May 4, 2024

अन्तःकरण का आयतन : मुक्तिबोध

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मनुष्य का अन्तःकरण उसे उचित-अनुचित के निर्णय लेने का विवेक प्रदान करता है। मुक्तिबोध अपने साहित्य में बहुत से नए शब्द गढ़ते हैं, जो अर्थगर्भित और सार्थक हैं। ‘अन्तः करण का आयतन’ ऐसा ही शब्द है, जो उनकी कविता का शीर्षक भी है।’आयतन’ विज्ञान की शब्दावली है जिसका अंतःकरण से मेल एक ठोस भावबोध पैदा करता है।उनका साहित्य हमे बताता है कि अन्तःकरण के आयतन का विस्तार होना चाहिए। लेकिन मनुष्य कमजोरियों का पुतला भी है। सामाजिक-आर्थिक -नैतिक बंधनो,संस्कारों और दायित्वों से घिरा, वह द्वंद्वों से ग्रस्त रहता है।द्वंद्वग्रस्त इस जीवन में भी सम्वेदनशील व्यक्ति, वृहत्तर समाज को मानवीय बनाने की सोचता है,प्रयत्न करता है, और इस कर्म में अपनी कमजोरियों से लड़ता है, अपनो से ऊर्जा प्राप्त करता है, सीखता है, सिखाता है। ‘अन्तःकरण का आयतन’ कविता में काव्य नायक के इसी प्रयत्न(छटपटाहट) का चित्रण है।कविता में अन्तःकरण ‘आत्मीयता’, ‘आंतरिकता’ के पर्याय में प्रयुक्त हुआ है, और इसे ‘छाँह’ रूपक से प्रकट किया गया है।

कविता की शुरुआत इस आत्मस्वीकृति से होती है कि “अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है”/आत्मीयता के योग्य मैं सचमुच नही !” विस्मय बोधक चिन्ह से स्पष्ट है कि बात व्यंजना में कही गई है। अन्तःकरण का आयतन जरूर कम है मगर वह(व्यक्ति) आत्मीय है, अपना है। आयतन कम है तो उसे बढ़ाया भी जा सकता है।मुख्य बात है उसकी चाह।

काव्यनायक की यह ‘छाँह’ सर्वगामी है। यह हवा में अकेली “सांवली बेचैन” उड़ती है। इस “श्यामल-अंचला” के हाथ में “लाल कोमल फूल” होता है। छाया के कालेपन के कारण ही उसे ‘सांवली’ और ‘श्यामल अंचला’ कहा गया है। मगर उसके हाथ में फूल है। यह फूल “प्रदीपित द्वंद्व चेतस् एक/सत्-चित्-वेदना का” है।’सत्- चित -आनंद’ में ‘आनन्द’ के स्थान पर ‘वेदना’ का प्रतिस्थापन मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण जीवन दृष्टि है।यह इसे ‘ईश्वरीय’ से ‘ज़मीनी’ बनाती है।यह दुखवाद नहीं है, अपितु दुःखीतों से सहानुभूति है।फूल का लाल और प्रदीपित होना क्रांतिकारी वैज्ञानिक चेतना की ओर संकेत करता है।

फूल ‘प्रदीपित द्वंद्व चेतस् ‘ है।द्वंद्व शब्द मुक्तिबोध के यहां अपने समकालीनों में सर्वाधिक है। यह द्वंद्व अन्तःकरण का ही है जो उसके ‘आयतन’ को प्रभावित करता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि वह द्वंद्व के प्रति चेतस् है।

‘काव्य नायक’ की ‘छाँह'(अन्तःकरण) इस फूल को लेकर जगह-जगह घूमती है; कई दरवाज़ों के सांकल को खटखटाती है, मगर इनकार वाले दरवाजे नहीं खुलते।वे दरवाजा क्यों नहीं खोलतें?सांकल खटखटाने और दरवाजा न खोलने का प्रसंग ‘अंधेरे में’ भी आता है। वहां दरवाजा काव्य नायक ‘मैं’ नहीं खोलता। यहां दरवाजा न खोलने वाले दूसरे हैं, खटखटाने वाला काव्य नायक की ‘छाँह’ है। दरवाजा नहीं खुलने का कारण कोई भय प्रतीत होता है।यह भय किस बात का है? यह भय किसी बड़े विनाश की आशंका प्रतीत होता है; क्योकि यह आगे बड़ा प्रश्न पैदा करता है “कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?”

