May 12, 2024

दिलशाद सैफी की एक कविता

0

हाँ मैं सच में भूल जाती हूँ
====================

वे अक्सर बात-बात पर
खफा हो जाते हैं मुझसे
कहते हैं…
भूल जाती हो क्यों..?
चीजें रखकर
यहां-वहां
हाँ सच में..
मैं अब भूलने लगी हूँ
आज-कल सारी बातें
तुम्हारे बिखरे सामानों को
समेटते हुए,
सुबह का
नाश्ता भूल जाती हूँ,
घर के हर सदस्यों की
जरूरतें पूरा करते-करते
खुद की जरुरतें भूल जाती हूँ
दोपहर का खाना
सबको पसंद आये, ये सोच
बाज़ार जा, सब्जियां भी लाती हूँ
जल्दी काट कर
बनाने के चक्कर में,
बीपी की दवा भी
समय से
खाना भूल जाती हूँ
घर को सुव्यवस्थित रखते-रखते
स्वयं को व्यवस्थित रखना
भूल जाती हूँ
तुम्हें शाम को घर आते ही
कड़क चाय चाहिए,
साथ में पकोड़े भी
ये बनाने के लिए
पीती हुई चाय
रख कर भूल जाती हूँ
तुम्हें देख सुस्ताते सोफे में
थका हुआ
थकान अपनी भी
भूल जाती हूँ
सोचती हूँ…हर शाम
जब तुम आओगे
तैयार हो तुम्हें रिझाऊँगी
पर रात के खाने की
तैयारी करते-करते
सजना सँवरना भी
भूल जाती हूँ
हाँ नहीं भूलती…..
तो बस तुमको ,
तुम्हारी जरूरतों को
तुम्हारे परिवार को
तुमसे जुड़े हर रिश्तों को
निभाना और बचाना
सच में..खुद को
भूल जाती हूँ
तुम ठीक कहते हो
मैं सच में.. सब
भूल जाती हूँ ,
सब कुछ ।
हां, सब कुछ।

——दिलशाद सैफी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *