May 11, 2024

जीवन के तमाम पहलुओं पर बात करता संग्रह:- मज्बूरियाँ मेरी

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– सोनिया वर्मा

शायरी का पेशे से कुछ लेना-देना नही होता है। एक शायर जीवन-यापन के लिए कुछ भी कर सकता इसका उसकी शायरी पर समय सामंजस्य के अलावा और कोई प्रभाव नही पड़ता।

‘मज्बूरियाँ मेरी’ देवेन्द्र माँझी का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जिसका पहला संस्करण 1991 में और दूसरा संस्करण 2020 में आया, इस संग्रह में 80 ग़ज़ले हैं। इस संग्रह के बाद इनके तीन ग़ज़ल संग्रह और एक दोहा संग्रह प्रकाशित हो चूके हैं। विश्व का सबसे बड़ा तुकांत-कोश “माँझी तुकांत कोश खण्ड- 1 और खण्ड- 2”, विश्व का सबसे बड़ा एवं सम्पूर्ण कोश “माँझी उर्दू-हिंदी कोश खण्ड-1 और खण्ड- 2” और मात्रिक उर्दू-हिंदी कोश खण्ड-1 और खण्ड-2 के कारण इनका नाम साहित्य-जगत में सुर्ख़ियों में हैं क्योकि ऐसा काम करने वाले यह पहले रचनाकार हैं। ये पुस्तके बहुत उपयोगी है नये सीखने वालों के लिए और अन्य सभी रचनाकारों के लिए। इसके लिए इन्हें बहुत बहुत बधाई।

इनकी शायरी के लिए डॉ.शेरजंग गर्ग ने कहा है कि “देवेन्द्र माँझी की ग़ज़लों में प्रेम, विरह, अकेलापन, उदासी और वीरानी के गहरे रंगों के साथ-साथ ज़िन्दगी के प्रति एक शिकायती स्वर हमेशा मौजूद रहा है मगर इस स्वर के भीतर विधमान आशा और विश्वास की झंकार ने उनकी अधिकांश ग़ज़लों को आत्मीयता की पोशाक में सँवारकर ही पेश किया है”।

वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता हैं कि इंसानियत क्या है? लोग शायद जानते ही नही। लोग केवल अपने काम और अपने मुनाफ़े के लिए दिन-रात भागते रहते हैं। एक घायल इन्सान यदि सड़क पर दिखे तो लोग मदद का हाथ बढ़ाने से पहले उस घटना का विडियो बनाते है। आए दिन अब ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती है जहाँ लोग वीडियों बनाते रहते हैं और लोगों की मदद के अभाव में जान गँवा देते है। खोते मानवीय मूल्यों को देखते हुए शायर कह रहें हैं कि संवेदनशील बनिये, इंसानों जैसा कुछ तो काम कीजिये ….

ठोस धरती पर रहें या बन हवा बह लीजिए
हो सके तो आदमी बनकर ज़रा रह लीजिए

जहाँ आदमी आदमी का तनिक भी ख्याल नही रख सकता वहां वह अपनी प्रकृति के बारे में कितना सोचता होगा, आप ही विचार कीजिये? लोगों ने अपने फ़ायदे के लिए पेड़ों की कटाई तो कर दी पर नये पेड़ लगाना गंवारा न हुआ। ऐसे में सोचिये क्या होगा? शायर शिकायती लहज़े में प्रकृति की तकलीफ़ कर बयाँ रहें हैं और इसके समाधान के बारे में हमे ही सोचना होगा। यह शेर शायर के प्रकृति प्रेम को व्यक्त करता शेर है जब उनकीं आँखें एक कँवल को खिला देख कर सजल हो गयीं क्योंकि वर्तमान में वास्तविक फूलों की जगह नकली कागज़ी या प्लास्टिक के फूलों ने ले ली है। वो प्राकृतिक दृश्य अब विरले ही देखने मिलते हैं…..

