September 20, 2024

गहरे भावबोध और करुणा के कवि : आशीष त्रिपाठी

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मेरे नए कविता संग्रह ‘शांतिपर्व’ पर यह गंभीर और सुचिंतित टिप्पणी युवा अध्येता श्री अमित प्रभाकर Amit Prabhakar ने अपनी फेसबुक भीत पर प्रकाशित की है. उनके प्रति आभार के साथ आप सबके लिए यह पुनः प्रस्तुत है.

कहने की आवश्यकता नहीं कि समकालीन हिंदी कविता का भूगोल बेहद व्यापक और विस्तृत है। वर्तमान दौर के काव्यलेखन तक गौर करें तो हमें हिंदी कवियों की कई पीढ़ियां देखने को मिलती हैं। वर्तमान दौर के वरिष्ठ कवियों की काव्यरचनाओं का विशेष महत्व हो गया है। इन कवियों की रचनाएं कई स्तरों पर वर्तमान लेखन को अभिप्रेरित करती रही हैं। हिंदी कविता का मूल स्वभाव है कि वह बड़ी निडरतापूर्वक अपने समकाल से टकराती है। टकराने के क्रम में अभिग्रहनशीलता स्वाभाविक हो जाती है। हाल में हिंदी के समकालीन वरिष्ठ कवि आशीष त्रिपाठी का दूसरा काव्य संग्रह शांति पर्व प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की कविताएं चार भाग में विभाजित हैं। संग्रह में कुल 38 कविताएं हैं। उनका पहला काव्य संग्रह`एक रंग ठहरा हुआ है जो सन् 2010 में प्रकाशित हुआ था। उनकी पहली कविता सन् 1986 में प्रकाशित हुई थी। 1993 से 1995 तक लगातार उन्हें मुक्तिबोध स्मृति पुरस्कार से नवाजा गया। जाहिर है, वे नब्बे के दशक से ही काव्य रचना कर रहे थे। उनके दूसरे काव्य संग्रह से मुझे पता चला कि वे काव्यरचना भी करते हैं। मेरे अंतःपुर में पहले उनकी छवि सिर्फ आलोचक और एक विलक्षण वक्ता के रूप में ही बनी हुई थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि आशीष जी सरीखे वरिष्ठ कवियों से समकालीन हिंदी कविता की दुनिया विस्तृत हो रही है।

कवि आशीष त्रिपाठी स्वभावत: प्रगतिशील कवि हैं। शांति पर्व नामक काव्य संग्रह कवि आशीष त्रिपाठी की विशिष्ट कृति है। इसके अध्ययन से पता चला कि उनकी कविताओं पर कवि मुक्तिबोध का गहरा प्रभाव है। अकारण नहीं, उन्हें मुक्तिबोध स्मृति पुरस्कार निरंतर मिला। उनकी कविताओं में दर्ज अनुभूतियां बेहद जटिल हैं। सिर्फ सहृदय पाठक बनकर उनकी कविताओं को नहीं समझा जा सकता। कई जगह कविताएं समझ और ज्ञान के स्तर की मांग करती हैं। उनको पढ़ते समय मुक्तिबोध की कविता की तरह ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान वाली स्थिति से गुजरना होता है। वे कहीं कहीं मुक्तिबोध से प्रभावग्रस्त भी लगते हैं। इन सबके बावजूद आशीष जी की कविताएं मुक्तिबोध के काव्य का विस्तार करती हैं। विलक्षणता है कि जटिल संवेदना होने के बावजूद कविताओं का स्वर कहीं बिखरता नहीं है। उनकी काव्य संवेदना की चरम अभिव्यक्ति करुणा की पुकार के रूप में होती है।