काव्य नायक (की छाँह)ने दरवाजा खटखटाया तो अपना समझकर ही खटखटाया होगा;खुलने की उम्मीद रही होगी।आवाज़ सुनी गई थी; क्योंकि “उन सोते हुओं के गूढ़ सपनों में/परस्पर-विरोधों का उर-विदारक शोर होता है!” आगे इसकी गहनता का रूपक है। वे जाग जाते हैं “गहन चिन्ताक्रान्त होकर, सोचने लगते/कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?”

बेबीलोन समृद्ध सभ्यता का प्रतीक है। उस सभ्यता में ‘तुंग स्वर्ण- कलश’, ‘सब आदर्श’, ‘ज्ञानवान महर्षि’, ‘ज्योतिर्विद’, ‘गणितशास्त्री’, ‘विचारक’ , ‘कवि’ हैं। ये सब “प्रतापी सूर्य हैं वे सब प्रखर जाज्वल्य”। मगर विडम्बना “अँधेरे स्याह धब्बे सूर्य के भीतर/ बहुत विकराल” इस सभ्यता के नियंताओं में ही दोष है। “इन धब्बों के अँधेरे विवर तल में से/ उभरकर उमड़कर दल बाँध उड़ते आ रहे हैं गिद्ध” ये गिद्ध नुकीली चोंच से आँखे निकालेंगे “खायेंगे हमारी दृष्टियाँ”।

इस सभ्यता के ‘पतन’ में इसके बुद्धिजीवियों की ही मुख्य भूमिका होगी। क्योंकि इनके स्याह धब्बे में छुपे गिद्ध हमारे(जन मन के) ऑंखे निकाल लेंगे; हमारी दृष्टियाँ छीन लेंगे।इनकी दृष्टियाँ जन-मन से दूर हो गयी प्रतीत होती हैं, और वे उनकी दृष्टियाँ छीनकर अपनी विचारधारा उन पर आरोपित करना चाहते हैं।कहना न होगा यह विचारधारा पतनशील है।

इस तरह दरवाजा न खोलने के कारण उनमे(जन-मन)में द्वंद्व पैदा होता है।उनमे भय भी है, और भय के प्रति क्षोभ भी है।यह द्वंद्व आधुनिक मनुष्य का द्वंद्व है जो सभ्यता के पतनशीलता की तरफ बढ़ते कदम को देख रहा होता है; चाहता भी है ऐसा न हो, मगर इसे रोकने में उचित हस्तक्षेप नहीं कर पाता। मगर इससे समझौता भी नहीं करता और “मन में ग्लानि” से भर जाता है। मुक्तिबोध की खासियत है कि चित्रण में वातावरण की संजीदगी के उदात्त को अचानक तोड़ देते हैं। जैसे यहां पर “भयानक क्षोभ” के बाद “गंदे कागज़ों का मुन्सिपल कचरा !!”

इसके बाद दृश्य बदलता है।काव्य नायक की ‘छाँह’ उनको पार कर एक ‘भूरे पहाड़ो ‘ पर खड़ी अचानक स्तब्ध हो जाती है, और अपने ‘गहन चिंतनशील नेत्रों में’ मैदानी-प्रासारों के जन-जीवन को देखती है।यह जन-जीवन कैसा है? -“विदारक क्षोभमय सन्तप्त जीवन-दृश्य” और “सम्वेदन-रुधिर-रेखा-रँगी तसवीर”।यह दृश्य सुखद नहीं है।हर तरफ “तड़प मरते हुए प्रतिबिम्ब” हैं मगर “जग उठते हुवे द्युति-बिम्ब” भी हैं। इन दोनों के परस्पर गुंथन से “जगत का चेहरा” बदलते दिखाई देता है। काव्य नायक(की छाँह) को जन-मन के इस संघर्ष भरे जीवन से सकारात्मक बदलाव दिखाई देता प्रतीत होता है।

