फ़िल्म ’पार ’ : गौतम घोष (1984)
देश में सामंती समाजों के अवशेष बीसवीं शताब्दी तक बने रहें। अब पूरी तरह खत्म हो गए हों ऐसा भी नहीं।मगर उल्लेखनीय कमी अवश्य आई है। सामंती समाजों की एक बड़ी समस्या वर्ण व्यवस्था की रही है,जिसमे जन्म आधारित व्यवस्था के तहत मनुष्यों के बीच ऊँच–नीच का भेदभाव किया जाता रहा। इस व्यवस्था के निचले पायदान पर आरोपित जातियां अमूमन सर्वहारा भी होती थीं।यानी जातियां उत्पीड़न का एक आर्थिक आधार भी था।इस तरह संघर्ष दोहरा था।
गांव में जो प्रभु जातियां होती थीं,वे संपत्तिशाली वर्ग भी थें। उनका अस्तित्व किसानों -मजदूरों के शोषण पर निर्भर था, इसलिए अधिक लगान, बेगारी, कम मजदूरी सामान्य बात थी। आज़ादी के बाद ज़मींदारी ‘उन्मूलन’ के बाद भी यह व्यावहारिक स्तर पर बना रहा। भूमिहीन मजदूर उन पर निर्भर थे। उनके खेतों पार काम करके जीवन यापन करते थे, मगर मजदूरी बहुत कम मिलती थी, बटाई खेती में भी उपज का बहुत कम हिस्सा दिया जाता था,जीवन यापन कठिन था। सरकार ने मजदूरी बढ़ाने के लिए क़ानून बनाये मगर ज़मींदार आपने इलाके के ‘सरकार’ होते थें, वहाँ उनका ही क़ानून चलता था। मजदूरी बढ़ाना न बढ़ाना उनकी इच्छा पर निर्भर था। विरोध करने पर गुजारा मुश्किल था। दलित -मजदूर संगठित नहीं थे। फिर पुलिस -प्रशासन ज़मींदारों के के पक्ष में झुके हुए थें। ज़मींदारों की नृशंस कार्यों पर भी केवल खानापूर्ति की जाती थी।
फ़िल्म ’पार ’की पृष्टभूमि यही है। परिवेश बिहार का ग्रामीण जीवन है जहां ज़मीदार वर्ग भूमिहीन दलित वर्ग को सही मजदूरी नहीं देते जिसके कारण उनका जीवन अभावग्रस्त है,घर में खाने को लाले पड़े हैं रोशनी के लिए केरोसिन तक नहीं है। मजदूर इस अन्याय से आहत हैं ।यद्यपि सरकार ने उनके लिए न्यूनतम मजदूरी तय कर दी है मगर वे ज़मींदार के आगे आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते। ऐसे में गांव का स्कूल मास्टर उनके साथ देता है और ज़मींदार के आगे उनकी मांग रखता है। मांग न मानने पर मजदूर काम बंद कर देते हैं।ज़मींदार मौके की नज़ाकत को देखकर तत्कालीन राहत दे देता है,और अपने अहं को ज़ज़्ब कर लेता है,राहत का एक स्वार्थ आगे होने वाले गांव मुखिया का चुनाव भी है। इधर स्कूल मास्टर एक कदम आगे बढ़कर मजदूरों को संगठित कर ग्राम मुखिया का चुनाव जितवा देता है।
ज़मींदार परिवार के लिए यह ’अपमान’ असहनीय हो जाता है कि उनके ऊपर कोई दलित वर्ग का व्यक्ति मुखिया बने! इसमें मास्टरजी की प्रमुख भूमिका जानकर ज़मींदार के छोटे भाई द्वारा उसकी हत्या कर दी जाती है और उसे एक्सीडेंट घोषित करवा दिया जाता है। कानूनी प्रक्रिया के तमाम प्रयास विफल होने पर गांव के कुछ नौजवान नौरंगिया के नेतृत्व में बदला लेने के लिए ज़मींदार के छोटे भाई हरिसिंह की हत्या कर देते हैं।
इसकी खतरनाक प्रतिक्रिया होनी ही थी। ज़मींदार के गुर्गे एक रात अंधेरे में दलितों की बस्ती में खूनी खेल खेलते हैं।पूरी बस्ती जला दी जाती है, बीस से अधिक लोग मारे जाते हैं। नौरंगिया की अनिच्छा पर भी माता–पिता और पत्नी के दबाव में उसे रात में ही गांव से भागना पड़ता है। साथ में गर्भवती पत्नी रमा भी होती है। वे मास्टर जी की विधवा की चिट्ठी लेकर कस्बे में एक पत्रकार के पास जाते हैं। वह उन्हें काम करने कलकत्ता जाने को कहता है और अपने परिचित के जगदीश बाबू के नाम काम के लिए एक चिट्ठी लिख देता है। नौरंगिया का मन अब भी वहां जाने को नहीं होता मगर पत्नी के जिद के आगे वह बेबस हो जाता है।
रेल में कलकत्ता जाने वाले प्रांत के कई यात्री हैं। मगर इतने बड़े कलकत्ता में उस संक्षिप्त पर्ची के व्यक्ति को ढूंढना कठिन था। एक आवारा किस्म के सहयात्री के सहयोग से घुमते–घामते जब वहां पहुँचते हैं वह बाहर जा चुका होता है।इधर मास्टरनी से मिले पैसे खत्म हो जाते हैं । न घर न काम ! जगदीश की पत्नी उन्हें तत्कालीन आश्रय देती है,खाने को रोटी भी देती है,मगर वह स्वयं पीड़ित है जगदीश गया है तो लौटा ही नहीं। कलकत्ता में बिहार के बहुत मजदूर हैं मगर जैसा कि मजदूरों नियति है ठीक से खोली भी मयस्सर नहीं,फैक्ट्रियों में काम नहीं,छ्टनी है।ऐसे में कौन किसको आश्रय दे!
