May 20, 2024

वास्कोडिगामा गली

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  • प्रतिभू बनर्जी

कहते हैं दिन का कोई एक क्षण ऐसा होता है, जब जुबान से मज़ाक में भी निकली बात सच हो जाती है। अनुभा ने उसके बिगड़ने की बात शायद ऐसे ही किसी क्षण में दुहराई थी। नहीं तो पौलोमी उसकी जिंदगी में कैसे आती!

गुवाहाटी एयरपोर्ट से बाहर निकलते समय एक्ज़िट दरवाजे के बाहर खड़ी भीड़ में पौलोमी को देख कर शेखर ने गर्मजोशी से हाथ हिलाया। आँखों पर काले चश्मे और नीले जींस के ऊपर लाल-काले बाटिक प्रिंट वाले स्टाइलिश कुर्ते में वह बड़ी खूबसूरत लग रही थी।

शेखर के हाथ हिलाने के प्रत्युत्तर में उसने भी बड़ी गर्मजोशी में हाथ हिलाया। मुस्कुराता शेखर सामान की ट्राली के साथ एक्ज़िट दरवाजे की तरफ बढ़ा और तभी पीछे से आते हुये एक व्यक्ति ने बड़ी तेजी से लगभग धक्का मारते हुये उसका रास्ता काटा।

गिरते- गिरते बचे शेखर को लगा, जैसे उस आदमी ने जानबूझ कर ऐसा किया। शेखर ने तमक कर उस व्यक्ति की ओर देख उसे गुस्से में कुछ कहना चाहा पर कुछ कहना भूल बुरी तरह चौंक पड़ा। वह व्यक्ति पलट कर उसे ही ताक रहा था। उसकी हिंसक नजरों में जो अजीब सा ठंडापन था, उसकी सिहरन शेखर के लिए जानी पहचानी थी। औसत कद के गोल चेहरे, छोटी गर्दन, कसे हुये जबड़ों और भरे बदन वाले इस अजनबी से उसका पिछले कुछ दिनों में यह तीसरी या चौथी बार सामना हुआ था। हर बार लगा था, जैसे उसने जानबूझ कर शेखर को अपनी उपस्थिति का एहसास कराना चाहा था। सिर्फ एहसास ही नहीं कराना चाहा था, बल्कि उसके मन में अपने प्रति डर भी पैदा कराना चाहा था।

दो दिन पहले ही जब वह सिलीगुड़ी में हिलकार्ट रोड से काम निपटा कर अपने होटल को पैदल लौट रहा था, फर्राटे से लहराती हुई एक कार उससे लगभग सट कर बड़े खतरनाक तरीके से आगे निकली थी। एक क्षण को हड़बड़ा उठा था वह। कार आगे जाकर वापस मुड़ी और उसे चला रहे आदमी ने रोड के परली तरफ पहुँच कर थोड़ी देर के लिए कार को बिलकुल धीमा किया फिर ज़ोर से हार्न बजा, विंडो ग्लास को नीचे करते हुये उसे बड़े ही ठंडे व हिंसक निगाहों से ताका था। हड़बड़ाया शेखर समझ ही न पाया कि उस गाड़ी वाले की इस हरकत पर कैसे रिएक्ट करे। यह वही आदमी था जो उससे और दो ही दिन पहले कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में भी बड़े नाटकीय ढंग से अपनी जलती सिगरेट उसके हाथ में छुआ कर आगे बढ़ा था, फिर मुड़ कर इसी तरह बड़े ठंडे हिंसक निगाहों से उसे ताका था। उसकी उन हिंसक नजरों को देख सकपकाया शेखर उसे कुछ भी कहने का साहस नहीं कर पाया था। जलती सिगरेट के छुवन से हाथ में हुई जलन दिल तक जा पहुंची थी उस शाम। एक कचोट सी जागी थी, क्यों कुछ भी न कह पाया उस बदतमीज आदमी को।
और आज फिर वही था।

‘पर क्यों….. और कौन है यह अजनबी जो बार- बार इस तरह उसके सामने आ रहा है?’ – बाहर निकलते हुये शेखर के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं। गुवाहाटी में काम शुरू करते समय कई परिचित लोगों ने उसे स्थानीय परिस्थितियों के प्रति आगाह किया था। कहीं यह उस तरह का कुछ तो नहीं…. या फिर माजरा कुछ और है?

आकाश का सूर्य उस समय थोड़ा बूढ़ा हो चला था, जब लो- कास्ट एयरलाइंस के विमान ने सिलीगुड़ी से आसाम की राजधानी गुवाहाटी के लिए उड़ान भरी थी। सिलीगुड़ी- उत्तरी बंगाल का वह अत्यंत महत्वपूर्ण शहर, जो देश के पूरे उत्तर- पूर्व भूभाग को शेष देश से जोड़ता है। उड़ान भरने के थोड़ी ही देर में विमान के रास्ते में बायीं ओर हिमालय पर्वत शृंखला की बर्फ ढँकी, शुभ्र- धवल चोटियाँ नजर आने लगीं थी। विमान के अंदर बैठे हर किसी का ध्यान उन पर्वतों पर पड़ रही साँझ के सूर्य किरणों से पैदा हुये स्वर्णिम जादू की ओर बरबस खिंच गया था।

जहाज के विंडो से शेखर ने मुग्ध होकर वह खूबसूरत नज़ारा देखा और एकबारगी अपने कई दिनों के यात्रा की थकान भूल गया।

रायपुर से कोलकाता और कोलकाता से सिलीगुड़ी होकर गुवाहाटी- लोहे के दलाली के व्यापार के चलते अक्सर कई- कई दिनों के लिए शहर दर शहर घूमना शेखर की मजबूरी है। साथ ही जाना पड़ता है उड़ीसा के बडबिल तक, वहाँ के अवैध खदानों से निकाले गए लौह अयस्क को रायपुर के कई छोटे– बड़े निजी कारखानों को बेचने की दलाली के सिलसिले में। इस धंधे में पैसा बहुत है, पर व्यस्तता खून चूस लेती है। जब वह लोहे की दलाली के इस धंधे में आया था, उस समय पंजाब का मंडीगोविंदगढ़ देश में लोहे की सबसे बड़ी मंडी के रूप में जाना जाता था। दस बरस से अधिक हुये, जबसे रायपुर ने मंडीगोविंदगढ़ से उसका स्थान छीना, शेखर ने भी अपना ठिकाना लुधियाना से रायपुर कर लिया। इस बार भी उसी सिलसिले में वह रायपुर से कोलकाता और सिलीगुड़ी होकर गुवाहाटी जाने के लिए निकला था।

“तुम्हें एयर ट्रेवल में बोरियत नहीं होती? उसमें ट्रेन ट्रेवल जैसा आराम और मजा कहाँ! एयर ट्रेवल में थोड़ा समय कम जरूर लगता है, किन्तु उसमें न तो वेंडरों तथा हाकरों की पहुँच है और न ही सह यात्रियों की आत्मीयता। हवाई यात्रा मुझे तो बिलकुल नहीं सुहाती।” – अनुभा ने इस बार भी रायपुर से निकलते समय उसे छेड़ा था।

“पता नहीं तुम्हें हवाई सफर को लेकर क्या कॉम्प्लेक्स है, जो लगभग हर बार यह कहना भूलती नहीं हो।” – सामान पैक करते हुए शेखर थोड़ा चिढ़ा था।

“और नहीं तो। एयर ट्रेवल का मतलब है उबाऊ सुरक्षा जांच, लिपे-पुते चहरेवाली ग्राउंड व एयर होस्टेसों की कृत्रिम मुस्कानें और कानों को असहज लगने वाली उनकी अजीब सी उच्चारण शैली की हिन्दी। साथ में बीच- बीच में काकपिट में बैठे पायलटों की ओर से बोझिल और अस्पष्ट स्वर में आने वाली सूचनायें। ऐसा लगता है जैसे भारी भरकम हवाई जहाज को उड़ाते हुये वे इतने थक गए हैं कि ठीक से बोलने में भी तकलीफ हो रही है।” – शेखर के चिढ़ने का आनंद लेते हुये अनुभा ने कहा।

“और एयरपोर्ट में जो एक से एक हसीन मुसाफिरों का रंगीन मेला लगता है, वह?”- शेखर ने अपने चिढ़ को दरकिनार करते हुये अनुभा के शरारत का हिस्सा बनते हुये मुस्कुरा कर पूछा था।

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं! एयर ट्रेवल का वह भी मतलब है, पर सिर्फ तुम्हारे लिए। हसीनों का रंगीन मेला …अं हं… दूर के ढ़ोल सभी को सुहाने लगते हैं। मर्द हो न, मर्दों को दूसरे की थाली के व्यंजन अपनी थाली में परोसे हुये व्यंजनों से हमेशा ज्यादा लुभाते हैं!”- अनुभा हँसती हुई बोली थी।

“ऐसा…….”

