ग़ज़ल
सफ़र में हूँ सफ़र पहचानता हूँ
मैं रहबर की नज़र पहचानता हूँ
मेरी आँखों पे पट्टी बाँध देना
मैं फिर भी अपना घर पहचानता हूँ
छुपा के कब तलक रक्खोगे मुझसे
मैं ख़बरी हूँ ख़बर पहचानता हूँ
मुझे नफ़रत न बांटों दोस्तो मैं
मुहब्बत का असर पहचानता हूँ
मुझे पाला है जिसने धूप सहकर
मैं वो बूढ़ा शजर पहचानता हूँ
कि जिसने चाँदनी का सुख दिया है
मैं ऐसी दोपहर पहचानता हूँ
वो अपना रौब रुतबा सब दिखा ले
मैं उसमें है जो डर पहचानता हूँ
-चेतन आनंद
ग़ाज़ियाबाद