कल खुली छोड़ी थीं मैंने अपने घर की खिड़कियाँ
एक भी झोंका हवा का इस तरफ गुज़रा नहीं

झील में देखकर इक कँवल आजकल
आंख रहने लगी हैं सजल आजकल

मानवीय-प्रवृति को दर्शाता शेर, यह शेर प्रतीकात्मक शेर है। आकाश, पंछी और पिंजरे के माध्यम से शायर अपनी बात कहते हैं कि जब एक पंछी पिंजरे में कैद रहता है तो शुरुआत में वह पंछी पिंजरे से निकलने के लिए बहुत प्रयत्न करता है और जब प्रयत्न करने के बाद नही निकल पता तब उसे पिंजरे की आदत हो जाती है। उसी पिंजरे में रहने लगता है बगैर विरोध के कुछ समय बाद अगर पिंजरा खुला भी छोड़ दे तो वह उड़ने या बाहर निकले का बिलकुल प्रयास नही करता। आसमान के बारे में कितना भी बखान कर लीजिये वैसे ही दास्ता का जीवन जीने वाले लोग होते हैं या आदतों की लत से बंधे लोग होते हैं। मनुष्य की स्वतंत्रता को बचाए रखने की सोच को दर्शाता शेर………

आकाश की विशालता कुछ भी बखान तू
पिंजरे में कै़द पंछी के अब पर नहीं रहे

उपरोक्त दास्ता की बात यहाँ भी लागू होती है। पत्थर मारने का आशय सच में पत्थर मारने से नही बल्कि वर्तमान में लोगो की अनदेखी से है, कहीं माँ-बाप की तो कहीं अपनी जिम्मेदारियों की,को निशाना बनाता शेर है ……

किसको मारें कैसे पत्थर, सीख लें
यूँ बदलते युग का कल्चर सीख लें

लोग अपनों को छोड़कर बाहर प्यार और रिश्ते तलासते भटक रहें हैं और इस भटकाव में उन्हें धोखे और ठगी के अलावा और कुछ नसीब नही होता। बड़े–बड़े लोगो से पहचान बनाने में अपना कीमती समय नष्ट कर देते हैं और वक़्त आने पर वही लोग किनारा कर लेते है। मनुष्य के स्वार्थी स्वभाव से और समय की बर्बादी से शायर उन्हें सचेत करते नज़र आ रहे हैं यह शायर की निष्पक्षता को बयाँ करता है…..

फेर लेंगे ये नज़र जब वक़्त कोई आएगा
तू समय बर्बाद मत कर जान-ओ-पहचान में

केवल दुखी दिखाई देने वाले लोग या अपनी तकलीफ़ बता देने वाले लोग ही परेशान नही रहते हैं। ये तो वो लोग हैं जो अपनी तकलीफ़ बयाँ कर सकते हैं पर शायर यहाँ उन लोगो की बात कर रहें हैं जो अपना दर्द किसी को नही कहते मौन सब सहते रहते हैं। शायर ऐसे लोगों के लिए कह रहें हैं कि हमेशा मुस्कुराने वालों से जरा प्यार से अकेले में उन्हें टटोलिए तो आप सच्चाई जान पायेंगे की कितना दर्द छुपा है इन मुस्कुराहटो के पीछे…..

जिनके होंठों पे मुस्कुराहट है
पूछिए उनका हाल फुर्सत में

आलिशान महलो में रहने वाले लोगों के पास वक़्त कहाँ है कि दो घड़ी बैठकर अपने लोगों का सुख-दुख बाँट सके। वो तो एक मशीन की तरह पैसा कमाने ने लगे रहते हैं। अब सवाल यह उठता है कि हम अब ज़िन्दगी को कहाँ तलाश करें? शायर कहते हैं कि फुटपाथ पर क्योंकि हर हाल में ये लोग एक-दूसरे के काम आने का प्रयास करते हैं और जीवन की समस्याओं से लड़ते रहते हैं …….

मैंने पूछा ज़िन्दगी तू है कहाँ
चीखकर उसने कहा फुटपाथ पर

फुटपाथ पर ग़रीबी है भूखमरी के साथ उन लोगो में अपनापन अभी बचा है परन्तु यही बात पैसे वालों के यहाँ आपको देखने के लिए नही मिलेगी। अमीर लोग अवसरवादी की तरह व्यवहार करते हैं काम है तो भाई-भाई नही है तो पहचानते भी नही है। लोगों के स्वार्थी स्वभाव और लालच को दर्शाता शेर …..