“और नहीं तो! बस मौका मिलना चाहिए, अपनी थाली में एक से अधिक पकवान भरना तो क्या दूसरे की थाली को भी अपनी ओर सरकाने में कोई संकोच नहीं होता तुम मर्दों को।”

गुवाहाटी एयरपोर्ट से लगेज की ट्राली लेकर बाहर निकलते हुये शेखर को अनुभा के साथ हुये मीठी नोंक-झोंक की याद आ गयी।

‘अनुभा का सोचना ठीक ही है। तुम बिगड़ चुके हो शेखर’- पौलोमी को देख कर मन में छुपे चोर ने उससे चुहल करते हुये कहा।

“हाय शेखर, वेलकम टू गुवाहाटी। इस बार कितने दिन लगा दिये मेरे पास आने में।”- मुस्कुराती पौलोमी ने उसके गले से लग कर उसका स्वागत किया और कान के पास धीरे से बोली।

“हाँ यार, इस बार थोड़ा लंबा अर्सा हो गया है। वैसे तुम बड़ी खूबसूरत लग रही हो।”- शेखर अपनी चिंता और पत्नी की यादों को एक तरफ ठेलता हुआ मुस्कुराया।

“हर बार घर में एक नया झूठ बोल कर निकलना पड़ता है, तुम्हारे साथ रहने के लिये। इस बार बिहू डांस अकादमी का काम आगे बढ़ाने के लिए जाने का बोल कर आयी हूँ।”

– टैक्सी के बैक सीट पर शेखर के साथ सट कर बैठ चहकी पौलोमी। सट कर बैठने के साथ ही टैक्सी ड्राइवर की उपस्थिति को पूरी तरह नजरअंदाज़ करते हुये उसने अपने शरीर का पूरा भार शेखर पर डाल दिया।

प्रत्युत्तर में शेखर ने उसके जांघ पर अपने हाथ का दबाव बनाया और उसे गहरी नजरों से देखकर मुस्कुराया।

गुवाहाटी एयरपोर्ट से शहर के अंदर आने वाले रास्ते में शाम के समय अक्सर जाम लग जाता है। पान बाजार तक पहुँचने में टैक्सी को कई एक जगह रुकना पड़ा। टैक्सी जब होटल पहुंची, रात का अंधेरा गहराने लगा था।

“क्या बात है, कुछ चिंतित व परेशान लग रहे हो?”- कपड़े बदल पौलोमी उसके पास आ खड़ी हुई।

“नहीं तो! जब तुम्हारे जैसी मीठी और सुंदर दोस्त का साथ हो तो मन में चिंता नहीं कामनाएँ मचलती हैं। आज कितनी सुंदर लग रही हो। सच कहूँ, मैं जितनी बार तुम्हें देखता हूँ, हर बार तुम कुछ और ज्यादा सुंदर लगती हो।”- पौलोमी को बिस्तर पर अपनी ओर खींचता हुआ वह बोला।

पर सच वही था, जो पौलोमी ने महसूस किया था। वह सचमुच तनाव में था। पर उसने पौलोमी को उस अंजान आदमी के बारे में कुछ बतलाना नहीं उचित नहीं समझा। परेशानी इस बात की थी कि वह आदमी उसे ट्रेफिक जाम में भी दिखा था। शेखर के मन में चिंता व आशंका के बादल उमड़ने घुमड़ने लगे थे। ….‘कौन है वह व्यक्ति और मुझसे क्या चाहता है?…. कहीं मुझे उससे कोई खतरा तो नहीं?

शेखर को गुवाहाटी में केवल एक दिन का काम था, किन्तु पौलोमी के साथ रहने के लिए उसने तीन दिनों के टूर के हिसाब से प्लेन का वापसी टिकट बुक किया था। पिछले एक बरस से यही करता आ रहा है वह। पर क्या पता था, इस बार कोई एक अनजाना आतंक बुरी तरह उसके दिल- दिमाग पर छा जाएगा।

अगली सुबह वह नहा- धो कर पौलोमी के साथ माँ कामाख्या के दर्शन के लिए निकला। गुवाहाटी शहर के बीच ऊंचे पहाड़ी पर स्थित शक्तिपीठ के रूप में विख्यात कामाख्या के मंदिर में हर बार की तरह इस बार भी दर्शन की लंबी लाईन थी। वहाँ दर्शन हेतु गर्भगृह तक पहुंचने में काफी वक्त लग गया। अंधेरे गर्भगृह में दीपकों के मद्धिम आलोक में योनिरुपा माँ के दर्शन कर जब दोनों बाहर आए तो पौलोमी ने हैरानी से उसकी ओर देखा और उसे एक ओर खींचती हुई बोली- “तुम्हारे कपड़ों पर ये क्या लगा है? मंदिर के अंदर जाते समय तो सब ठीक था।”

शेखर ने चौंक कर देखा। उसका सारा कपड़ा खून व किसी पक्षी के पर से सना था।

“ये तो कबूतर के पंख लग रहे हैं। गर्भगृह के अंदर कैसे लगा यह सब? लगता है देवी को दी गई बलि का रक्त लगा है।”- कपड़ों पर लगे खून से असहज होते हुये शेखर ने कहा।

“सुनो, गर्भगृह के भीतर खून लगाना संभव नहीं है। यह ठीक है कि कामाख्या मंदिर परिसर में आज भी बलिप्रथा जारी है और बकरों तथा कबूतरों की बलि दी जाती है। पर बलि का स्थान मंदिर के बाहर है और गर्भगृह में रक्त या बलि का प्रवेश निषिद्ध है।”-

पौलोमी ने कहा तो शेखर की हैरानी चिंता में बदलने लगी थी। फिर कहाँ से लगा इतना खून उसके कपड़े पर? चिंतित मन की सोच अनायास ही उस अजनबी तक जा पहुँची थी। कहीं ये उसकी या उसके किसी आदमी की हरकत तो नहीं? पता नहीं क्या अर्थ छुपा है इसके पीछे?
शेखर मंदिर से बड़े भारी मन से लौटा। वहाँ से लौटने के बाद उसके मन में हर पल एक धुकधुकी सी लगी रही, कहीं वह अजनबी फिर से न टकरा जाये या कुछ अनिष्ट न घट जाये!
पर तीन दिन बिना किसी अनहोनी के कट गए। न तो होटल में और न ही बाजार में वह आदमी फिर नजर आया।
आज की रात पौलोमी के साथ उसकी इस बार की आखिरी रात थी।

“क्या बात है, आज बड़े खुशनुमा मूड में हो। मुझसे मुक्ति पाकर बीबी के पास जा रहे हो इसीलिए?” – पौलोमी का स्वर कुछ उखड़ा हुआ था। दिन भर वह शेखर के साथ ही थी। होटल के कमरे में लौटते ही उसने चेंज किया और बिस्तर में शेखर के पास आकर लेट गई। झीने पारदर्शी नाइटी में वह बड़ी खूबसूरत लग रही थी।
शाम से ही वह थोड़ी अपसेट थी।

“पगली, हमारी दोस्ती अपनी जगह है तथा मेरी शादीशुदा जिंदगी अपनी जगह। तुम मेरे लिए बहुत स्पेशल हो, यह तुम भी जानती हो।” – शेखर ने उसे अपने पास खींचा। पारदर्शी नाइटी से झाँकता पौलोमी के यौवन का वैभव उसकी कामनाओं को आंदोलित करने लगा था।

पौलोमी ने उसका हाथ अपने शरीर से हटाया और उठ कर बैठ गई।

“क्या हुआ, इस तरह उठ कर बैठ गई?”