कवि आशीष त्रिपाठी की कविताओं में आत्मा की पुकार का स्वर मुखरता से मौजूद है। मजे की बात है कि कविताओं में आत्मपुकार की आवृत्ति का जो आधिक्य है, वह कविता को नीरस नहीं बनाता है। यह उपस्थिति पाठक को आवेग और संवेग के साथ एक स्तर पर रसानुभूति के धरातल तक ले जाती है। दूसरी बात कि कविताओं में आत्मा की जो आवाज है, वह कहीं भी कवि का आत्मालाप नहीं है। आत्म से पर की यह यात्रा काव्य संवेदना का विस्तार भी करती है। एक तरह से सहजता और स्वाभाविकता के साथ कविताओं में आत्मा की उपस्थिति दर्ज है। कविताओं में दर्ज आत्मा का सौंदर्य मनुष्यता, राग, प्रेम, आसक्ति, सुर, संगीत, लय और अहिंसा के रूप में उद्घाटित हुआ है। कवि का शांति पर्व इन्हीं मूल्यों और सौंदर्य की दुनिया से आलोकित है।
उन्होंने कविताओं में आत्मा शब्द का बहुधा प्रयोग किया है। कविताओं में संवेदनाओं और अनुभूतियों का जो स्वर फूटा है, वह कवि की आत्मा की पुकार लगती है। उनकी कविताएं इसकी साक्षी हैं। इस राजनीतिक कविता में आत्मा शब्द की आवृत्ति और अभिव्यक्ति देखें :

हमारी आत्माओं का रंग
काला हुआ जाता है
……
रिसता है एक बूंद जहर
आत्मा में
आत्मा का पवित्र जल
होता जाता है जहरीला
….
एक मौन, एक किनारकशी
किसी भी रास्ते वह आता है आत्मा तक
….
आत्मा में उभरते नीले निशान
और काली गाठें
मैं देख सकता हूं गहन अंधेरे में भी
…..
कातर निगाहों से पुकारता हूं सबको
कोई खींच ले आत्मा का थोड़ा सा जहर
आत्मा का उजास
किसी पर्वत की खोह में एक शैतानी संदूक में बंद है
आसमान में दमक रहा है प्रचंड काला सूर्य

ध्यातव्य है कि उपरोक्त काव्य पंक्तियां एक ही कविता से उद्धृत हैं। कविता का शीर्षक है काला सूर्य। इसके अलावा अधिकांश कविताओं में आत्मा शब्द का बारंबार प्रयोग हुआ है।

कवि ने समाज में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति को लेकर घोर चिंता जताई है। उन्होंने हिंसक मनुष्य से अधिक खतरनाक, उसके पीछे कार्य करने वाली विचारधारा को बताया है। कवि को हत्यारे विचारों की भलीभांति पहचान है। उन्हें पता है कि जो हिंसा के पुजारी होते हैं, वे ही बारंबार समन्वय और अहिंसा का राग अलापते रहते हैं और भोलीभाली जनता को गुमराह करते हैं। एक सोची समझी साजिश का पर्दाफाश करने में कवि बहुत कुशल हैं। उन्हें अपने समय, समाज और सत्ता की गहरी पहचान है। अकारण नहीं, उन्होंने समय कविता में हिंसक मनुष्य के पीछे कार्य करने वाले खास किस्म के विचार को बड़ी निडरता पूर्वक बेपर्द किया है :

हत्यारे मनुष्य से खतरनाक हैं
हत्यारे विचार
अहिंसा का दम भरने वाले और समन्वय की बात करने वाले ही हिंसा को बढ़ाती है
हमारी विविधता को क्षति करती है

नया गणतंत्र कविता में समय और समाज की विडंबनाओं को बड़े मनोयोगपूर्वक अभिव्यक्त किया गया है। सोशल मीडिया की विडंबना को व्यक्त करते समय कवि का क्षोभ देखते बनता है। इन काव्य पंक्तियों में वर्तमान परिदृश्य के स्याह का स्पष्ट रेखांकन हुआ है:

क्रांतियां सिर्फ फेसबुक पर होंगी
राजाज्ञाओं के कहर से बचे लोग
हाफेंगे फेसबुक पर
फेसबुकिया क्रांतिकारी
धर्म और जात देखकर
लोगों को तरह तरह की आकर्षक श्रेणियों में सूचीबद्ध करते रहेंगे
……
जयकारों में खो जाएंगी सिसकियां
विलाप सुने न जा सकेंगे
चमकते गणतंत्र के
प्रकाश वृत्त से बाहर
नेपथ्य में जीता देश
एक दिन प्रकाश नदों पर बाड़े बना देगा
सूर्य नेपथ्य का बंदी होगा
एक दिन!