इसके बाद ‘छाँह’ फिर यात्रा करती है। “दिशाओं पार हलके पाँव/ नाना देश दृश्यों में” वहां अपने प्रियतरो के चरण स्पर्श करती है,उनके घर में घूमती है। आत्मीयता ऐसी कि उनकी उनके लैम्प के लौ को को ठीक करती है। फिर मधुर एकांत पाकर उनका आलिंगन करती है। उनके मुख को “किन्ही संवेदनात्मक ज्ञान-अनुभव के स्वयं के” पारिजात(फूल) प्रदान करती है। फिर उनसे चर्चा, वाद-विवाद करके उनके संवेदनात्मक ज्ञान- अनुभव के “समूची चेतना की आग” पीती है। यहां जिन प्रियतरो से इतनी आत्मीयता है वे ‘अजाने’ हैं। मगर वाद-विवाद-संवाद से दोनों तरफ चेतना का परिष्कार हो रहा है। चूंकि यात्रा “दिशाओं पार”, “नाना देश-दृश्यों” तक है इससे प्रतीत होता है कि कवि संवाद और सम्वेदना में विस्तार को विश्व-व्यापी दीखाना चाह रहा है।यदि रूपक को सीमित अर्थ में लिया जाय तो भी विस्तार की चाह स्पष्ट है।’अजाने’ से संवाद की सुविधा फैंटेसी प्रदान करती है।

इसके बाद दृश्य बदलता है मगर पहले से सम्बद्ध जान पड़ता है। यह दृश्य ‘मनोहर’ है।गहन सघन छाया के अंधेरे वृक्ष के नीचे “खड़ी हैं नीलतन दो चंद्र-रेखाएँ” स्वयं की चेतनाओं को मिलाती हैं, और उनसे भभगकर निकलती है आग या निष्कर्ष; और जिसे देखकर, अनुभूत कर दोनों चमत्कृत हैं।इनका मिलना ऐसा है कि “अंधेरे औ’ उजाले के भयानक द्वंद्व की सारी व्यथा जीकर” द्वंद्व के नक्शा बनाने(निष्कर्ष) के लिए भयंकर बात निकल आती है/प्रसूत होती है। फिर “तिमिर में समय झरता है”।और इसके एक-एक कण से चिंगारियों का दल निकलता है। इसी समय उस अंधेरे वृक्ष से उसकी आंतरिक सुगंध निकलती हैं, जिससे तन-मन में निराली ऊष्मा फैलती है।

यहां “नीलतन दो चंद्र-रेखाएं” की रूपकात्मकता दो व्यक्तियों की चेतनाओं(जिनमे भिन्नता भी है) की जान पड़ती है।इसीलिए ये अँधेरे और उजाले के भयानक द्वंद्व से गुजरकर ‘चिंगारियां’ बनती हैं। इस संगति का प्रभाव सकारात्मक रहा है । इसे दो भिन्न चेतनाओं के वाद-विवाद-सवांद से प्रसूत सकारात्मक(जाग्रत)चेतना समझा जा सकता है।

इस क्रियाकलाप से काव्य नायक की ‘छाँह’ ऊर्जस्वित हो जाती है।वह इन प्रियतरों के ‘उष्मश्वस् व्यक्तित्व’ से प्रभावित होती है,उनकी दृष्टियों को आत्मसात करती, अपनी दृष्टि(जगत संदर्भ)भी बांटती। प्रियजनों के स्वप्न, विचारों, वेदना को जीकर स्वयं ‘व्यथित अंगार’ बनती है। उनसे जुड़कर “और अगले स्वप्न का विस्तार बनती है”।

इसके बाद ‘छाँह’ फिर दूसरी जगह पहुँचती है। “उतरती है खदानों के अँधेरे में”। यहां अँधेरे में और स्याह हो जाती है। लेकिन “हृदय में वह किसी के सुलगती रहती/उलझकर,मुक्तिकामी श्याम गहरी भीड़ में चलती”। यहां सम्भवतः श्रमिक वर्ग की चेतना पर,अपनी चेतना(छाँह) के ‘दृत हस्तक्षेप’ का चित्रण है।यहां पर भी सीखती सिखाती,परखती, बहस करती, दिल रफ़ू करती, किन्ही प्रणाचलों ओर “स्वयं की आत्मा की फूल-पट्टी के नमूने का” कसीदा काढ़ती है।

