May 20, 2024

इश्क की नदी में कोमल आशाओं और कठोर संघर्षों की डोंगिया

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अनामिका प्रिया

कविताओं में जीवन के नन्हे अनुभव प्रसंगों को व्यापक फलक और विराट अर्थों में व्यक्त करने की क्षमता अवगुण्ठित होती है । जिन कवियों ने इस ताकत का भरपुर दोहन किया है, उनमें अभिव्यक्ति का परिमार्जित स्थापत्य के साथ अर्थ और संवेदना का परत दर परत खुलते जाना अद्भुत है। विचार करें तो अज्ञेय ऐसी ही व्यापकता के कवि हैं। उनकी आकाशगंगा में छोटे छोटे तारों की बारात है बड़े-बड़े सितारों का प्रभाव मंडल नहीं। निश्चित तौर पर छोटी कविताओं के कवियों की रचनाधर्मिता अज्ञेय की परंपरा की कड़ी से जुड़कर खुद को सार्थक महसूस करती है। अमित कुमार मल्ल की किताब “इश्क में नदी” से गुजरते हुए गाहे-बगाहे ऐसे ताने मन में चलते रहे। लगभग तीन दशकों से रचनारत मल्ल जी जीवन से छोटे-छोटे तिनके बिनकर, कविताओं में पिरोकर एक सुंदर वितान खड़ा करते हैं ‘जिंदगी हो /या किताब /या तुम / जानने के लिए पहचानने के लिए/ पास जाना पड़ता है/ पढ़ना पड़ता है दूरी तय करके/ सोच की/ प्रयास की/ भाग्य की/ ‘जिस भागम भाग में हम सब जीने को अभिशप्त हैं, वहां ठहराव की इच्छा, रुककर जीवन का आस्वादन एक कठिन कार्य है, रचनाकार एक सहज ख्वाहिश के साथ चुने हुए को जीने की अनिवार्य जरूरत को रेखांकित करता है।

‘ इश्क में नदी ‘ की भूमिका लिखते हुए डॉ रमा कविता के संदर्भ में जो बातें कहीं अत्यन्त अर्थपूर्ण है “.. कविता में अर्थवता की प्राणप्रतिष्ठा के लिए शब्दों का आडंबर लगना जरूरी नहीं है..आजकल की कविताओं का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उसमें जीवन का वास्तविक यथार्थ नहीं बल्कि फेैंटेसी है.. कवि वही बड़ा होता है जो कविता को सायास अच्छा बनाने की कोशिश नहीं करता ।” रमा जी की यह टिप्पणी भी कवि अमित कुमार मल्ल को समझने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है । ‘मेरे हाथ में/ पत्थर है/ कि रेत / नहीं बता सकता/ मेरे पैर के नीचे/ तपती धरती है/ कि दलदल /नहीं बता सकता /मेरी आंखों में/ सपने हैं/ कि उनकी राख /नहीं बता सकता/ दिल में/ संवेदना है /कि पत्थर /नहीं बता सकता/ जिंदगी मुझे /जी रही है/ कि घसीट रही है /नहीं बता सकता /बता सकता हूं / बस इतना कि/ जंग जारी है, समय से/ समाज से/ हालात से।’

पुस्तक की भूमिका में लिखी यह टिप्पणी भी महत्वपूर्ण है “अमित कुमार मल्ल की कविताएं भावनाओं का बहुरंग है। जीवन की छोटी-छोटी लेकिन बुनियादी आवश्यकताएं इस संग्रह को बड़ा बनाती हैं।” बेशक उनके गुलदस्ते में कई रंगों के फूल है जो पाठकों को मनमोहक लगते हैं ‘शुक्र है /रोटी/ जली / टेढ़ी/सूखे होने पर भी /भूख मिटा देती है/ पानी /गंदा /दूषित /मटमैला होने पर भी/ प्यास बुझा देता है / नींद घर न हो / बिस्तर न हो/ तब भी/ आ जाती है जिंदगी उम्मीद न हो/ उत्साह न हो/ लक्ष्य न हो/ फिर भी/ आगे चलती दिखती है /शुक्र है !! समय /उम्र /के साथ साथ/ सांसें और जिंदगी/ दोनों चल ही जाती है/

मल्ल जी का यह दूसरा संग्रह है जिसमें कुल 77 कविताएं हैं । इनमें ज्यादातर आकार में छोटी है ‌पर प्रभाव में गहरा असर छोड़ने वाली। जीवन के बहुरंगी सवालों से लवरेज ये कविताएं पाठकों के लिए अपने पीछे कुछ निशां छोड़ती चलती हैं। ‘ बादलों ने बरसकर /अपना वादा /निभा दिया/ मिट्टी की दीवारें ढहती रहीं/ फूंस की छत चूती रहीं / पके गेहूं की बालियां छितराती रहीं / सड़कों पर पानी ने कब्जा कर लिया / नालियां नाले बन गए / नदिया बांधों को तोड़ने लगी / पहाड़ टूट कर बिखरने लगे / जिंदगी बिखरती गयी/ इंसान रोता रहा / समाज नंगा होता गया / इंसानियत बिलखती रही/ प्रकृति अपना न्याय करती रही ‘ पिछले दिनों प्रकृति का न्याय हम सबने देखा , न्याय का ताप झेला — भुगता। बेशक कबीर याद आते हैं ‘ माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंदे मोहे, दिन ऐसा आएगा मैं रोंदूंगी तोय।’ इस संग्रह की अंतिम दो कविताएं कोरोना संकट में जीवन की अप्रिय स्थितियों के साक्षात्कार की कविता है। मनुष्य प्रकृति और दूसरे जीवो के प्रति कितना बेदर्द रहा है, यह सवाल कुछ चुभता , कुछ दर्द बयां करता है। सामाजिक सरोकारों का दायरा सीमित न होकर एक वृहत्तर जीवन दर्शन को संकेतित करता है ‘ नियम /प्रक्रिया/ व्यवस्था /आदर्श/ समाज की आग में ,आदमी को, उलट कर /पलट कर /सीधा /बेड़ा /हर तरह से / सेंका गया / भूना गया/ पकाया गया / सूख गई संवेदना/ जल गया जमीर/ राख हो गई/ शरीर के भीतर की आत्मा/ रह गया/ चलता फिरता बोलता शरीर।