नौरंगिया काम तलाश करने का हर प्रयास करता है,कई लोगों,एजेंटों के पास जाता है मगर कहीं सफलता नहीं मिलती काम सीमित है,दावेदार अत्यधिक हैं।दलाल तक काम नहीं दिला पा रहे हैं।नौरंगिया की हताशा बढ़ती जाती है।उसे घर और भी याद आने लगता है। रमा भी महानगर की हकीकत समझने लगती है।जगदीश की औरत का व्यवहार भी बदलने लगता है।जाहिर है वह चाहती है वे चले जाएं। एक सीमा के बाद रमा का आहत स्वाभिमान जवाब दे देता है।अब वह भी घर लौटना चाहती है।
हताश–परेशान दोनो काम के लिए भटकते हैं ताकि कम से कम घर लौटने तक के लिए पैसे मिल जाय। अंततः उन्हें ऐसा कठिन काम मिलता जिसको सामान्य परिस्थिति में कोई न करें। सुवरों के झुंड को नदी पार कराना था। नाव वाले जानवरों को पार नहीं कराते थे,ऐसे में कमीशन काटने के बावजूद भी उन्हें ठीक–ठाक पैसा मिल रहा था। पहले तो नदी के पाट की चौड़ाई को देखकर दोनो के होश उड़ जाते हैं मगर नौरंगिया जानता था कोई और रास्ता नहीं है। रमा के मना करने,बेबसी प्रकट करने,अपने गर्भवती होने का हवाला देने पर भी वह नहीं मानता। उसके अंदर बेबसी,हताशा और क्रोध के भाव एक साथ उभरते हैं।
अंतत: दोनो सुवरों के झुंड को हकालते नदी में उतर जाते हैं। हांफते ,छटपटाते,डूबते,बचते अंततः नदी पार कर ही लेते हैं।गर्भवती रमा का संघर्ष यहां अत्यंत मार्मिक है।यह दो ज़िंदीगियों का संघर्ष है। इस विडंबना बोध को तीव्र करने के लिए झुंड में एक गर्भवती सुवर के नदी पार करने के संघर्ष को प्रतीकात्मक रूप से चित्रित किया गया है।।फिल्म का शीर्षक ’पार ’ है, भाववादी दर्शनों में मनुष्य सांसारिकता से छुट्टी पाकर जीवन नैया ’पार’ करना चाहता है। यहां श्रमिक दंपत्ति इस जीवन के भीतर सुकून की तलाश के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें भवसागर पार नहीं करनी है। एक नदी पार करनी है ताकि अपना घर वापस लौट सकें, जहां भले भूख,गरीबी है मगर इस तरह अनामिकता,अजनबियत, छल –प्रपंच नहीं है। यद्यपि शोषण वहां भी है मगर वहां कम से कम रात को सोने को झोपड़ी तो है!
नदी पार करते–करते दोनो लगभग टूट जाते हैं मगर एक उम्मीद बची रहती है। मेहनताना के पैसे से जैसे उन्हें नयी ज़िंदगी मिलती है।अब वे अपने गांव लौट सकते हैं।नदी पार कराने का काम देने वाला तरस खाकर उन्हें रात भर को झोपड़ी में जगह दे देता है।
झोपड़ी में एक क्षण को रमा को अपने गर्भ के बच्चे की हलचल महसूस नहीं होती,वह बेतहाशा रोने लगती है।उसका एक बच्चा बुधिया पहले कुआं में गिरकर मर चुका है,अब दूसरा भी! बेसुध नौरंगिया एक उम्मीद में उसके पेट कान लगाकर सुनता है,उसे बच्चे की हलचल सुनाई देती है,और एक उम्मीद से फ़िल्म समाप्त हो जाती है।
इस तरह फ़िल्म में दो पक्ष हैं पूर्वार्ध में गांव में दलित–मजदूर वर्ग के शोषण की विडंबना तो उत्तरार्ध में उम्मीद की चाह में महानगर में भटकते मजदूरों की विडंबना है। शैलेन्द्र की पंक्ति में कहें तो ”न कोई इस पार हमारा न कोई उस पार”। फ़िल्म नसीरुद्दीन और शबाना की अदाकारी बेहतरीन है। खासकर नसीरुद्दीन के चेहरे में बेबसी और हताशा का भाव। फ़िल्म समरेश बसु की बंगाली कहानी ’पारी’पर आधारित है।
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★अजय चंद्रवंशी कवर्धा (छत्तीसगढ़ )
मो. 9893728320