नहाती नहलाती सह्याद्रि
यह भारतीय रेल की उदारता थी जो मात्र पन्द्रह रुपये के टिकट में पन्द्रह स्टेशन दिखला देता है।
सहयाद्रि पर्वत श्रृंखला की नर्म पहाड़ियां दिखने लगी थीं, पहले हल्के श्याम रंग में फिर गाढ़े रंगों में। वर्षा की फुहारें ट्रेन की खिड़कियों से पार हो जातीं। उमड़ते घुमड़ते बादल थे। महाराष्ट्र की सहकारिता हमारे साथ थी ’बेखबर बैठते… कार्ला आने से उतार देगा… बरोबर।’
ट्रेन के रुकते ही बारिश की बौछार तेज हो गई थी। चंद्रा ने अपनी रंगीन छतरी को छितरा दिया था, हम उसके नीचे आ गए थे उस अमर चित्र की तरह जिसमें बारिश में तनी छतरी के नीचे राजकपूर और नर्गिस हों। हम रेलवे क्रासिंग को पार करते हुए कार्ला के कस्बे की ओर आ गए थे जहॉ ऑटो स्टेंड था। रेल फाटक के किनारे लगी गुमठी में मूंग के गरमागरम पकौड़े और चाय लेकर हमने बारिश को सेलीब्रेट कर लिया था।
ऑटो वाले ने बारिश से बचाने के लिए अपना मनकप्पड़ तान दिया था। चार किलोमीटर का सन्नाटा भरा रास्ता था – सन्नाटा, ठंडी हवा, बारिश और बीवी के सहारे एमटीडीसी का रिसोर्ट कब आ गया पता नहीं चला।
रिसेप्शन से कमरे तक ले जाने के लिए एक सहायक साथ था। उसने सायकल में हमारे बैग रख लिए थे और अपनी ओर से एक छतरी भी तान दी थी।
’आपका नाम क्या है।’
’तिरुपति’
’ओह आप तोमुड़ु हैं।’ तोमुड़ु संबोधन तेलुगु में छोटे भाई के लिए है। वह आंध्रा से यहां आया था रोजी रोटी के लिए। होटलों बारों में इनकी सेवाभावी तत्परता देखते बनती है ’आप बोत अच्छा किया सर इधर मन्डे को आकर। सटर्डे सन्डे इधर बोत भीड़ होता। वीक-एन्ड में मुंबई पुणे का छोकरा छोकरी खूब आता। हनीमून जोड़ा अलग आता। भीड़ के कारण केन्टीन वाला भी रुम सर्विस नई देता…लेकिन अभी सब देगा। आप चाहे तो रुम में खाइये या केन्टीन में जाकर…आपका मर्जी।’ लगे हाथ तिरुपति ने अपनी योग्यता साबित कर दी।
हम बरसते पानी में चले जा रहे थे पुराने दरख्तों के साये में। पानी की बूंदों के बीच कभी पके हुए आम या चीकू भी टपक पड़ते थे। क्यारियों के बीच वीथिकाएं थीं जिनसे होकर कोई मोहक रास्ता जाता था अतिथियों के कमरे में। रंग-बिरंगे फूलों और पत्तों के बीच हम किसी उपवन में चले जा रहे थे। इन क्यारियों के बीच लगे हुए झूले ओर फिसलपट्टियों को देखने मात्र से ही न होते हुए भी किसी बच्चे की किलकारी गूंज उठती। वाटर वर्ल्ड में स्वीमिंग पूल और मनोरंजन के कुछ दूसरे साधन थे। महाराष्ट्र पर्यटन मंडल ने अपने कितने मामूली से दिखने वाले पर्यटन स्थलों को कितना आकर्षक और सुविधायुक्त बना लिया है, जबकि इसके पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में भरपूर नैसर्गिक सुन्दरता और भव्य ऐतिहासिक ईमारतें होने के बाद भी उन्हें सुविधा संपन्न नहीं बनाया जा सका। कमोबेश यही स्थिति सारे हिन्दी भाषी राज्यों की है। हॉ…पिछले दो-तीन दशकों से राजस्थान में पर्यटन की चेतना जागी है और उसने आतंकवाद से जूझ रहे काशमीर के सैलानियों को अपनी ओर खींच लिया है।