“मुझे तुमसे कुछ कहना है।” – उसने शेखर का हाथ अपने हाथों में लेते हुये कहा।

हैरान शेखर भी उठ बैठा। पिछले एक बरस के संबंध के दौरान हर बार गुवाहाटी से वापसी पर पौलोमी ने हमेशा उसे अच्छे मन से विदा किया है। वह कभी भी इस तरह तो बर्ताव नहीं करती।

“आने वाले खतरों से सावधान रहना” – बिना किसी भूमिका के उसने कहा। शेखर के हाथों को उसने ज़ोर से थाम लिया था। वह तनाव में लग रही थी।

“क्यों क्या हुआ, ऐसे क्यों बोल रही हो?” – शेखर का दिल ज़ोर से धड़का।

वह चुप रही। …….चुप्पी भी ऐसी गहरी कि शेखर सिहर उठा।

“कुछ बोलो भी। तुम इतनी परेशान क्यों हो?”

बिना कोई जवाब दिये वह खामोश बैठी रही। उसकी खामोशी से होटल के कमरे का सारा माहौल बोझिल हो उठा।
थोड़ी देर बाद वह बिस्तर से नीचे उतरी और टेबल पर रखे मिनरल वाटर के बोतल को उठा पानी गटकते हुये बिस्तर तक वापस आ शेखर के पास बैठ गई।

उसने खुद को वह संयत कर लिया था।

“तुम्हें पता है, कल उल्फ़ा ने असम बंद का आह्वान किया है। तुम्हारी फ्लाइट कल दोपहर तीन बजे है, परंतु अच्छा होगा यदि तुम सुबह आठ बजे से पहले एयरपोर्ट के लिए निकल जाओ। दोपहर को कोई भी टैक्सी वाला तुम्हें एयरपोर्ट तक ले जाने का रिस्क नहीं उठायेगा। मैं भी तुम्हारे साथ नहीं जा पाऊँगी।” – शेखर के बालों पर हाथ फिराते हुये उसने कहा।

“परंतु मैं दिन भर वहाँ अकेला बैठ कर करूंगा क्या?” – शेखर परेशान हो उठा। उसे लगा जैसे कुछ क्षणों पहले पौलोमी कहना कुछ और चाह रही थी, पर अब कह कुछ और रही है।

“स्वीट हार्ट, वहाँ बैठ कर मुझे याद करना और क्या!” – पौलोमी ने ठिठोली करते हुये कहा।

“दिन भर वहाँ बैठे- बैठे मैं पागल हो जाऊंगा।” – शेखर और अधिक परेशान हो उठा।

शेखर की बात सुनकर पौलोमी गंभीर हो उठी। वह शेखर के हाथों को हल्के से सहलाते हुये बोली –

“तुम अकेले नहीं हो, जिसे इस बंद से परेशानी होगी। पिछले पैंतीस बरसों से असम के लोग इस परेशानी के साथ जी रहे हैं। उल्फ़ा कभी भी बंद की घोषणा कर देता है। उल्फ़ा को पहले- पहल लोगों का समर्थन भी मिला, क्योंकि वे लोग असम की संप्रभुता और स्वायत्तता की बात करते थे। किन्तु बाद में वे अलगाववाद की बात करने लगे। इस लक्ष्य को पाने के लिए सशस्त्र हिंसा का जो तरीका उन लोगों ने चुना, वह बहुत जल्दी सबके लिए परेशानी का सबब बन गया।”

शेखर के परेशानी को चिंतन की दिशा मिली।

“जानती हो दो बरस पहले जब मैंने यहाँ धंधे के सिलसिले में आने का मन बनाया, लोगों ने मुझे उल्फ़ा के बारे में बतलाते हुये सावधान किया था। उल्फ़ा के अलगाववादी आंदोलन, उस आंदोलन से फैली हिंसा और इस कारण उस पर लगे प्रतिबंध के बारे में बहुत पहले से पढ़ता- सुनता रहा हूँ, किन्तु उसके लोग बाहर से असम में धंधा- पानी करने आए लोगों को धमका कर पैसों की भारी वसूली करते हैं, पहले पता नहीं था।”

  • पौलोमी से यह कहते हुये शेखर को अचानक वह अजनबी याद आ गया और एक झुरझुरी सी पूरे शरीर में दौड़ गयी।

मन में एक भयप्रद आशंका ने जाग कर करवट ली- ‘कहीं वह उल्फ़ा के लोगों की नज़र में तो नहीं आ गया? अगर आ गया है तो अब तक उन्होने रुपये- पैसे की बात क्यों नहीं की? या फिर माजरा कुछ और है? कहीं अवैध लौह अयस्क की दलाली में उसकी बढ़ती पैठ से जलभुन कर कोई उसे इस रास्ते से हटाने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? क्या वह सुरक्षित वापस जा पाएगा? पौलोमी ने उसे सावधान रहने के लिए क्यों कहा, क्या वह इस बारे में कुछ जानती है? कहीं पौलोमी से उसकी अंतरंगता किसी को खटक तो नहीं रही! और अगर खटक रही है तो किसे?’

“तुम इतने परेशान क्यों हो उठे हो? चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा। यहाँ मैं हूँ ना। डियर, कल एयरपोर्ट में कुछ घंटे ही बोरियत के होंगे। फिर तुम पढ़ने का शौक भी रखते हो। बैठकर पढ़ते रहना।” – पौलोमी उसके छाती पर हौले से अपना सिर रखते हुये बोली।

पुरातन समय से ही पुरुष को तनाव से मुक्ति के लिए नारी संसर्ग की कामना होती रही है। शेखर ने पौलोमी को अपने पास खींच लिया। वह भी बड़े आकुल भाव से उससे लिपट पड़ी।
तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई।

‘कौन होगा…….?’- आशंका ने फिर सिर उठाया।

पौलोमी झटके से उठी और बाथरूम के भीतर चली गयी। उसके पारदर्शी नाइटी से उसके मादक अंग बे-लिहाज झांक-ताक कर रहे थे और उस ड्रेस में उसका किसी के सामने आना संभव न था। अपने कपड़े ठीक करते हुये शेखर ने कमरे का दरवाजा खोला।

दरवाजे पर होटल का सर्विस स्टाफ खड़ा था। शेखर ने उसे प्रश्न भरी निगाहों से देखा।

“सारी सर, अभी- अभी एक सज्जन आपको देने के लिए यह एक लिफाफा दे कर गए हैं। कहा कि अर्जेंट है, इसीलिए इस वक्त आना पड़ा।”

“ठीक है, थैंक्स” – औपचारिक मुस्कान के साथ शेखर ने लिफाफा लिया और दरवाजा बंद कर दिया।

“कौन था और क्यों आया था?” – पौलोमी बाथरूम से वापस बाहर आई।

“होटल स्टाफ था। हम चेक- आउट कब करेंगे, यह पूछने आया था।” – शेखर ने झूठ बोला। पौलोमी से उसने लिफाफे की बात छुपा ली। पौलोमी के बाथरूम से बाहर आने तक वह लिफाफे को बिना खोले ही अपने बैग में रख चुका था।

“उसे इसी वक्त आना था। सारा मजा खराब कर दिया।” – अलस भाव से वापस बिस्तर पर लेटती हुई वह बोली। उसके समस्त हाव भावों में शेखर के लिए आतुर निमंत्रण था। शेखर भी यंत्रवत उसके पास आ लेटा।

पर पौलोमी का साथ उसे चिंतामुक्त नहीं कर पाया। … पता नहीं क्या आफत आने वाली है।
किन्तु आफत जैसी बला भी क्या कभी बता कर आती है!

गुवाहाटी एयरपोर्ट पहुँच कर उसने अपने बैग से वह लिफाफा निकाला, जो उसके मन में लगातार उत्सुकता तथा आशंका जगा रहा था। टैक्सी में बैठ एक बार उसकी इच्छा हुई, उसे निकाल कर देखे। फिर सावधानी बरतते हुये उसने एयरपोर्ट तक इंतज़ार करना बेहतर समझा। क्या पता ड्राइवर से उस अजनबी की कोई मिलीभगत हो!

शेखर के हाथ का लिफाफा खाकी रंग का साधारण लिफाफा था। लिफाफे के अंदर हल्के गुलाबी रंग का एक पेज था, जो बाजार के आम स्टेशनरी दुकानों में मिलने वाले प्रिंटेड राइटिंग पैड से निकाला गया लग रहा था। उस पेज को देखकर शेखर को धक्का सा लगा। ताज्जुब की बात थी, उस कागज में कुछ भी नहीं लिखा था। सिर्फ बना हुआ था एक बड़ा सा कट का निशान, ठीक वैसे जैसे गणित में गुणा का चिन्ह होता है।

क्या अर्थ है इस पत्र का? क्या मतलब है कट के निशान का? किसने भेजा होगा ऐसा पत्र और क्यों? पहले एक अजनबी का कोलकाता, सिलीगुड़ी और यहाँ गुवाहाटी तक पीछा करना, फिर मंदिर में रहस्यमय तरीके से कपड़ों पर खून लगाना और अब यह रहस्यमय लिफाफा।….. उसने फिर एक बार सोचा, किन्तु उसे समझ में नहीं आया कि उसके साथ चल क्या रहा है। उसके भयभीत सोच अनायास ही असमंजस की स्थिति तक जा पहुंची। क्या उल्फ़ा के लोग उसे डरा- धमका रहे हैं? या फिर नक्सली लोग तो पीछे नहीं पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में वे भी तो ऐसा ही कुछ कर रहे हैं। या फिर अनुभा पौलोमी के साथ उसके संबंध को ताड़ गई है और वह यह सब कर करवा रही है, ताकि वह डर कर गुवाहाटी आना छोड़ दे? या इन सबसे अलग माज़रा कुछ और ही है?

उसका सिर घूम गया। मन ने दिलासा देते हुये कहा ‘हो सकता है, अनुभा को पौलोमी के साथ उसकी अंतरंगता का पता चल गया हो, पर कुछ भी हो अनुभा उसका अनिष्ट नहीं करेगी।‘ दूसरे ही क्षण मन में दुबक कर बैठे भय ने धीरे से पूछा ‘उसके बजाय कोई दूसरा इसके पीछे हुआ तो…?’
उसने परेशान हो इधर- उधर देखा। उसे इक्का- दुक्का यात्रियों, अलग- अलग एयरलाइन्स के कुछ- एक कर्मियों और चाक- चौबंद सुरक्षा कर्मियों के अलावा कोई भी ऐसा न दिखा जिस पर कोई संदेह होता। सब अपने में व्यस्त थे। ऐसा कोई भी न था, जिसका ध्यान उस पर होता।
काफी देर तक डरा- सहमा बैठा रहा वह। उसे अनुभा व गुड़िया की याद बुरी तरह आने लगी थी। आशंका ने सिर उठा का पूछा-

“क्यों शेखर, परिवार तक सुरक्षित पहुँच पाओगे तो?”

अपना ध्यान बंटाने के लिए उसने बैग से अपने प्रिय लेखक पाउलो कोएलो के उपन्यास जाहिर को निकाला और पढ़ने की कोशिश करने लगा। धीरे- धीरे मन शांत हुआ तो लगा, अभी तात्कालिक रूप से कोई खतरा नहीं। एयरपोर्ट की सुरक्षा व्यवस्था के चलते मन में एक आश्वस्ति जागने लगी- ‘इस सुरक्षा घेरे में वह सुरक्षित है।’

उसने तय कर लिया कोलकाता एयरपोर्ट में भी वह इस सुरक्षा घेरे से बाहर नहीं निकलेगा। पता नहीं वहाँ क्या कुछ घट जाए!

कोलकाता से उड़ान भरने वाले जहाज ने जब रायपुर के जमीन को स्पर्श किया, भयभीत- आशंकित शेखर का मन गहरे सुकून से भर उठा। निर्विघ्न वापसी यात्रा के बाद अपनी जगह, अपने लोगों के बीच सुरक्षित होने का एहसास उसे राहत देने लगा। अब भय की कोई बात नहीं।

एयरपोर्ट के बाहर सहदेव कार लेकर खड़ा था। उसे देख शेखर प्रसन्न हो गया। उसे आज पहली बार सहदेव ऑफिस स्टाफ के बजाय कोई बहुत करीब का आत्मीय लगा।

“क्या चल रहा है सहदेव? सब ठीक है?”

  • कार की पिछली सीट पर अपना हेंडबैग फेंकते हुये शेखर ने पूछा। खुशी से झूमते निश्चिंत मन के मनोदशा की झलक शेखर के स्वर में थी। हालांकि ये पूछने का कोई औचित्य नहीं था। वह कहीं भी हो, उसका स्टाफ हर सुबह- शाम मोबाइल फोन पर उसे अपडेट करता ही है।

“जी, सब ठीक है भैया”- कार की डिक्की में शेखर का सामान रख वापस ड्राइवर सीट पर बैठ गाड़ी स्टार्ट करता हुआ सहदेव हल्की मुस्कान के साथ बोला।

पिछले चालीस- पचास बरसों में पश्चिम उड़ीसा के अल्प विकसित खरियार रोड- कांटाबांजी इलाके के सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के हजारों लोगों ने रोजगार की तलाश में पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के रायपुर की ओर रुख किया है। सालों से रिक्शा चलाते, दुकानों, अस्पतालों, होटलों और लोगों के घरों में काम करते या ऐसे ही दूसरे छोटे- मोटे धंधे करते हुये ये लोग धीरे- धीरे रायपुर की आबादी का हिस्सा बन गए हैं। इन लोगों ने पहले- पहल शहर से जुड़े जिन बाहरी क्षेत्रों को अपना ठिकाना बनाया था, वे ठिकाने अब शहर के अंदर आ गए हैं। न केवल अंदर आ गए हैं, वरन कुछ एक पाश कालोनियों का हिस्सा बन रेशम पर टाट के पैबंद की तरह उन्हें अपनी उपस्थिति का एहसास करा रहे हैं। शेखर के पास पिछले पाँच सालों से काम कर रहा सहदेव उन्हीं लोगों में से है। शेखर जिस शंकर नगर में रहता है, उससे लगे उड़िया श्रमिकों- कामगारों के छोटी- छोटी कई बस्तियों में से एक जगन्नाथ पारा का रहने वाला है सहदेव। रायपुर में ही पैदा हुआ सहदेव शेखर का ड्राइवर भी है और भरोसेमंद पर्सनल सेक्रेटरी भी।

अमूनन शेखर को एयरपोर्ट से सीधे जाने के बजाय, थोड़ी देर के लिए ऑफिस होते हुये घर जाना पसंद था। एयरपोर्ट से निकल वी आई पी रोड होकर कार जब शहर के बीच से गुजरने वाले हाईवे पर तेलीबांधा तक पहुंची, सहदेव ने हमेशा की तरह पूछ लिया-

“भैया, पहले ऑफिस जाएंगे न?”

अपने सकुशल वापसी पर प्रमुदित शेखर का ध्यान दूसरी तरफ था। बहुत दिनों के बाद उसने उन्मुक्त मन से कार के बाहर निहारा। दस बरस में रायपुर कितना बदल गया है। शहर लगातार बढ़ रहा है, तेजी से महानगरों की तर्ज़ पर विकसित हो रहा है। किन्तु ये सब किस कीमत पर? देश के दिल्ली, बंगलौर, गुवाहाटी, पुणे, नागपुर, भोपाल या भुवनेश्वर जैसे बड़े शहर हों या फिर रायपुर के रांची, राउरकेला, यहाँ तक कि भिलाई जैसे समीपवर्ती शहर, सभी ने विकास करते हुये भी अपनी हरीतिमा को सँजो रखने तथा उसे संवर्धित करने की दिशा में काम किया है। पर दूसरी ओर रायपुर क्रमश: अपनी हरियाली खो रहा है। विकास के नाम पर इस शहर में बड़े- बड़े पुराने वृक्षों को जिस बेरहमी से काटा जा रहा है, वह कहीं और होना संभव नहीं है।
सहदेव के प्रश्न से शेखर के चिंतन में बाधा पड़ी। अपने भावजगत से बाहर आते हुये उसने कहा-

”नहीं, घर चलो। आज ऑफिस जाने का मन नहीं है।”

सहदेव को आश्चर्य हुआ। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था। उसने चुपचाप गाड़ी को घर की ओर घुमा दिया।

शेखर का इस तरह सीधे घर आना अनुभा के लिए भी अचरज की बात हो गई। जरूर कुछ खास बात है, अन्यथा ऐसा नहीं होता। सालों से वह शेखर के एयरपोर्ट या रेलवे स्टेशन से सीधे ऑफिस और बाद में वहाँ से घर आने की आदी हो चुकी है। शेखर के लिए कारोबार पहले है, परिवार बाद में।

