April 27, 2024

ज्ञानपीठ पुरस्कार का पतन

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कभी साहित्य ने धर्म को दिशा दी थी जिसका प्रमाण रामायण और महाभारत से लेकर भारत के लगभग हजार सालों का भक्ति साहित्य है। आज धर्म को साहित्य की दिशा बताने के लिए खड़ा किया जा रहा है जो रामभद्राचार्य के ज्ञानपीठ पुरस्कार से परिलक्षित होता है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार की गौरवशाली यात्रा जी. शंकर कुरुप को उनके ’बांसुरी’ काव्य पर पुरस्कार देकर शुरू हुई थी, जिसका ट्रैजिक समापन इस बार हो गया। कहा जा सकता है कि बड़े माने जाने वाले पुरस्कार अब अपनी गरिमा खो चुके हैं और वे साहित्यिक श्रेष्ठता के प्रमाण नहीं रह गए हैं।

भारतीय ज्ञानपीठ के जैन मालिकों ( मुख्यत: रमा जैन) की हिंदी सेवा एक समय ’धर्मयुग’, ’दिनमान’, ’पराग’ आदि के रूप में कीर्तिस्तंभ की तरह थी। इन्होंने 60 के दशक में पुस्तक प्रकाशन के साथ ’ज्ञानोदय’ की भी शुरुआत की थी। आलोक जैन तक कुछ ठीक चला। अब यह परिवार ’ज्ञानोदय’ का भी मासिक रूप में प्रकाशन बंद कर चुका है। भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन बेच चुका है। और अब इसने सत्ताधारियों को खुश करने के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार भी बेच दिया और संस्कृत साहित्य की संपूर्ण परंपरा को चिढ़ाने का काम किया।

कई बार गुरुओं की पहचान उनके शिष्यों से होती है। रामभद्राचार्य के शिक्षा संस्कार ही रहे होंगे कि उनके एक कमाऊ युवा शिष्य बागेश्वर बाबा कुंवारी लड़कियों को वीभत्स ढंग से हंसते हुए ’खाली प्लाट’ कहते हैं। और वे खुद ’रामचरितमानस’ की गलत व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जो राम की उपासना नहीं करते, वे ’चमार’ हैं! तुलसीदास ने ऐसे ही व्यक्तियों के लिए लिखा है, ’पंडित सोई जो गाल बजावा’!
हर हिंदू का अपना एक अलग इष्टदेव हो सकता है। कोई राधे–राधे बोलता है, कोई शिव की उपासना करता है तो कोई दुर्गा की। आदि शंकराचार्य मुख्यतः शिवभक्त थे और राम की उपासना नहीं करते थे तो क्या भद्राचार्य उन्हें ’चमार’ कहेंगे?

इतना ही नहीं, जब आरक्षण का विरोध करना होता है, रामभद्राचार्य तर्क देते हैं कि मैं नीच जाति नहीं मानता। वे अनुसूचित जातियों को नीच जाति कहते हैं। सुविधावाद और विद्वता दोनों एकसाथ संभव नहीं है, जिस तरह शुद्धतावाद और ज्ञान दोनों एकसाथ संभव नहीं है!

कालिदास ने ’रघुवंश’ में इस वंश के पतन का चित्र खींचा है। इसके अंतिम राजा अग्निवर्ण इतने अधिक कामजर्जर हो गए थे कि बिस्तर पर लेटे– लेटे किसी तरह खिड़की से अपने पैर बाहर निकाल कर प्रजा को दर्शन देते थे। दशरथ और राम के वंश की एक समय यह दशा थी।

हर महान परंपरा एक समय अधोगति को प्राप्त करती है। क्या वर्तमान समय धर्म के दुखांत का दौर है? धर्म का जब बहुत शोर हो, सब होता है सिवाय धर्म के!

हम साहित्य को कभी धार्मिक पतन का हिस्सा बनने नहीं देंगे और कइयों की तरह चुप नहीं रहेंगे!
शंभूनाथ

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