’ये लीजिये साब आपका कॉटेज आ गया।’ यह तिरुपति की आवाज थी ‘घूमने के लिए गाड़ी होना हमको बोलिये।‘
हमने केंटीन का नम्बर घुमा दिया था.. हम गरमागरम उपमा खाकर निकल पड़े। ड्रायवर ने बताया ’यहॉ एकवीरा टेंपल है साब… एकवीरा माता का मंदिर। यह मछुआरों की माता है। पार्किंग के पास से डेढ़ सौ सीढ़ियॉ चढ़ेगा। उपर टेंपल और केव है। आपको डेढ़ घंटा लगेगा। हम नीचे मिलेगा।’ सीढ़ियॉ चौड़ी और सुविधा जनक थीं। चंद्रा का हाथ पकड़कर चलना होता है, हाथ छूट जाने से उसके खो जाने का अंदेशा होता है।
सहयाद्रि की चोटियों पर काले मटमैले बादल और सूरज की किरणें ऑख मिंचौनी खेल रही थीं। उमड़ घुमड़कर बादल इन चोटियों को अंधेरे कोहरे में छिपा लेते तब सूरज की इतराती किरणें इन्हें बेधकर फिर से चोटियों को ढूंढ़ निकालतीं। छोटे छोटे प्रपात पहाड़ियों से प्रस्फुटित होकर नाद स्वरों में गा रहे थे। इनके गायन के बीच सराबोर होते हुए लोग मानों स्वर साधना में लीन थे। समवेत स्वर मिलाते हुए सीढ़ियों पर नाच रहे थे लोग उस धुन पर जिसमें दूर कहीं से खंडाला खटु (घाटी) की महिमा गायन का कोई लोक गीत झंकृत हो रहा था।
नीचे कार्ला शहर था जिसके बाद लोनावाला फिर खंडाला पड़ेगा। पर यह इलाका खंडाला के नाम से प्रसिद्धि पा गया है। नीचे पानी भरे खेतों का दृश्य था, जिनके रोपे झांक रहे थे जैसे किसानों के सिर के फुरफुरे मुलायम बाल हों।
सीढ़ियों के किनारे दुकानें बढ़ती जा रही थीं मतलब मंदिर अब पास होता जा रहा था। सीडी डीवीडी की दुकानों पर गीत बज रहे थे। मंदिर आ गया था। मंदिर से जुड़ी बुद्ध गुफा थी, ईसा से एक सौ साठ बरस पहले की। चैत्य हाल पैंतालीस मीटर लम्बा और पंद्रह मीटर चौड़ा था। दोनों ही ओर अनेकों स्तंभ बने थे ओर हर स्तंभ के उपर हाथी का सिर बना था। पीछे एक स्तूप था। चट्टान पर बनी इस विशाल गुफा की नक्काशी ऐसी थी मानों यह लकड़ियों से बनी हो। कलाकृति में ताजगी इतनी कि कौन कहता कि बौद्ध शिल्पकला का यह नायाब नमूना दो हजार साल पुराना है। यह देश की सभी बौद्ध गुफाओं में सबसे अच्छी दशा में है। प्रवेश द्वार पर दीवारों पर उकेरे गये हैं सुन्दर आभूषण ओर गहनों से युक्त नर-नारियों के चित्र। यहां ऐसी ही भाजा और बेडसा की गुफाएं हैं। महाराष्ट्र अपने कलात्मक उत्कर्ष को इन गुफाओं से ही अर्जित करता आ रहा है। कभी अजंता एलोरा से तो कभी सहयाद्रि की पहाड़ियों से।
विराट पर्वतीय चट्टान को तराशकर बनायी गई इस गुफा के बाहर झरने बह रहे हैं। नौजवानों का समूह नृत्य है इन झरनों में नहाते हुए। अपने अल्प वस़्त्रों में वे उन नाचती हुई आकृतियों के समान भी झलक जाते हैं जैसी गुफाओं के भीतर है। कुछ अति-उत्साही जन उन झरनों के उपर कहीं और चले जा रहे थे शायद यह जानने कि आखिर ये झरने फूटते कहॉ से हैं? नाचते और नहाते लोगों के तन में थिरकन थी (…. क्रमशः)
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– विनोद साव