वह पानी का गिलास हाथ में ले शेखर के समीप पहुंची। उसके पास आते ही शेखर ने उसे अपनी बाहों में जकड़ किया। इस तरह, मानो कोई बहुमूल्य वस्तु खोते- खोते बच गई हो। अनुभा का अंतर सुखद विस्मय से भर गया। एक लंबे समय बाद शेखर के आलिंगन में वह बात थी, जो कहीं खो चुकी थी।

“छोड़ो, पानी छलक जाएगा।“- स्नेह भींगे स्वर में कहा उसने। मन के अंदर कुछ गलने लगा था।

अपने घर, अपने परिवार के बीच सुरक्षित वापस आने की आल्हाद भरी अनुभूति को शेखर अपने आलिंगन से व्यक्त कर रहा है, यह भला वह अनुभा को कैसे समझाये! उसने अनुभा को और कस कर आलिंगनबद्ध कर लिया।

“छोड़ो न, गुड़िया खेल कर आती ही होगी। उसके साथ में आया भी है।” – अनुभा ने हौले से कहा।

“यहाँ सब ठीक है तो?” – शेखर ने पूरी तृप्ति के साथ पत्नी को आलिंगन करके अपनी पकड़ ढीली की।

“हाँ बाबा, सब ठीक है। तुम फ्रेश हो लो, मैं नाश्ता लगाती हूँ।” – पानी का गिलास शेखर को पकड़ाते हुये अनुभा ने स्निग्ध स्वर में कहा। फिर जैसे उसे याद आया और उसने पूछा – “आज ऑफिस जाओगे?”

“नहीं यार, मन नहीं कर रहा है। गुड़िया आ जाए तो हम तीनों कहीं घूमने चलेंगे।”

शेखर आज कारोबार को भूल निपट घरेलू आदमी हो गया है, घर- परिवार का आदमी। खुश अनुभा शेखर के लिए नाश्ते की व्यवस्था करने चली गई। …. शेखर में ऐसा परिवर्तन जिस कारण से भी हुआ हो, आश्चर्यजनक रूप से आज का दिन बड़ा अच्छा है!

फ्रेश हो शेखर नाश्ता करने बैठा। अनुभा पास आ बैठी। दोनों इधर-उधर की बातें करने लगे। बातों के दौरान अनुभा को कुछ याद आया और उसने कहा-

“तुम्हें फोन पर बताना भूल गई थी, दो दिन हुये एक आदमी घर आया था तुम्हारे नाम की एक चिट्ठी देने के लिए।”

“कौन था?”

“पता नहीं, उसे पहले कभी नहीं देखा।”

“कैसा था दिखने में, चिट्ठी कहाँ है?” – अनुभा की बात सुन शेखर के गले में निवाला अटक गया। हठात उसे उस अजनबी की याद आई और वह घबरा कर खाना भूल गया।

“मोटा सा आदमी था, मझोले कद का। दिखने में अपने इधर का नहीं था। शायद नार्थ- ईस्ट की तरफ का होगा।”

“चिट्ठी कहाँ है, उसे तुमने खोल कर देखा नहीं?” – व्यग्र हो शेखर ने पूछा।

“लाती हूँ बाबा। मैंने कौन सी उसकी सब्जी बना ली है, जो इस तरह परेशान क्यों हो रहे हो! चिट्ठी तुम्हारे नाम की थी, इसीलिए मैंने उसे नहीं खोला।” – अनुभा उठती हुई बोली।

शेखर की आशंका सच थी।
चिट्ठी लेकर वापस आ अनुभा ने उसे उत्सुकता के साथ खोला और उसे शेखर को देते हुये आश्चर्य से बोली-

“अरे, इसमें तो कुछ भी नहीं लिखा है। अजीब सी बात है, इसमें सिर्फ एक बड़े से कट का निशान बना हुआ है।”

उसकी बात सुनते ही शेखर का कलेजा मुँह को आ गया। उसने देखा, साधारण खाकी रंग के लिफाफे के अंदर हल्के गुलाबी रंग का ठीक वैसा ही पेज था, जैसा गुवाहाटी के होटल में कोई दे कर गया था।

“क्या हुआ, अभी तो अच्छे थे, अचानक इस तरह क्यों दिख रहे हो? तबियत खराब लग रही है क्या?” – शेखर के फक पड़ गए चेहरे को देख चिंतित हो उठी अनुभा ने पूछा।

“कुछ भी तो नहीं। अचानक एक काम याद आ गया है, ऑफिस जाना होगा।” – शेखर ने बात को घुमाने की असफल कोशिश करते हुये कहा।….. वह परेशान हो उठा था, उस अजनबी आतंक के बारे में, जो उसके रायपुर तक आ धमका है?…. असम का उग्रवादी संगठन का कोई आदमी या फिर यहाँ के नक्सली ग्रुप का कोई, कौन हो सकता है?…. क्या खुद अनुभा पौलोमी से उसके संबंध को खत्म करने के लिए यह सब कर करवा रही है?

“अरे, तुम भी बड़े अजीब हो। अभी कह रहे थे हम माँ- बेटी के साथ घूमने जाओगे। अब कह रहे हो ऑफिस जाओगे। जब जैसी मन में आए, वैसी मनमानी करते रहते हो। किन्तु आज कहीं नहीं जाओगे, कहे देती हूँ। लम्बी यात्रा के कारण अगर तबियत खराब लग रही है तो घर में आराम करो।”- शेखर के अचानक बदले व्यवहार से चिढ़ उठी थी अनुभा।

“जाने दो प्लीज़। अचानक तबियत खराब क्यों लग रही है, डाक्टर को दिखा कर आता हूँ। मुझे आज खुद भी ऑफिस जाने का मन नहीं है। काम बहुत जरूरी है, लौटते समय केवल दस मिनट के लिए ऑफिस जाऊंगा।”

  • शेखर ने बड़े कातर स्वर में कहा।….. काश वह अनुभा को सब कुछ कह उसकी सलाह ले पाता! काश वह अपने मन में चल रहे द्वंद के बारे में बता पता। वह द्वंद जो एक पल के लिए अनुभा को संदिग्ध बनाने लगता है, दूसरे ही पल उस पर असीम भरोसा करता है। काश उसे कह पाता कि सारी परिस्थिति को समझने, सारे प्रश्नों का हल निकालने तथा इतनी सारी जटिलताओं का तोड़ निकालने के लिए उसे एकांत में बैठ कर सोचना होगा। और एकांत चिंतन के लिए उसके लिए अपने ऑफिस के चेम्बर से बेहतर और कोई नहीं।

अनुभा के विरोध, आक्रोश व चिड़चिड़ाहट को दरकिनार कर शेखर बिना कुछ कहे घर से निकल पड़ा। ….. पर अपनी शुरुवात कहाँ से करे वह? क्या पुलिस के पास जाना ठीक होगा? यदि गया तो अपने लोहे की दलाली के अवैध धंधे को उनसे कैसे छुपाएगा? पुलिस खोदेगी तो पौलोमी के साथ अपने रिश्ते की बात कैसे संभालेगा? और फिर किस मुंह से बतलाएगा अनुभा को पौलोमी के साथ अपने मौज- मस्ती की बात!

ऑफिस पहुंच कर उसने स्टाफ को एक गरम काफी लाने को कहा तथा अपने पुशबैक कुर्सी पर बैठ आँखें बंद कर ली। …. क्या वह अपनी शुरुवात पौलोमी से बात करके करे? आखिरी रात को वह तनाव में थी और उसने उसे सावधान रहने की सलाह दी थी। उसी ने सब ठीक हो जाने की बात कम से कम दो- तीन बार कही थी। क्यों व किस आधार पर कहा था उसने? शेखर ने तो उसे कुछ बतलाया नहीं था, फिर भी वह क्या ठीक हो जाने का दिलासा दे रही थी? खतरा है या हो सकता है और किससे हो सकता है, क्या उसे पता है?