‘ इश्क में नदी ‘ की भूमिका में कवि अमित कुमार मल्ल का यह आत्ममंथन विचारणीय है’.. ‘ साहित्यिक रचना करते समय कई बार ऐसा लगता है कि सर्जन क्यों किया जाए ? किसके लिए किया जाए ? रचना सृजन आदमी का आत्मगत पक्ष है। समाज से उसका क्या मतलब ? ‘ वाकई विचारणीय है कि साहित्यिक कृति में नितांत निजी अनुभव सर्वजनिन या सार्वभौमिक कैसे हो जाते हैं? किस तरह किसी व्यक्तिगत या निजी सुख दुख की कड़ी से पाठक कनेक्ट हो पाते हैं ? वस्तुतः यह काव्य कला से जुड़ा बुनियादी सवाल भी हैं और किसी रचनाकार के अंतर्गत जगत में उठने वाले स्वाभाविक प्रश्न भी। निश्चित तौर पर इस प्रश्न के कई उत्तर हो सकते हैं। रचनाकार रचना प्रक्रिया के दौरान एक ऐसी विश्वसनीयता का सृजन करता है, कि पाठक अभिव्यक्ति के पुल से गुजर कर अनुभूति तक की यात्रा कर लेता है। यह यात्रा स्वान्त: सुखाय से बहुजन हिताय की यात्रा है, एकनिष्ठता से वस्तुनिष्ठता का सफर है।

इन कविताओं का मूल स्वर प्रेम बताया जा सकता है। मन के कई मौसम अपने चटक और फीके रंगों में यहां सुलभ है ‘ प्रेम करती लड़की/ केवल/ प्रेम करती है/ प्रेम में सोती है / प्रेम में जागती है/ प्रेम करता हुआ लड़का/ प्रेम करते हुए भी, देखता है/ सोचता है/ महसूस करता है /रोटी/ रोज़ी और मादकता ‘ । जीवन के बहुरंगी सच की जितनी भाव छवियां हो सकती है सब अपने अपने ढंग से इन कविताओं में आकार पाती हैं। ‘तृप्त’ कविता श्रमजीवी जिजीविषा की , जी तोड़ मेहनत के बाद भूख, स्वाद और तृप्ति के रिश्ते का बयान है ‘ हथेलियों पर /अधजली/ टेढी – मेंढी / ठंडी रोटी के ऊपर / मिर्चे की चटनी/ का खाना/तृप्त कर देता है। स्त्री विमर्श की दृष्टि से कई कविताएं जेहन में आती हैं। ‘लड़कियां’ कविता स्त्री जीवन की अदम्य जिजीविषा को रखती है ‘ पैर रखने भर/ थोड़ी जमीन चाहिए/ ऊपर दिखने पर/ आसमान चाहिए /जिंदा रहने पर सांसे चाहिए/ फिर ,सिर्फ नाखूनों से/ लोहे की बेड़ियों को तोड़ देगी / इरादों से , जमाने को बदल देंगी / हम/ लड़कियां हैं ‘ पिछले दिनों ओलंपिक में लड़कियों के उम्दा प्रदर्शन और अपनी उपलब्धियों से उनके इतिहास गढ़ने को लेकर सोशल मीडिया गर्मजोशी से कदमताल करता मिला, निश्चित तौर पर ऐसा ही कोई उत्प्रेरक क्षण कवि की रचना प्रक्रिया में सहायक रहा होगा।

शिल्प की जगह कविताओं के लिए रचनात्मक कौशल आज ज्यादा अर्थपूर्ण व्यंजना देने वाला शब्द है। कविता की ताकत उसका श्रृंगार, नहीं उसकी सादगी भी है, आधुनिक कविता ने कविता को लेकर यह धारणा बदल डाली है। ‘इश्क में नदी ‘की कविताएं अपनी सपाटबयानी में प्रभावी है ‘वह /मेरे इश्क में/ नदी बन के / मचलती रही/ खिलती रही/ लिपटती रही/ बहती रही/ मैं /उससे इश्क में/ जरूरतों और जिम्मेदारियों के/ जंगल में पहाड़ होकर / खड़ा रहा / घिसता रहा/ मिटता रहा ‘ कविताओं को पढ़ते हुए एक बात खटकती रही वह थी एक पंक्तियां का बीच में टूटकर दूसरी पंक्ति में बदल जाना। यह कवि का रचनात्मक प्रयोग भी हो सकता है पर उससे रसास्वादन भंग हुआ कम से कम मुझे ऐसा लगा। वैसे कोई भी संग्रह लेखकीय मोह या किसी अन्य वजह से भी अपनी औसत रचनाओं को लेकर चलती है। इस संग्रह में भी ऐसी कुछ रचनाएं दिखीं, पर ज्यादातर इसने ऐसी है जो पाठकों को खाली हाथ नहीं लौटातीं। संग्रह से गुजरकर पाठकों का अंतर्जगत निश्चित तौर पर समृद्ध होता है। कवि अमित कुमार मल्ल जी को इस आकर्षक शीर्षक वाली कविता पुस्तक के लिए शुभेच्छाएं,निश्चित तौर पर किताब पाठकों के बीच अपनी पहचान बनाएगी।

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