इसी भावभूमि से जुड़ी उनकी राजनीतिक कविता है काला सूर्य । इसमें समय की क्रूरतम सच्चाई बेपर्द हुई है। तानाशाही और वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों के आलम को जिस तरह कवि ने काला सूर्य कविता में बिंबित किया है, वह असाधारण कविकर्म है:

आकाश है नीला
पर दीखता है अभी काला
….दूर तक दीखती धरती का रंग
बना रहता है काला
यह रात नहीं है
दिन है चढ़ा हुआ
चारों ओर फैला है परतदार अंधेरा
आसमान पर दमक रहा है
प्रचंड काला सूर्य

इन पंक्तियों को पढ़ते समय नागार्जुन की काव्य पंक्ति ‘हिंद के आसमान में सूरज अब सहम कर उगेगा ‘ की याद आना स्वाभाविक है। ध्यातव्य है कि उस समय कवि नागार्जुन के यहां सूर्य सहमकर उग रहा है और वर्तमान परिदृश्य में वह सूर्य कवि आशीष त्रिपाठी की कविताओं में काला हो गया है। सहमते सूर्य से काले सूर्य तक की जो यात्रा है, इससे हमारे युगबोध और युगचुनौतियां स्पष्ट हो जाती हैं। इस स्तर से काला सूर्य कविता आधुनिक हिंदी काव्य संवेदना को एक विस्तार देती है।

कवि आशीष त्रिपाठी ने सच मानो नामक कविता उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को समर्पित किया है। इस कविता में धार्मिक एकता और अखंडता का स्वर मुखरित हुआ है। कवि को बखूबी पता है कि सारे धर्मों की मुक्ति मनुष्यता और प्रेम की अक्षुण्णता में ही है। आज मनुष्य के लिए आत्म जागरूकता कितनी अहम हो गई है, इसकी सफल अभिव्यक्ति सच मानो कविता में हुई है। साथ ही मनुष्यता की चरम अभिव्यक्ति इस रूप में हुई है कि मनुष्य की पवित्र आत्मा ईश्वर का स्थल के रूप में चित्रित है। मजे की बात है कि आत्मीयता की इस परकाष्ठा के समय भी कवि को जनजागरण की चिंता बनी रहती है। उन्हें धर्मभीरू समाज और हिंसक प्रवृत्ति की भलीभांति पहचान है। इस संदर्भ में सच मानो कविता का यह टुकड़ा देखें:

बनारस मेरे लिए काबा है
तुम देवताओं के घरों के लिए लड़ते हो
पर क्या जानते हो कहां रहते हैं देवता
त्रिशूल, तलवार और गड़ासा लेकर
जब तुम निकलते हो सड़क पर
खून के प्यासे होकर
मैं देख पाता हूं तुम्हारी आत्मा से
कूच कर गया है तुम्हारा भगवान
प्रार्थना करता हूं
वह लौट आए तुम्हारे भीतर
जब तुम प्यार करते हो बच्चों को बच्चों की तरह
गले मिलते हो किसी अनजान को भाई मानकर
मुझे तुम्हारी देह
सच मानो
भगवान का सबसे पवित्र घर लगती है

कवि ने एक सुबह अस्पताल कविता के बहाने हमारी व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य किया है। इक्कीसवीं सदी में स्वास्थ्य और चिकित्सा-व्यवस्था की दयनीय दशा का चित्रण स्वाभाविक रूप में अंकित हुआ है। पुरवा कविता में कवि ने अपनी माटी और संस्कृति के प्रति गहरा अनुराग व्यक्त किया है।

कवि आशीष त्रिपाठी ने कोविड के दौरान महत्वपूर्ण कविताएं लिखीं है। कोविड और लॉकडाउन ने हमारे जनजीवन और मनोदशा को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। इस दौरान खूब कविताएं-कहानियां लिखीं गईं। आशीष जी की उनके होने से और इन दिनों नामक कविताएं कोविड के दौर की हैं। इन कविताओं में वैश्विक त्रासदी के समय के घुटन और संत्रास को बड़ी संवेदनापूर्वक अभिव्यक्त किया गया है। मानवीय संवेदनाओं और मनोभावों की दशा का जीवंत चित्र इन काव्य पंक्तियों में कुछ इस तरह परिलक्षित हुआ है:

चिड़ियों की आवाज़ के साथ
हवाएं आहिस्ता छूती हैं देह को
जैसे वे छूना चाहती हों आहत आत्मा
आत्मा का कलुष निथर रहा है
समंदरों और नदियों की तरह
आत्मा के अंधेरे कोनों में
छुपती आईं इच्छाएं
शार्क मछलियों सी
अठखेलियां कर रही हैं किनारे आकर

यहां शार्क मछलियों का दृश्य काव्य प्रयोग के स्तर पर अनुपम है। कवि ने नए बिंबों और प्रतीकों का उपयुक्त प्रयोग कविताओं में स्वाभाविक तौर पर किया है।

उनकी एक कविता है ‘दूध पीते बच्चे को देखकर ‘। कविता में मां के स्तन से दूध पीते बच्चे का दृश्य है। इस दृश्य को कवि ने जिस मनोदशा और मनोभाव के साथ चित्रित किया है, वह अद्भुत है:
स्तनों को अपने कोमल होठों में बीच दबाए
दूध की धार खींचता
वह मूंद लेता है अपनी आँखें
जैसे महासुख तृप्ति में नहीं
तृप्ति की प्रक्रिया में है

यहां ‘..तृप्ति में नहीं, तृप्ति की प्रक्रिया में है’ का प्रयोग बेहद मारक है। साथ ही महासुख और तृप्ति की प्रक्रिया का दृश्य महसूस करते हुए यहां फ्राइड की याद आना स्वाभाविक है। जहां वे बालकों के स्तनपान के समय मां की अनुभूतियों या महासुख की दशा का रेखांकन यौन रूप में करते हैं। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद को उपरोक्त कविता में भी देखा जा सकता है। इसके अलावा उपरोक्त कविता में मां का स्वरूप बेहद व्यापक है। मनुष्य की मां, पशुओं की मां से लेकर धरती मां तक की यात्रा मर्मस्पर्शी है। यात्रा के इस विस्तार से कवि आशीष त्रिपाठी की विशाल चिंतनदृष्टि का पता चलता है।

आशीष त्रिपाठी ने कालिदास नामक असाधारण कविता लिखी है। कविता में ‘ अषाढ़ का एक दिन ‘ की मल्लिका के उत्तर संवाद का सजीव चित्र अंकित है। कवि कालिदास की विडंबनाओं और मल्लिका के चरित्र को काव्यात्मक स्वर देकर कवि ने बड़ी विलक्षणता दिखाई है। कविता में इतिहास (कथा) के बहाने आधुनिक मनुष्य की विडंबनाओं और मनोदशाओं का जैसा मार्मिक चित्रांकन हुआ है, वह अनुपम है। कवि कालिदास के प्रति मल्लिका की संवेदनाओं की चरम अभिव्यक्ति इन काव्य पंक्तियों में स्पष्ट है:

जब मैं
सीने से लगाकर दूध पिला रही हूं उसे
याद कर रही हूं मां को
कहीं दूर से आ रही है
पर्वत प्रदेश से उतरते किसी पथिक की आवाज़
करुणा से लिपटा प्रेमगीत गाता
वह उतर रहा है धीरे धीरे
मैं उस गीत की धुन में
गाना चाहती हूं एक लोरी
अपनी बेटी के लिए
आज जाना मैंने
तुम कभी कोई लोरी नहीं लिख सकते कालिदास!

इस कविता का शीर्षक पढ़ते ही नागार्जुन की कालिदास कविता की याद आना स्वाभाविक है। इसमें नागार्जुन ने कालिदास सच सच बतलाना की आवृत्ति के जरिए कालिदास से प्रश्न न करके महाकवि की सहानुभूति और संवेदना को आलोकित और पुष्ट किया है। इस परिप्रेक्ष्य में भी आशीष त्रिपाठी की कालिदास कविता महत्वपूर्ण हो जाती है।
यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इस कविता की अंतर्वस्तु मोहन राकेश की नाट्यकृति आषाढ़ का एक दिन से अभिप्रेरित है। एक तरह से कवि ने उपरोक्त कविता में मल्लिका के बहाने कवि कालिदास की संवेदना का विस्तार ही किया है। साथ ही इस प्रक्रिया में कविता की नाटकीयता बेजोड़ बन पड़ी है। कवि आशीष त्रिपाठी की रंगमंच में भी गहरी रुचि है जिस कारण इनकी कविताओं में नाटकीयता स्वाभाविक ढंग से रूपायित हुई है।