शेखर ने पौलोमी को मोबाइल पर रिंग किया। पूरी घंटी जाने के बाद भी उसने काल अटेण्ड नहीं किया। शेखर ने सोचा, हो सकता है वह कहीं व्यस्त हो या फिर अभिमान कर रही हो कि उसके प्रियतम ने गुवाहाटी छोडने के बाद एक बार भी उसे फोन क्यों नहीं किया। थोड़ी देर बाद उसने दोबारा कॉल किया। इस बार पहली घंटी जाते ही उधर से कॉल को काट दिया गया। शेखर का माथा ठनका, पौलोमी ने पहले कभी ऐसा नहीं किया! उसने उसे फिर से कॉल किया। इस बार पौलोमी आउट ऑफ रीच थी। शेखर ने व्यग्र हो कई बार काल किया, किन्तु हर बार पौलोमी संपर्क से बाहर थी। शेखर के मन में नए सिरे से नाना दुश्चिंताए आने लगीं। ….. पता नहीं क्या कुछ घट रहा है।

उलझन सुलझाने का सबसे पहला सूत्र ही उलझ गया, अब क्या किया जाए? ….. दिमाग ने मानो काम करना बंद सा कर दिया है, कहीं कुछ सूझ नहीं रहा। शेखर चिंताग्रस्त हो ऑफिस में तब तक बैठा रहा, जब तक कि घर से अनुभा का कड़ा बुलावा नहीं न आ गया। निरुपाय हो उसने सहदेव को गाड़ी लाने को कहा, वापस जाना ही होगा। सहदेव कार ले आया । थका – हारा शेखर निढाल हो कार की पिछली सीट पर पसर गया।

सहदेव ने कार को घर में लाकर खड़ा किया। कार से उतर शेखर सीधे बेडरूम पहुंचा। वह तन – मन से थका- हारा हुआ था। अनुभा ने जैसे ही उसे थामा, वह निढाल सा बिस्तर पर गिर कर ऐसा सो गया, जैसे बरसों से सोया ही नहीं हो। उसे इस तरह निढाल हो सोता देख हैरान, परेशान अनुभा देर रात तक जागती रही यह समझने के लिए कि आखिर उसके शेखर को हुआ क्या है!
भोर रात में शेखर की नींद टूटी। देखा, बगल में गुड़िया सोयी हुई थी। अनुभा बिस्तर पर ही तकिये की टेक लगा बैठे- बैठे सो गयी थी। उसने सोने के पहले कपड़े भी नहीं बदले थे।

…..बेचारी रात भर मेरे लिए परेशान होती रही। तय बात है कि इसे कुछ भी नहीं पता। अन्यथा वह मेरे सामने इतनी अबोध सी नहीं सोती, और अब तक घर में तूफान उठा चुकी होती।…. शेखर ने सोचा और लेटे ही लेटे अनमने ढंग से मोबाइल को देखा। मोबाइल में एक मैसेज था। पौलोमी ने मैसेज किया था देर रात को। यह देखते ही वह लगभग उछल कर उठ बैठा। यह तो कल्पना से परे बात थी। मैसेज काफी लंबा था। उतावला हो शेखर मोबाइल ले बिस्तर से उतरा और बेडरूम से बाहर जा एक सांस में उस मैसेज को पढ़ने लगा। पौलोमी ने लिखा था-

‘स्वीट हार्ट, इस बार यहाँ से जाने के बाद तुमने मुझे याद तक नहीं किया। मैंने सोच कर रखा था, जब भी कॉल करोगे तुमसे बात नहीं करूंगी, तुम्हें सजा दूँगी। फिर जब तुम गिड़गिड़ाओगे मैं मान जाऊँगी। किन्तु पिछले दो- तीन घंटों में यहाँ मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद तुमसे रूठना और तुम्हारा मुझे मनाना अब कभी नहीं होगा। मैं तुमसे यह अंतिम बार संपर्क कर रही हूँ। तुम्हें यह मैसेज भेजने के बाद मेरा यह सिम हमेशा के लिए बंद हो जाएगा तथा मैं हमेशा के लिए तुम्हारी दुनिया से दूर चली जाऊँगी। मैं नहीं जानती तुम मुझे याद रखोगे या नहीं, किन्तु तुम हमेशा मेरी मधुर स्मृतियों में रहोगे।

पिछले एक साल में हमारी दोस्ती के दौरान जो सुख, जो आनंद तुमने मुझे दिया है, उसके लिए मैं जिंदगी भर तरसती रही थी। उस सुख को पाते रहने के लिए ही मैंने तुमसे यह छुपाया था कि मैं शादीशुदा हूँ। किशन गोगोई, वही आदमी जिसने तरह- तरह से तुम्हारे मन में आतंक पैदा कर तुम्हारी सुख- शांति को छीन लिया है, मेरा पति है। दो साल पहले ही उससे मेरी शादी हुई थी और शादी के केवल आठ महीने में ही उसके बहुत खराब व्यवहार के चलते मैं उससे अलग रहने लगी थी। पति का प्यार, उसका दुलार मैंने कभी नहीं जाना। उसके रूप में जाना पति का मतलब होता है, असहनीय शारीरिक और मानसिक अत्याचार। उससे अलग होने के बाद भी वह मुझे हर तरह से परेशान करता रहा है। वह चाहता है, मैं वापस उसके साथ रहने लगूँ। जब तुम मिले, तब मैं टूटी हुई थी, अकेलेपन से जूझ रही थी। तुमने मुझे जीवन दिया, उसकी खुशियाँ दी। मैं फिर जी उठी थी। पर उसे हमारी दोस्ती का पता चल चुका है। उसे यह सब सहन नहीं हो रहा है।

इस बार से पहले जब तुम यहाँ आए थे, उसने हमें एक साथ देख लिया था। उसके बाद वह हमारा पीछा करता हुआ होटल तक पहुँच गया था। वहाँ से उसने तुम्हारे रायपुर का पता- ठिकाना जान लिया और रायपुर पहुँच गया। उस बार वह तुम्हारे घर व ऑफिस तक हो आया था। यह सब बातें मुझे अभी कुछ देर पहले ही पता चली हैं। उस समय जब तुम्हारा पहला फोन आया, किशन मेरे साथ था, मुझे धमका रहा था। उसी ने तुम्हारे दूसरे बार किए गए फोन को काट कर मोबाइल से उसकी बैटरी निकाल दी थी।

बावजूद इसके कि तुम उसके टार्गेट नहीं हो, उसने तुम्हें नुकसान पहुंचाने के लिए कोई बड़ी योजना बनाई है। मुझे अपने साथ रहने को मजबूर करने के लिए किशन तुम्हें परेशान कर रहा है, क्योंकि उसे मालूम है कि मैं तुम्हारा अहित होता नहीं देख सकती। वहाँ रायपुर में तुम्हारा कोई करीबी है, जो पैसों के लालच में उसे तुम्हारे बारे में पूरी जानकारी देता है। इस बार के तुम्हारे कोलकाता-गुवाहाटी प्रवास की पूरी जानकारी किशन के पास थी। मुझे अभी पता चला कि जब तुम यहाँ थे और वह दो दिनों में रायपुर हो आया था। उसी जानकारी के चलते वह तुम्हें तरह- तरह से परेशान कर रहा था। तुम परेशान हो रहे थे, किन्तु पता नहीं क्यों तुमने मुझे बतलाना जरूरी नहीं समझा।

उसे मैंने तुम्हारे प्रवास के अंतिम शाम को देखा। उस रात मैं पहले तनाव में आ गयी थी। वह किस हद तक जा सकता है, यह मुझसे बेहतर और कौन समझ सकता है। फिर निर्णय लिया था तुम्हें किसी भी कीमत पर सुरक्षित रखूंगी। अब उस निर्णय को अमल में लाने का वक्त आ गया है। कुछ देर पहले ही मैंने वापस किशन के साथ रहने का फैसला लिया है। मैं यह मैसेज तुम्हें भेज पा रही हूँ क्योंकि वह बार तक गया है, शराब पीकर मुझ पर अपने जीत की खुशी मनाने। अपने जीत के अहंकार में उसने मुझे सब बतलाया, पर उसे तुम्हारी खबर देने वाला कौन है, यह नहीं बतलाया। उसकी बातों से मैं सिर्फ इतना जान पाई कि वह आदमी रायपुर के किसी वास्कोडिगामा गली का रहने वाला है। सावधान रहना, खतरा अभी भी है। तुम हमेशा मेरे हृदय में रहोगे।’

शेखर के मन में एक टीस उठी। मैसेज पढ़ना खत्म कर उसने व्यग्र भाव से पौलोमी को काल बैक किया। उसका फोन बंद था।
‘आह: पौलोमी चली गयी हमेशा के लिए। उसने उसके लिए यह कैसी कुर्बानी दी है? क्या था उसके मन में? क्या उसने ऐसा सिर्फ उससे मिली खुशी के अहसान का बदला चुकाने के लिए किया या फिर वह उससे प्रेम करने लगी थी? ऐसा प्रेम, जिसका इजहार उसने कभी भी नहीं किया, आज भी नहीं। क्यों नहीं समझ सका वह पौलोमी की भावनाओं को?’

