हे शुष्क शाख़ पर बैठे खग…
हे शुष्क शाख़ पर बैठे खग!
क्या सोच रहे यूँ एकाकी?
मेघों की श्यामल घटा घिरी,
हर ओर दीखती हरियाली।
तृण तृण संचितकर विहगवृन्द
निज नीड़ सजाए बैठे हैं,
रक्षित शिशुओं को कर उनमें
अपनी ही धुन में ऐंठे हैं।
तुम हो उदास लिपटे तरु से
जैसे हो जीवनसंगी यह
सुख दुख का चिर साथी कोई
गाने को तत्पर गीत विरह।
जर्जरित देह कब जाए छूट
यह स्वांसों की सीमित माला,
शायद तुम याद कर रहे हो
जब इस तरु ने तुमको पाला।
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डॉ अञ्जना