समकालीन हिंदी कविता में मानवीय प्रेम के सौंदर्य का विशिष्ट और अनोखा महत्व है। अधिकांश कवियों ने मानवीय प्रेम सौंदर्य के साथ साथ विशुद्ध प्रेम कविताएं भी लिखीं। आशीष त्रिपाठी की मानवीय प्रेम सौंदर्य की कविताएं एक साथ कई मनोभावों को प्रदर्शित करती हैं। उनकी लगभग सारी कविताएं गहरी और जटिल विडंबनाओं से भरी परी हैं। उनके यहां प्रेम सौंदर्य की उपस्थिति अलग किस्म की है।उनकी कविताओं में संवाद की परंपरा है। इस दौरान सारी विडंबनाएं व्यक्त होती चली जाती हैं। कुंठाएं, अपराधबोध(?), विनम्रता, पश्चाताप, संकोच, कोमलता, सांत्वना ये सारी मनोदशाएं प्रेम की दशा और दिशा को आलोकित करती हैं। कवि के यहां जो अपराधबोध है, भिन्न किस्म का है। यह कोई अपराध के कारण प्रकट किया गया क्षमा भाव भी नहीं है। प्रेम सौंदर्य की उच्चभूमि का यह चरम उत्कर्ष है। एक तरह से मानवीय प्रेम की स्वाभाविक और सहज भावदशा देखने को मिलती है। अकारण नहीं कवि के हाथ क्षमा में जुड़े हुए हैं। ‘क्षमा में जुड़े हैं मेरे हाथ’ नामक कविता में कवि की आत्माभिव्यक्ति पाठक को हतप्रभ करती है :
तुम्हारा सांवला सुंदर चेहरा
अभी झुका है
तुम्हारी आंखें बहती ही जाती हैं अनवरत
तुम्हारा संकोची मन
शर्मिंदा है इस अनचाहे संवाद के लिए
बमुश्किल तुम कहती हो एक पूरा वाक्य
बोलती हुई पूरी देह के साथ
‘क्या इच्छा करना अपराध है’

कवि की प्रतिभा यहां देखने लायक है। ध्यातव्य है कि सांवलापन एक तरह से असुंदरता का प्रतीक मान लिया जाता है। लेकिन कवि के यहां ऐसा सौंदर्यबोध नहीं है। उन्होंने सायास़ सांवला चेहरा के साथ सुंदर विशेषण का प्रयोग किया है। यहां आशय है कि रंग से सुंदरता का पैमाना नहीं बनाया जाता है। निस्संदेह, यहां कवि ने अपनी व्यापक सौंदर्यदृष्टि का परिचय दिया है।
यहां उपरोक्त कविता का दूसरा टुकड़ा भी उल्लेखनीय जान पड़ता है। इसकी अभिव्यंजना के मर्म को देखें:
तुम स्त्री हो
तुम शूद्र हो
तुम निर्धन हो
तुम्हारा कोई पैरोकार नहीं
क्या इतने अपराध एक साथ पर्याप्त नहीं
तुम्हारी हार के लिए
…..
मैं शर्मिंदा हूं
क्षमा के लिए जुड़े हैं मेरे हाथ!

यहां कवि ने स्त्री की निर्धनता, उसकी जातियता, उसकी अस्मिता, उसकी निसहायता का रेखांकन उसे हतोत्साहित करने के लिए नहीं किया है। यह रेखांकन तमाम शोषित पीड़ित स्त्रियों की यथास्थिति को दर्शाता है। एक तरह से कवि ने प्रेम भरे संवाद के बहाने सामाजिक विद्रूपताओं को भी उजागर किया है। स्त्री होना, उसमें शूद्र स्त्री होना कितना चुनौतीपूर्ण है, यह चिंता के रूप में चित्रित है। कवि आशीष त्रिपाठी ने स्त्री जीवन की विडंबनाओं को जिस सूक्ष्मता से चित्रित किया है, वह विलक्षण है। लेकिन उनके यहां स्त्रियों के जीवनसंघर्ष का विशद चित्र अंकित नहीं हो पाया है। स्त्री चेतना का व्यापक स्वर उस तरह से देखने को नहीं मिलता, जैसा अन्य समकालीन कवियों के यहां उपस्थित है। जबकि वर्तमान हिंदी कविता में स्त्री चेतना का स्वर प्रमुखता और मुखरता से दर्ज हो रहा है।

दरअसल हर प्रेम कविताओं में दुख और क्षोभ की दशाओं का चित्रण होता है लेकिन आशीष त्रिपाठी की कविताओं में दुख का स्वरूप भिन्न किस्म का है। उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है तुम्हारा जाना। इसकी पंक्तियों को देखें :