निराश शेखर ने बाहर देखा। बाहर अंधकार था, ठीक उसके हृदय में छाए अंधकार की तरह। ऐसा अंधकार, जिसकी कालिमा को उसके अलावा कोई और नहीं देख सकता, अनुभा भी नहीं।….. उसने बुझे मन से पौलोमी का मैसेज अपने मोबाइल से डिलीट कर दिया और वापस बेडरूम में आ कर लेट गया।

सुबह की रोशनी रात के कालिमा को दूर ठेलती हुई आई। अधसोया शेखर अलसुबह जाग गया। जागते ही सबसे पहले उसे पौलोमी की बात याद आई, ‘सावधान रहना, खतरा अभी भी है।’

हाँ, उसे सावधान रहना ही होगा। पौलोमी के कारण अब उसे कम से कम खतरे को समझने, भाँपने और उससे निपटने के लिए अंधेरे में हाथ- पैर नहीं चलाना पड़ेगा। उसे एक दिशा मिल गयी है। पौलोमी ने किसी वास्कोडिगामा गली के बारे में लिखा था। बड़ा अजीब सा नाम है गली का, ऐसा नाम उसने पहले कहीं नहीं सुना। दस बरस हो गए हैं उसे रायपुर में। वह शहर के लगभग सभी गली- मुहल्लों से परिचित है, उनसे गुजरा है। किन्तु ऐसे किसी गली के बारे में उसने कभी सुना ही नहीं। पर इस गली को खोजना होगा और जानना होगा, उसका कौन सा करीबी वहाँ रहता है। तभी पता चल पाएगा कि किस तरह का खतरा उसके सामने मुंह बाये खड़ा है।

किन्तु कौन बता पायेगा उसे इस बारे में?

शेखर को अपना दोस्त याद आया। सुरेश क्या जाग गया होगा? शायद वो बता पाये। रायपुर का मूल निवासी सुरेश रियल इस्टेट के धंधे में है और इस नाते उसे रायपुर के चप्पे- चप्पे की जानकारी है। उसने उसे फोन लगाया।

“वास्कोडिगामा गली! यार, रायपुर में ऐसा नाम बचपन से लेकर आज तक कभी भी सुना या जाना नहीं।”…. सुरेश के नींद डूबे स्वर में अचरज और खीज़ का पुट था, जो फोन पर आती आवाज में झलक रहा था।

सुरेश उन नींदपरस्त लोगों में से है, जिन्हें सूर्योदय का दृश्य देखने के लिए प्रयत्न पूर्वक जागना पड़ता है। शेखर के उतावलेपन ने उसे सुबह जल्दी उठा दिया था, किन्तु उसे उठा के भी कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।

अब किससे पूछे शेखर, कौन बता पायेगा उसे अजीब से नाम वाली इस गली के बारे में? आने वाले खतरे से होने वाले अनिष्ट के इंतजार में बैठे रहने से नहीं चलेगा। उसे खोज निकालने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा।

सहदेव को आने में समय था। शेखर फटाफट तैयार हुआ और सुबह का नाश्ता बनाने में लगी अनुभा को फिर एक बार आहत करते हुये निकल पड़ा कार लेकर। कार सीधे जाकर रुकी जयस्तंभ चौक पर गोलबाजार जाने वाले रोड स्थित मुख्य पोस्ट ऑफिस के सामने। किसी शहर के गली- कूचों से किसी डाकिये का जितना पाला पड़ता है, उतना और किसी का नहीं। यहाँ एक- दो नहीं बीसियों डाकिये हैं। इनसे तो पता चल ही जायेगा।

पर यह प्रयास भी निरर्थक साबित हो गया।

वास्कोडिगामा गली एक बड़ी भूल भुलैया बन गई है। दस बरस से खुद शेखर इस शहर में है और उसे पता नहीं, रायपुर में पैदा हुये सुरेश को मालूम नहीं, शहर के अली- गली की धूल छानने वाले डाकियों तक को जानकारी नहीं कि आखिर वास्कोडिगामा गली नाम की बला है कहाँ?
फिर किसे पता होगा?

वास्कोडिगामा गली की भूल भुलैया को सुलझाने की कोशिश में दो दिनों तक खाना-पीना हराम कर रायपुर की एक- एक गली में घूमता रहा शेखर। घर, परिवार, ऑफिस, व्यवसाय सब कुछ छोड़ कर अकेले पागल सा ढूँढने में लगा रहा वह। पर सब बेकार।

अब तो संदेह होने लगा है कि क्या सचमुच ऐसी कोई गली रायपुर में है भी? आखिरकार कौन है वह करीबी …. कोई ऑफिस स्टाफ, कोई दोस्त या फिर कोई सह व्यवसायी? क्या अनुभा, सुरेश या सहदेव जैसे अति करीबी लोग भी कभी खतरा साबित हो सकते हैं उसके लिए? पौलोमी भी उसके पहुँच से बाहर चली गई है, अन्यथा उसी को टटोल कर देखता। पौलोमी ने उसे सही सूचना दी भी है, या फिर वह खुद भी किसी षड्यन्त्र का भाग है?

तनाव व भागदौड़ के पहाड़ से भारी तीन दिन बीत गये। कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा है कि आखिर वास्कोडिगामा गली किस चिड़िया का नाम है। अजीब सी स्थिति है शेखर के लिए कि अपने इस बुरे समय में वह किसी करीबी को मदद के लिए भी नहीं पुकार पा रहा है। कहीं ऐसा न हो, जिसे पुकारे वही मदद करने के बजाय उल्टा खतरा बन बैठे।

दिन भर निरर्थक घूमने के बाद चौथी शाम जब वह अनमना सा ऑफिस में बैठा था, सहदेव ने उसकी टेबल पर एक लिफाफा ला कर रखा और बोला-

“भैया, कोई आदमी थोड़ी देर पहले यह डाक सम्हारु को दे गया है।”

बूढ़ा सम्हारु उसके ऑफिस बरसों से चौकीदार का काम कर रहा है और अपने उम्र की सीमाओं के बावजूद कर्मठ है। उसने शेखर को अपने काम के प्रति कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। अब तक वह शेखर का भरोसेमंद स्टाफ रहा है।

लिफाफे की बात सुन शेखर सकपका उठा। उसने सहदेव को जाने के लिए बोला और जैसे ही सहदेव उसके केबिन से बाहर गया, उसने उतावला हो टेबल पर रखे लिफाफे को खोला। लिफाफे के अंदर हल्के गुलाबी रंग का ठीक वैसा ही पेज था, जैसा अब तक उसे मिला है। उसमें भी बना था बड़ा सा कट का निशान।
यह देख नए सिरे से आतंकित हो उठे शेखर को अपनी निरीह विवशता पर रोना आ गया। अब भी खतरे को समझने, भाँपने और उससे निपटने के लिए उसे अंधेरे में हाथ- पैर चलाना पड़ रहा है।
आँखों के कोरों पर आँसू उमड़ने लगे। थोड़ी सी मौज- मस्ती कहाँ ले आई है उसे! उसने अपनी फूल सी बच्ची और जीवन संगिनी को खतरे में डाल दिया है। वह अनुभा जैसी पत्नी पर बार- बार बिला वजह शक करने लगा है। उसके इसी मौज- मस्ती के चलते ही बेचारी पौलोमी न जाने किस हाल में पहुँच गई है। काश, एक बार मिल जाए वह!

बदहवास शेखर काफी देर तक रोता रहा और सोचता रहा, ऐसा वह क्या कर दे जो सब ठीक हो जाए!

रोते शेखर को दिलासा देते हुये मन ने कहा- “सतर्क रहो और इंतज़ार करो। विश्वास किसी पर भी मत करो। बस जितना संभव है, अपनी ओर से उतनी सावधानी बरतो।”

हाँ, सावधानी रखनी ही होगी। रात को घर जाने से पहले उसने सहदेव से ऑफिस में काम करने वाले सारे स्टाफ के पते- ठिकाने मँगवा लिए और बिना किसी को कुछ बतलाए अगले ही दिन उनके घरों तक हो आया। शायद उनमें से कोई वास्कोडिगामा गली में रहता हो!

