May 4, 2024

उम्मीद बँधाता संग्रह : हमको बोलने तो दीजिए

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– के० पी० अनमोल

हिंदी भावधारा की ग़ज़लों के रचनाकार निरंतर अपनी विधा को समृद्ध करते जा रहे हैं। ख़ूब अच्छा लिख रहे हैं, छप रहे हैं और पाठकों तक पहुँच बना रहे हैं। पिछले 20 सालों में ग़ज़ल की यात्रा में बहुत तेज़ी देखी गयी है। इंटरनेट की आमद ने इस यात्रा को एक अलग गति दी है, यह भी एक सर्वसम्मत तथ्य है। इधर ग़ज़ल विधा में भी महिला रचनाकार अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह अच्छी संख्या में जुड़ रही हैं। लेकिन हिंदी की ग़ज़ल की समझ और उस स्वभाव को आत्मसात करते हुए बहुत कम महिला रचनाकार आती दिख रही हैं। लखनऊ की डॉ० रंजना गुप्ता इस धारा में जुड़ता एक नया नाम हैं।

नया नाम ग़ज़ल विधा के लिहाज से कहा जा सकता है हालाँकि आप कहानी एवं नवगीत परंपरा से होते हुए ग़ज़ल की ओर आ रही हैं इसलिए इनका ग़ज़ल को लेकर दृष्टिकोण काफ़ी हद तक साफ़ है। हिंदी ग़ज़ल की भाषा और उसके मुहावरे से आप परिचित दिखती हैं। ‘हमको बोलने तो दीजिए’ इनका सद्य प्रकाशित पहला ग़ज़ल संग्रह है, जो श्वेतवर्णा प्रकाशन से इसी वर्ष आया है। इस संग्रह में इनकी कुल 109 ग़ज़लें संगृहीत हैं।

हालाँकि यह इनका पहला प्रयास है और उस लिहाज से इस संग्रह के माध्यम से उनसे संभावना ही बनती है। कहन में कसावट, मिस्रों में रब्त और परंपरागत ग़ज़लों के प्रभाव से मुक्ति जैसी कई अपेक्षाएँ इनसे रहेंगी। फिर भी हिंदी ग़ज़ल की भाषा, उसकी कहन, सरोकार और मुहावरे से रचनाकार परिचित दिखती हैं। बाक़ी जाहिर सी बात है कि निखार और उत्कृष्टता अभ्यास तथा समर्पण के दम पर समयानुसार प्राप्त होने वाली चीज़ें हैं। पुस्तक की ग़ज़लों के अनेक शेर आश्वस्तिकारक हैं, जो इनसे अच्छी उम्मीद बँधाते हैं।

संग्रह की ग़ज़लों को शिल्प और अन्य व्याकरणिक उपकरणों पर परखने पर एक सुखद अहसास प्राप्त होता है। बहुत कम या न के बराबर ऐसी चूक देखने को मिलती है। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकार जहाँ शिल्प को लेकर अधिक सजग न दिखते हों, वहाँ यह परिणाम सुखद ही माना जाएगा। आशा है डॉ० रंजना गुप्ता की ग़ज़ल यात्रा सुखद और सार्थक रहेगी। इन्हें इस यात्रा के लिए मंगलकामनाओं के साथ इस पुस्तक के लिए बधाई और शुभकामनाएँ।

पुस्तक से कुछ चुनिंदा शेर-

यूँ लबालब आँसुओं के जाम हैं
हम बिना कोशिश उमर ख़य्याम हैं

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ज़िंदगी में ग़म बहुत हैं
और ख़ुशियाँ कम बहुत हैं
ज़िल्लतों के हैं क़फ़स पर
बेकसों में दम बहुत हैं

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ठोकरें खा-खा के भी फ़ितरत न बदलेगी नदी
पत्थरों के संग ही चलता लहर का काफ़िला

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जो सितम दुनिया के खाते में नहीं लिक्खा गया है
सुबह अब तक उस क़यामत की नहीं आई दुहाई

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जंग जैसी हो गयी है ज़िंदगी भी आजकल
चैन से रहने की तदबीरें हुई जाती विफल

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बस्तियाँ सब दर्द पाले हैं यहाँ
रोटियों के रोज़ लाले हैं यहाँ
बेसबब हैं ज़िंदगी के चोंचले
मौत के सारे निवाले हैं यहाँ

समीक्ष्य पुस्तक- हमको बोलने तो दीजिए
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- डॉ० रंजना गुप्ता
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2023

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