा में कहीं कोई कमी नहीं की । छोटे पुत्र दिनेश पाण्डेय ने उन्हें वेद और गीता के श्लोक सुनाये । वे कभी – कभी जानबूझकर कुछ पंक्तियाँ छोड़ देते , पांडेय जी मृत्यु शैय्या में भी उन्हें दोहरा देते, यह मेरा प्रबलतम भाग्य था , कि शर शैय्या में भी सोए इस भीष्म पितामह के चरण स्पर्श का मुझे भी अवसर मिला । उनका निधन 6-11-89 को हुआ। मृत्यु के चार दिन पहले जब ये बेचैन थे, मैने उनका सिर हल्के दबाया,उन्होंने आँखें खोलीं , पहचानने से लगे , फिर मुस्करा दिए , आँखें छलछला गई फिर वे सो गए । आशीषों की वर्षा करता हुआ यह उनका ऋषत्व मुख सदैव आँखों के सामने झूलता रहेगा ।पांडेय जी का पार्थिव शरीर नहीं है, फिर भी उनके घर के सामने से गुजरने के ऐन वक्त उनकी चिर परिचित वाणी सुनाई देती है। मन भर जाता है एक क्षण रूकता हूँ, फिर बिना मुड़े तेजी से गली के पार हो जाता हूँ।

बसन्त राघव
पचंवटी नगर, कृषि फार्म रोड
बोईरदादर, रायगढ़, पिन 496001
छत्तीसगढ़, मो.नं.8319939396

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