सावधानी बरतते हुये अगले ही दिन उसने ऑफिस व घर के लिए शारीरिक रूप से चुस्त- दुरुस्त प्रायवेट सुरक्षा गार्डों की व्यवस्था भी कर दी। उसी शाम उसने ऑफिस में सीसी टीवी लगाने के लिए संबन्धित एजेंसी को ऑर्डर दे दिया। साथ ही रात को खाने की टेबल पर बैठ अनुभा को अपनी काल्पनिक व्यापारिक दुश्मनी का हवाला देते हुये गुड़िया का खास ध्यान रखने की हिदायत भी दे दी।

इतना करना ही उसके वश में है। किन्तु क्या केवल इतना उस अनजाने खतरे से निपटने के लिए पर्याप्त है? उसके विक्षुब्ध मन ने कातर हो कर पुकारा- हे भगवान, अब तुम्हारा ही सहारा है।’

रात बीती। सुबह नहा- धोकर अपनी विपत्ति का समाधान करने की ज़िम्मेदारी माँ भगवती को सौंपने वह आकाशवाणी चौक स्थित माँ काली के मंदिर में जा पहुंचा।

-‘जगत- जननी माँ काली, सब मंगल करना। तुम मंगला हो, विपदहारिणी हो। तुम्हारी शरण में हूँ।’

सर्व व्यापिनी माँ के समक्ष कातर हो प्रार्थना करते समय उसके मन में पौलोमी के लिए भी सहानुभूति जागी, ‘पता नहीं, किस हाल में है वह, माँ उसका भी ख्याल रखना।’

अब जाकर उसका मन थोड़ा शांत हुआ।

सावधानी व सतर्कता से भरे कुछ दिन निरापद बीते। जिंदगी की गाड़ी फिर पटरी पर आ गयी। उस शाम अनुभा मूड में थी। उसने शेखर से मनुहार करते हुये कहा-

“कितने दिन हो गए हैं, हम लोग अकेले कहीं नहीं गए। हमेशा साथ में या तो सहदेव होता है या फिर तुम्हारा गार्ड। चलो न हम तीनों कहीं घूमने चलें। कार तुम ड्राइव करना, साथ में कोई और नहीं होगा। लौटते हुये बाहर ही खाकर लौटेंगे।”

शेखर ने तुरंत हामी भर दी। वह भी ऊब चुका है फालतू की सतर्कता बरतते हुये। कुछ ही देर में बच्ची को साथ ले दोनों निकल पड़े, बिना किसी को कुछ भी बतलाए। एक अच्छी शाम बहुत दिनों के बाद नसीब में आई है।
गुड़िया की चहक व अनुभा के चेहरे पर झलकते पति के सुहाग की तृप्ति से अपनी शाम को यादगार बना, शेखर ने जब घर लौटने के लिए ड्राइव करना आरंभ किया, गुड़िया सो चुकी थी। खुश अनुभा ड्राइविंग सीट के पासवाली सीट पर बैठ उसके साथ इधर-उधर की बातें करने लगी। बातें करते हुये उसने कहा-

“जानते हो, त्रिवेणी कल से काम पर नहीं आएगी। वह बतला रही थी कि आधार कार्ड बनवाने के लिए लाईन में लगना पड़ रहा है। इसमें दो- तीन दिन लग सकता है। उसके पूरे मुहल्ले वाले रोज भीड़ बना कर जा रहे हैं। हमारे कार्ड भी अभी तक नहीं बने हैं, पता नहीं कब बनवाओगे। सुना है उसके बिना गैस सिलिन्डर मिलने में कठिनाई होगी।”

“चिंता क्यों करती हो, कार्ड बन जाएंगे। हाँ, त्रिवेणी के नहीं आने से सारा काम तुम पर आ जाएगा। किसी को देखूँ क्या, दो- तीन दिनों के लिए?”- ड्राइव करते हुये शेखर बोला।

“पागल हो, पहले कभी क्या मैंने बिना नौकरानी के घर के काम नहीं किए हैं, जो इस बार नहीं कर पाऊँगी? हाँ, आधार कार्ड का काम समय रहते करा लेना। ऐसा न हो कि वास्कोडिगामा गली के सारे अनपढ़- गरीब लोग कार्ड तुमसे पहले बनवा लें। इन सब बातों में वे लोग ज्यादा जागरूक होते हैं।”

अनुभा की बात सुन शेखर को जैसे बिजली का करंट लगा। बदहवास हो उसने झटके से गाड़ी रोक दी। गनीमत थी, पीछे कोई दूसरी गाड़ी न थी।

कमाल है जिस वास्कोडिगामा गली की खोज में वह इतने दिनों से पागल बना रहा, उसका अता- पता अनुभा के पास है!

“वास्कोडिगामा गली के लोग मतलब?” – उसने लगभग चिल्ला कर पूछा।

“ऐसा क्यों चिल्ला रहे हो? वास्कोडिगामा गली के लोग मतलब जगन्नाथ पारा के एक हिस्से में रहने वाले लोग। जगन्नाथ पारा के लोगों ने कुछ समय पहले अपने पारा के हर गली को एक अलग सा नाम दिया है। 1919 गली, वास्कोडिगामा गली, स्वराज गली और भी न जाने क्या- क्या। ये नाम आधिकारिक रूप से किसी भी जगह प्रयुक्त नहीं होते, कहीं कोई साइन बोर्ड भी नहीं है। ये नाम बस उन्होने रखे हैं अपनी अस्मिता के परिचय के लिए। त्रिवेणी से मुझे यह सब सुन कर बड़ा अच्छा लगा। वह अपने मुहल्ले के बारे में बताती रहती है।”

“तो वास्कोडिगामा गली जगन्नाथ पारा में है! अच्छा क्या तुमने कभी त्रिवेणी को मेरे कोलकाता, सिलीगुड़ी या गुवाहाटी जाने के बारे में डिटेल में बतलाया है?”- उद्विग्न हो पूछा शेखर ने।

“तुम्हारे प्रवास का डिटेल मुझे मालूम होता है क्या? बस ये जानती हूँ कि यहाँ से कहाँ जाओगे, कब जाओगे और वापस कब लौटोगे। इतने को डिटेल नहीं कहते, यह तुम भी जानते हो। वैसे भी ऐसी सब बातें मैं उसे क्यों बतलाने लगी भला।” – अनुभा थोड़ा असंतुष्ट हुई। शाम से बने अच्छे- भले मूड का सत्यानाश जो हुआ जा रहा था।

शेखर ने अचानक कार को मोड़ा। उसे अचानक कुछ सूझा था, जैसे नींद से जागा वह। ओहो, तो ये बात है!

“तुम घर जाने के बजाय इतनी रात को अब कहाँ जा रहे हो?” – अनुभा ने उसे कार मोड़ते देख पूछा।

“सहदेव भी वहीं रहता है न?”- यह पूछते हुये जैसे खुद को पुष्ट किया शेखर ने।

“हाँ, त्रिवेणी को हमारे घर में काम पर उसी ने लगाया था।”- अनुभा सहज भाव से बोली।

धत तेरे की! इतने दिनों तक वह पागलों की तरह पूरे रायपुर की ख़ाक छानता रहा और जिस गली को खोजता रहा, वह घर के बगल में है। सहदेव वहीं रहता है। यह तो उसे पहले ही समझ लेना था कि अनुभा के अलावा केवल सहदेव के पास ही उसके प्रवास की सारी जानकारी होती है।

“चलो, आकाशवाणी चौक के माँ काली के मंदिर में प्रणाम कर आते हैं। आज एक बहुत अच्छी खबर मिली है।” – आश्वस्त स्वर में बोला शेखर। खतरा अब जाना- पहचाना है और उसकी मारक क्षमता भी। अब उससे निपटने में कोई भी तकलीफ नहीं होगी।

“इतनी रात को? अभी तो मंदिर के पट भी बंद हो गए होंगे।” – अनुभा के स्वर में आश्चर्य का पुट था।

शेखर उत्तर में मुस्कुराया, आत्मविश्वास से भरी मुस्कुराहट।
अंधेरी रात में चाँद की ज्योत्सना छिटक पड़ी थी चारों ओर, उजाला खिल उठा था अंधकार के प्रांगण में।

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