मेरी मुट्ठी गर्म करो और निकलो भी
तुम हो मेरे ख़ास, यहाँ सब चलता है।

व्यक्ति की लाचारी को बताता शेर। क्या आपने कभी सोचा है कि एक इन्सान कितना लाचार हो सकता है? शायद नही! क्योंकि कभी मौका ही नही मिला हो सोचने का ऐसा भी संभव है। अब शेर की बात करें तो शायर उस व्यक्ति या नारी की तरफ ध्यान ले जाना चाहते है जो मुसीबत में आकर अपनी अस्मत का सौदा मात्र रोटी के लिए कर लेती है। उसकी लाचारगी,दयनियता और दर्द को कहता शेर…….

भूख बढ़ी कुछ ज़ियादा ही या सूखे अंकुर ग़ैरत के
रोटी में अ़स्मत बिक जाए, बात तो कोई होगी ही

मनुष्य की अनेक प्रकार की समस्याओं पर बात करने के बाद आध्यात्म के साथ-साथ मनुष्य का अंत निम्न शेर में बता रहे हैं। यह तो स्वाभाविक है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी ही। जिस परिवार और अपनों के लिए आप दिन-रात एक कर देते हैं आपके मरते ही आप उनके लिए लाश बन जाते है और लाश को ज्यादा दिन तक रख नही सकते। अत: किसी से भी ज्यादा मोह या लगाव ठीक नही है। क्यो न जीते जी कुछ ऐसा काम कर ले की मरने के बाद भी उस काम के जरिए हम ज़िन्दा रह सके। अंत की सच्चाई को स्वीकार करे ……

मेरे मरते ही सभी अपने लगे यूँ चीख़ने
लाश कब तक ये सड़ेगी, कब इसे उठवाओगे

उपरोक्त शेर को दूसरे नज़रिये से देखें तो ऐसा लगता है कि शायर तमाम लोगो को यह बताना चाहता है कि मरना तो एक न एक दिन सबको है तो क्यू जीवन को व्यर्थ बर्बाद करना, जब तक ज़िन्दा हो कुछ अच्छे काम जरुर करने की सीख देता है।

देवेन्द्र माँझी की ग़ज़लों में जीवन के तमाम पहलुओं को उतारने की कोशिश की है। इनकी ग़ज़लों में कोमल अनुभूतियों की भरमार है। शायर जीवन के कठोर और खुरदुरे धरातल पर चलकर सहज और सरल लहजे में शेर कहना पसंद करते है। इनकी कहन बहुत अच्छी है इनके शेर में उर्दू के कठिन शब्द तो हैं पर साथ ही साथ इन्होने उसके अर्थ दिए हैं जिसके कारण पाठक आसानी से शेर को समझ सकता है। यह पुस्तक देवेन्द्र माँझी का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जो इनके ग़ज़ल सीखने के समय का है जिस कारण इसमें प्रूफ रीडिंग की कुछ गलतियाँ रह गयी हैं। पुस्तक की छपाई अच्छी है जिसके लिए के.बी.एस. प्रकाशन दिल्ली को बहुत बधाई। पुस्तक का नाम और कवर चित्र दोनों एक दूसरे का पर्याय हैं। चित्र देखकर लगता है कि मजबूर इन्सान का चेहरा ऐसे ही झुर्रियों और तनाव की रेखाओं से भरा होता होगा। इस पुस्तक के लिए और आने वाली तमाम पुस्तकों के लिये देवेन्द्र माँझी जी को बहुत बहुत बधाई।

समीक्ष्य पुस्तक :- मज्बूरियाँ मेरी
विधा :- ग़ज़ल
ग़ज़लकार :- Devender Manjhi
प्रकाशक :- के.बी.एस. प्रकाशन
मूल्य :-300 रुपये
पृष्ठ :-100

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