इस तरह काव्य नायक की “छाँह’ अजाने रास्तों पर रोज़ भटकती रहती है। घाटियों-पहाड़ो को पार करते “किसी श्यामल उदासी के कपोलो पर अटकती है”। किसी(प्रिय) को प्रेम कर “हृदय में विश्व-चेतस् अग्नि देती है”। इससे पुनः चेतना ऊर्जस्वित हो जाती है।

आगे काव्य नायक का आत्म व्यक्तव्य है।कविता के इस अंश में भाषा में काफी तरलता है। इसमे काव्य-नायक जन-मन से, उनके सुख-दुख-संघर्ष से खुद को जोड़ता है –

“मैं देखता क्या हूँ कि-/पृथ्वी में प्रासारों पर/जहां भी स्नेह या संगर,/वहां पर मेरी छटपटाहट है;/वहाँ है ज़ोर गहरा एक मेरा भी;/सतत मेरी उपस्थिति, नित्य-सन्निधि है।/ एक मेरा भी वहां पर प्राण प्रतिनिधि है/अनुज,अग्रज,मित्र/कोई आत्म-छाया-चित्र!!”

कवि का ज़मीनी लगाव इस कदर है कि “धरती के विकासी द्वंद्व-क्रम में एक मेरा पक्ष, मेरा पक्ष, निःसन्देह!!” काव्य-नायक का मन धरती(यह जनपथ) में रहने वाले दुनिया के विविध राग-रंग, सुख-दुख में बसर करने वाले लोगो के प्रति आत्मीयता से भर जाती है, और उसे महसूस होता है कि उनका प्रेम उसके प्रति बरसता है और “छाती भीग जाती है, व आँखों में उसी की रंग लौ कोमल चमकती सी”।

मगर इस इन सुखद अनुभूतियों के बाद एक नाटकीय परिवर्तन होता है। “भयानक बात होती है/हृदय में घोर दुर्घटना”। अचानक एक हँसता हुआ काला चेहरा प्रकट होता। यह चेहरा किसका है? ” अध्यक्ष वह मेरी अँधेरी खाइयों में/कार्यरत कमजोरियों के छल-भरे षडयंत्र का” यह काव्य-नायक की ‘कमजोरी’ है। इस कमजोरी ने उसे कैद कर रखा है। काव्य नायक प्रश्न करता है “क्या इसलिए ही कर्म तक मैं लड़खड़ाता पहुँच पाता हूँ?” कमजोरियां कर्म से दूर हटाना चाहती हैं।

इस कमजोरी से सामना करने ‘मन’ अकेले में जाता है। और एकेक कमरे(मन का) खोलकर देखता है, कि ये कमरें ठीक नहीं हैं। इसके सुनसान दीवारों पर जो आईने लगे हैं उनमे “स्वयं का मुख”, “जगत के बिम्ब” दिखते ही नहीं। और जो दिखते हैं वे “विकृत प्रतिबिम्ब है उद्भ्रांत”। काव्य नायक प्रश्न करता है। ऐसा क्यों है? उन्हें साफ क्यों न किया गया? कमरे क्यों न खोले गये? ऐसा आईना किस काम का जिसमे अंधेरा डूबता है। इनकी पुनर्रचना क्यों नहीं की गयी? स्पष्टतः यहां कमजोरियों का कारण मन में जमी गलत धारणाओं/विचारों की धूल की तरफ इशारा किया गया है।

इसी समय कहीं से “कोई जादुई संगीत-स्वर-अलाप” पास आता है, और जैसे प्रकाश बनने लगता है। स्वर किरणों में बदलने लगते हैं, फिर उनसे “किरण -वाक्यावलि” बनती हैं।यह स्वर का किरण में बदलना क्यों है? “सहस्त्रों पीढ़ियों ने विश्व का रामणीयतम जो स्वप्न देखा था/वही/ हाँ, वही”। जो आईने में सिर उठाती है “प्रतेजस-आनना”।दीप्त मुख वाला।उसके मुख में तेजस्वनी लावण्य है।वह बिल्कुल सामने आ जाता है।

