April 28, 2024

तृष्णा राजर्षि की ‌दो कविताएं

0

कंधे पर बंदूक उठती
स्त्री,एक दूसरे के साथ
कदम से कदम मिलती
चलती है,अब वो खड़ी
होती हैं सीमाओ पर
निडर रूप से करते
हुए देश कि सुरक्षा
और करती हैं अपने
आत्म विश्वासों जो
गोलियों और धमाकों
के बीच अब खड़ी होकर
लड़ती हैं ,साबित करती
है अपने वजूद को कि
मजबूत हुई हैं अपने
इरादों से, अपने ऊपर
कमजोर होने कि तानो
से,जिनसे वो लड़ जाती
हैं तरह के ताना देने
वाली जबानो से उसे
कमज़ोर और मंदबुद्धि
होनें का दावा देते थे ।

चोट की बगरी

अब नहीं आती
गौरया घर कि
उन खिड़कीयों
जहां वो बनाती
थी अपना घोंसला
लाती थी एक
खर के सूखी
तिनके बरामदे
पर लगी आयने
में देखती थी
अपने जैसा एक
और साथी और
अपनी चोंच से
टूक टूक करती
आयने में पर
नहीं आती घर
के मुंडेरों पर ….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *