बारिश के लोकनृत्य में…
सावन के बादल
घिर रहे हैं
घिर रहे हैं
अभी घिर ही रहे हैं
और हवा की गति बढ़ गई
हवा के साथ साथ
दुनिया की गति भी बढ़ गई
अरे! वाह!
अब बरसने भी लगे
नहाती हुई हवा
झूमने लगी
कुछ मेघ मल्हार सा
गाने लगी
पेड़ भी
सभ्यता भूल
किसी बेहद आदिम लयताल में
नाचने लगे
पत्तों-पत्तों में
जलतरंगों का
अद्भुत संगीत
सज उठा
छप्परों-छतों
खिड़की-छज्जों ने
अपने-अपने हिस्से का
आर्केस्ट्रा ड्रम
पीटना शुरू कर दिया
पता नहीं!
यह आजादी की
सिम्फनी थी या नहीं
मुझे महसूस होता है
मैं आजाद हो रहा हूं
मैं भी
सभ्यता छोड़
इस वृहद आदिम आर्केस्ट्रा का
हिस्सा बन रहा हूं
मैं बारिश के लोकनृत्य में
–घिर रहा हूं
–बह रहा हूं
–बज रहा हूं
–सज रहा हूं
–नाच रहा हूं
–बंधनों से
मुक्त हो रहा हूं
जैसे विस्मृत कोई बोया-
बीज
जमीन तोड़
अंकुरित हो रहा हो
–(सभ्यता के) पिंजरे से
बाहर आ रहा हूं
–बारिश को छू रहा हूं
–अनजान अमृत सा कुछ
पी रहा हूं
–भींग रहा हूं
–धार-गंगा को धारण कर रहा हूं
–अपनी जटाओं में समो रहा हूं
सब एक रस
हुआ जा रहा है
जल रस
जीवन रस
सरस
पत्थर भी
सरस हो रहे हैं
–भींग रहे हैं
उनसे भी
पानी का संगीत
बज रहा है
झर-झर-झर
खुशी
और
उल्लास
का संगीत
अरे!
मेंढक और झींगुर
इस सिम्फनी में
“स्पेशल इफेक्ट”
दे रहे हैं
(पहली बार महसूस हुआ कि
उल्लास का स्वर
कभी बेसुरा नहीं होता)
बारिश ने
मुझे
बहने के लिए
आजाद कर दिया
मैं
बहकर
उल्लास के उस समुद्र में
जा मिलूंगा
जो
हर नदी का
सपना होता है!
—शीलकांत पाठक