लेकिन इसी क्षण काव्य नायक के कंधे पर कोई हाथ रखता है। वह “भयानक काला लबादा ओढ़े है”। चेहरा स्याह पर्दे से ढँका है।वह सुरीली किंतु चीखते से शब्द में कहता है “मुझसे भागते क्यों हो/सुकोमल काल्पनिक तल पर,/नहीं है द्वंद्व का उत्तर”। वह काव्य नायक को समझाता है, द्वंद्व का उत्तर सुकोमल काल्पनिक तल पर नहीं है। बिना संहार के सर्जन असम्भव है। समन्वय झूठ है। “सब सूर्य फूटेंगे/व उनके केंद्र टूटेंगे/उड़ेंगे खण्ड/बिखरेंगे गहन ब्रम्हांड में सर्वत्र/उनके नाश में तुम योग दो!!” सहसा काव्य नायक “किसी उद्वेग से” उस घोर आकृति पर टूट पड़ता है और आवरण हटा देता है। मुक्तिबोध के काव्य नायक सामान्यतः निर्णय लेने में द्वंद्वग्रस्त रहते हैं, मगर यहाँ विपरीत उदाहरण भी है। आवरण हटने पर वह आश्चर्य में पड़ जाता है क्योंकि यह तो वही है “प्रतेजस-आनना”, “जिसने अँधरे आईने में सिर उठाया था”। और “सहस्त्रों पीढ़ियों ने जो स्वप्न देखा था”।

इस पूरे प्रकरण से यह पता चलता है कि मन की कमजोरियों/द्वंद्वग्रस्तता से मुक्ति की राह मन के अंदर ही है। वह मन के आईने में ही है, जरूरत है उसे साफ करने की।इस भावग्रस्तता को दूर करने में “सहस्त्रो पीढ़ियों ने जो स्वप्न देखा है” उस चेतना से व्यक्तिक चेतना को जाग्रत करने से राह निकलेगी।यह मुक्ति की चेतना ही “जादुई-स्वर-संगीत-आलाप” के रूप में आती है।यही “प्रतेजस आनना” है।

इसके बाद फिर दृश्य में बदलाव आता है;रूपक बदलता है। काव्य नायक स्वप्न के आवेश में चाँदनी की नीली प्रकाश में फसलों के सुनहले फैलाव में चलता है।उसकी आंखों में “चमकती चाँद की लपटें” और ह्रदय में से ‘आम्र-तरु-मंजरी की गंध” निकलती है। वह अचानक आम का “सुनहला एक गोरा झौंर(गुच्छ)” तोड़ लेता है। फिर अचानक देखता है कि इसके हर एक बाली में,सुकोमल फूल में, “तेजस स्मित धरती” और मानव के प्रभामय समन्वय से “प्रियजनों”, “सहचरों” का मुख है। फिर वह “गोरा झौंर” को वापस लगा देता है, जिससे वे मुख मुस्कुराते हैं। काव्य नायक इससे जादुई प्रभाव महसूस करता है। उसे लगता है कि वह इस जादुई ‘षड्यंत्र’ में फँसता जाता है ।वह सोचता है कि उसे तोड़ने की बुरी आदत है। फिर उसके अंदर एक प्रश्न उपस्थित होता है। “क्या उत्पीड़ितों के वर्ग से होगी न मेरी मुक्ति!!” इस काव्यांश से लगता है कि काव्य नायक के हृदय में ज़मीन से जुड़े जन-मन का प्रेम संचित है जिससे वह कभी-कभी,भ्रमवश(अथवा भयवश) भिन्न चेतना समझ उससे दूर होना चाहता है मगर जल्दी ही उसे इस बात का अहसास हो जाता है, और वह जानता है कि वह इससे बच नहीं सकता।कमजोरियां चाहे जिधर खींचे वह जन -मन से दूर नहीं जा सकता। इसी कारण उसके सामने यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या उत्पीड़कों के वर्ग से मेरी मुक्ति न होगी। यानी इस द्वंद्व का समाहार इस मुक्ति में ही निहित है।

इतने में घटनाक्रम में फिर बदलाव होता है। काव्य नायक के कान में अचानक “नभोमय भूमिमय” संगीत, जिसे मानों कोई आकाश के नीचे क्षिप्रा तट पर,कोईपुरूष गा रहा हो;सुनाई देता है। लेकिन उसी क्षण उसकी विरोधात्मक चेतना काल(महाकाल)मंदिर के आरती आलाप वेला में “भयानक श्वानदल का ऊर्ध्व क्रंदन” भी सुनती है।इस द्वंद्व से उसे आश्चर्य होता है।