तुम बरसों पहले गई थी
इस तरह
जैसे अभी अभी
गई हो
यह सामान्य और स्वाभाविक बात है कि किसी भी प्रेमी के लिए उनकी प्रेमिका का जाना बेहद खौफनाक होता है। हिंदी के लोकप्रिय कवि केदारनाथ सिंह ने तो प्रेम के विराग दशा को व्यक्त करते हुए लिखा कि ..`जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।’ लेकिन कवि आशीष त्रिपाठी के यहां बरसों पहले प्रेमिका का जाना, इस तरह है जैसे अभी अभी गई हो। यहां क्रिया दशा बरसों पहले की अनुपस्थिति से अभी अभी की अनुपस्थिति का आभास होना मात्र नहीं है, वस्तुतः अभी अभी जाने का आभास बीच की लंबी उपस्थिति को भी दर्शाता है। ऐसी जटिल संवेदना की उपस्थिति को अद्भुत काव्य प्रयोग के जरिए कवि ने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है।

गहनों की दुकान पर कविता में मध्यवर्गीय जीवन की विडंबनाओं को बड़ी स्पष्टता से चित्रित किया गया है। किस तरह मनुष्य के जीवन में शादी का संस्कार निमित मंगलसूत्र के अर्थ में निहित हो गया है, इसका मार्मिक रेखांकन हुआ है। सिंदूर की डिबिया कविता में लोक परंपरा के विविध प्रतीकों का प्रयोग असाधारण है। दरअसल सिंदूर की डिबिया कविता एक गर्भवती स्त्री के त्रासद स्वप्न की कथा है। इसमें प्रयोग के स्तर पर लोक परंपरा के साथ आधुनिकता का सामंजस्य अद्भुत है। कवि ने विविध काव्य प्रयोग के जरिए मानवीय संवेदनाओं और जटिलताओं को मूर्तता प्रदान की है। कवि की दुनिया निराली है। शाश्वत और नवीनता का सुंदर स्मांजस्य। अकारण नहीं, उनकी कविताओं का सौंदर्य विशाल है। उनके यहां सिंदूर के पहाड़ के ग्रीवा में मंगलसूत्र आसीन है। मंडप में पूजाकलश की उपस्थिति है। चूड़ियां, बिंदिया, पाजेब, बिछिया के साथ कर्णफूल की शोभा दर्शनीय है। इन सबके बावजूद लिपिस्टिक और आईलाइनर की उपस्थिति मुकम्मल कर देती है। आशय है कि कवि आशीष त्रिपाठी ने कविताओं में इन सारे प्रतीकों के जरिए लोक सौंदर्य का मौजूदा स्वरूप उद्घाटित किया है। भारतीय परंपरा और आधुनिकता का ऐसा सामंजस्य असाधारण कवि कर्म है।

इस प्रकार, कवि आशीष त्रिपाठी की सद्य प्रकाशित काव्य रचना शांति पर्व कई मायने में अप्रतिम है। इस संग्रह के सुधी पाठकों को उनके तीसरे काव्य संग्रह की प्रतीक्षा होगी ही।
निस्संदेह, ये कविताएं वर्तमान हिंदी कविता के संसार को समृद्ध करती हैं। आजकल जहां कविता में सब कुछ नग्न या स्पष्ट कह देने की होड़ हो, स्पष्टता के नाम पर सरलता आपादमस्तक हो; वहां जटिल संवेदना और विडंबना से भरी अभिव्यक्ति वाले कवि का महत्व विशिष्ट हो जाता है। ऐसी अपार संभावनाओं और विडंबनाओं के कवि हैं आशीष त्रिपाठी। उनकी कविताओं का संसार सूक्ष्म और तीक्ष्ण संवेदनाओं से आबद्ध है। उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता पूरी तरह स्पष्ट है। कवि ने प्रगतिशील सामाज की मुक्ति की खातिर राजनीतिक अंतर्विरोधों और चुनौतियों को बड़ी बेबाकी से चित्रित किया है। इस दौरान उन्होंने अपने समय के वास्तविक सत्य को भी उद्घाटित करने का भरपूर प्रयास किया है। उन्होंने मानवीय जीवन के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को अभिव्यक्त करने में सहज, संयत, सूक्ष्म किंतु दृश्य काव्यभाषा का प्रयोग किया है। इस दौरान कविताओं में पारंपरिक एवं नवीन बिंब-प्रतीकों का सार्थक प्रयोग दर्शनीय बन पड़ा है।

काव्य संग्रह : शांति पर्व
कवि : Ashish Tripathi
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