उसे आश्चर्य होता है कि जिस सौंदर्य को वह रात-दिन खोजता रहा और जो काला लबादा ओढ़ रात-दिन पीछे पड़ गया था, उसका रहस्य आज उद्घाटित हुआ। अब उसे जीवन के सब प्रश्न ऐसे लगते हैं “कि मानो रक्त-तारा चमचमाता हो/कि मंगल लोक हमे बुलाता हो/साहसिक यात्रा -पथों पर” काव्य-नायक को अहसास होता है कि मैं तो केवल एक अस्त्र, मात्र साधन, प्रेम का वाहन हूँ। मैं तुम्हारे द्वार पर आया “अस्त्र-सज्जित रथ” हूँ। वह आमंत्रित करता है कि मेरी “प्राण-आसन्दी” तुम्हारी प्रतीक्षा में है। यहां आओ, बैठो। यह मृदुल आसन आत्मा का है। “हृदय के, बुद्धि के अश्व तुमको ले उड़ेंगे”।ये तुमको शैल-शिखरों में बसी ठंडी हवाओं के पार “गुरुगम्भीर मेघों की चमकती लहर-पीठों पर” व उससे भी आगे “सवर्ण उल्का क्षेत्रों में”, “नक्षत्र-तारक-ज्योतिं-लोकों” में घूमा लाएगा। काव्य नायक कहता है रथ के यंत्र मजबूत हैं। “उन प्रश्न-लोकों में यहां की बोलियाँ/तुमको बुलाती हैं/कि उनको ध्यान से सुन लो।”

और इसी के साथ कविता ‘समाप्त’ हो जाती है। कविता इन अंतिम अंशों से आभास होता है कि काव्य नायक को ‘दृष्टि’ मिल जाती है।द्वंदग्रस्त विरोधी चेतना के साथ मानो उसे अपनी कर्म-दिशा मिल जाती है, जीवन के प्रश्नों के हल मानो वह समझने लगता है; और वह महसूस करता है कि वह इस संघर्ष का मात्र साधन है, जिसमे दुनिया के तमाम जन-मन जूझ रहे हैं।वह इस संघर्ष में अपना योगदान देना चाहता है। लोगों को बुलाता है कि उसकी क्षमता का उपयोग करें, उसे साथ लें।काव्य नायक कहता है उन प्रश्नों का हल जन-मन से जुड़कर ही सम्भव है।उसे समझना होगा।

इस तरह ‘अन्तःकरण का आयतन’ समाप्त होकर भी समाप्त नहीं होती। क्योंकि मुक्तिबोध जिस तरह सम्वेदनाओं, भावों को जोड़ते चले जाते हैं, वह एक तरह से कभी समाप्त न होने वाली है। कविता के पूर्वार्ध तक काव्य नायक की “छाँह” विभिन्न जगहों में जाती है, मगर उत्तरार्ध में सीधे काव्य-नायक की उपस्थिति है। इस पूरी कविता को शीर्षक के संदर्भ में देखें तो कवि आत्म का, सम्वेदनाओं का, सहानुभूति का विस्तार चाहता है। जीवन के द्वंद्वों से मुक्ति, अपनी कमजोरियों से मुक्ति,जिसका रास्ता सरल नही जटिल है, की राह तलाशना चाहता है। इसी से कवि सम्भवतः ‘अन्तः करण का आयतन’ विस्तार चाहता है।

मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ते उसके रूपक को समझने में पाठक को थोड़ी कठिनाई अवश्य होती है।लेकिन जैसे-जैसे आप उसमे डूबते चले जाते हैं, उसमे निहित विडम्बनाएं,द्वंद्व,जीवन के जद्दोजहद जो एकदम मानवीय हैं, आपको अपने रंग में रंग लेती हैं,और शमशेर के शब्दों में “आप मुक्तिबोध के चित्रों के पैटर्न समझ लेने के बाद उन्हें उम्र भर नहीं भूल सकते”।*

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[2020]
*शमशेर -कुछ और गद्य रचनाएं(पृ.35)

● अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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