गुरु पूर्णिमा पर्व की सभी को मंगलकामनाएंँ
यह एक आलेख, जो कल राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुआ, आज विस्तृत रूप में यहांँ पढ़ा जा सकता है। –
♦आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि♦
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महाभारत काल में दो कृष्ण सर्वाधिक विख्यात हुए हैं और यह भी एक रोचक संयोग है कि दोनों संसार के श्रेष्ठतम गुरु कहे गए। एक सबके दुलारे और आराध्य वासुदेव कृष्ण। जिनके लिए कहा जाता है, “कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् “। और दूसरे द्वैपायन कृष्ण, जिन्हें हम वेदव्यास के नाम से जानते हैं। वेदव्यास की कीर्ति महाभारत और पुराणों के रचयिता होने के साथ ही सम्पूर्ण वेद वाङ्मय का चार संहिताओं में विभाजन करने के कारण हुई। इन्हीं की जन्म–जयंती आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
भारतीय परम्परा में गुरु को लेकर दो तरह की धारणाएंँ हैं। एक धारणा के अनुसार गुरु वह है जो ज्ञान प्रदान करे। कुछ सिखाए, पढ़ाए। यह शिक्षक और पालक के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इस दृष्टि से हमारे जीवन में अनेक गुरुओं की भूमिका होती है। माता, पिता, अध्यापक, शिक्षक, प्रशिक्षक, निर्देशक, मार्गदर्शक आदि सभी गुरुजन की श्रेणी में आते हैं। इन सब में माता को प्रथम गुरु कहा गया है। बाल्यकाल का सर्वाधिक शिक्षण–प्रशिक्षण माता के द्वारा ही सम्पन्न होने के कारण माता प्रथम गुरस्थानी है। फिर पालक–पोषक के रूप में पिता और फिर विद्या अध्यापन करने वाले आचार्यगण गुरु कहलाते हैं। मनुस्मृति कहती है,
“उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।।”
अर्थात् दस उपाध्यायों से बढ़कर एक आचार्य होता है, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता होता है और पिता से हजार गुणा बढ़कर माता, गुरुता के कारण होती है।
गुरु को लेकर दूसरी धारणा आध्यात्मिक और भक्ति क्षेत्र की है जो किसी साधक अथवा भक्त को अपने निर्दिष्ट पथ की ओर ले जाता है। साधक के लिए उस पंथ या संप्रदाय के द्वार खोलता है, गुरुमंत्र प्रदान कर अपने पंथ में दीक्षित करता है। इन संप्रदायों की मान्यता है कि गुरु के बिना व्यक्ति की मुक्ति संभव नहीं। इसीलिए गुरु भगवान से भी बढ़कर पूज्य कहा गया है। योगियों और सिद्धों की परंपरा में गुरु का विशेष महत्व रहा। इसके उचित कारण भी हैं। गुरु के मार्गदर्शन के बिना साधना के कठिन पथ को पार करना असंभव है। गुरूपदेश के अभाव में साधक को लाभ के स्थान पर भारी हानि की आशंका रहती है।
षट्चक्र भेदन की योगसाधना तथा अलौकिक सिद्धियों की तांत्रिक साधनाओं ने गुरु–शिष्य परंपरा को विशेष स्वरूप प्रदान किया। इनमें गुरु के प्रति शिष्य का पूर्ण समर्पण भाव बना रहा। यही धारणा आगे चलकर निर्गुणिया संतों के यहांँ आई। निर्गुण भक्ति में मूर्ति, मन्दिर, प्रतीक पूजा आदि का विधान नहीं है। किंतु भक्तिभाव को पुष्ट करने के लिए कोई न कोई साकार, मूर्त रूप में साधन आवश्यक होता है। अतः भगवान की मूर्ति के स्थान पर गुरुदेव परम पूज्य हो गए। कबीर का अतिप्रसिद्ध दोहा– “गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताय।” और गुरु वंदना में प्रयुक्त होने वाला एक सुप्रसिद्ध श्लोक,
“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥”
जिसमें गुरु को ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और साक्षात् परब्रह्म मानते हुए नमन किया जाता है, गुरु के प्रति इसी एकान्त भावना के परिचायक हैं।
कालान्तर में भक्ति के विविध संप्रदायों में भी अपने-अपने संप्रदायों को सर्वश्रेष्ठ मानने की एकनिष्ठ श्रद्धा के कारण गुरुगद्दी, गुरुदीक्षा और गुरुपूजा अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गये। इसी का परिणाम है कि आज भी गुरु पूर्णिमा पर्व पर अपने गुरु का पूजन करने हेतु लाखों-करोड़ों लोग गुरु के धाम पर उपस्थित होते हैं। इधर ज्ञान, शिल्प और कला की परम्पराओं में भी गुरु का अत्यधिक महत्व रहा है। नृत्य, संगीत, चित्रकला, शिल्प आदि के घरानों में गुरुओं के प्रति एकनिष्ठ श्रद्धाभाव देखने योग्य है। गुरु का उच्चारण करते समय शिष्य जिस तरह अपने कानों को स्पर्श कर अपनी अखंड श्रद्धा का परिचय देते है, वह विस्मित करता है।
विचारणीय प्रश्न की है कि मनुष्य के जीवन में गुरु एक ही होता है अथवा अनेक होते हैं? आध्यात्मिक, धार्मिक मार्ग पर चलने वाले साधकों और कला–कौशल के पारंपरिक घरानों की ओर देखें तो ऐसी धारणा बनती है कि जो गुरुमंत्र देता है अथवा दीक्षित करता है, वही एकमात्र गुरु होता है। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद, स्वामी विरजानंद और दयानंद, समर्थ रामदास और छत्रपति शिवाजी आदि के गुरु शिष्य संबंधों को देखते हुए यह धारणा पुष्ट होती है। किंतु प्राचीन काल में सर्वत्र ऐसा नहीं था। व्यक्ति के जीवन में एकाधिक गुरुओं की मान्यता रही है। कुलगुरु, शास्त्रगुरु, आश्रमगुरु, कला–कौशल गुरु आदि अलग-अलग रहे हैं। वशिष्ठ और विश्वामित्र तो श्रीराम के गुरु थे ही, अगस्त ऋषि ने भी राम को यथावसर गुरु के रूप में ज्ञान प्रदान किया। अर्जुन, द्रोणाचार्य का भी शिष्य था, तो कृष्ण का भी। भगवान् दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं की कथा भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार जीवन को श्रेष्ठतर बनाने में अनेक गुरुजन का स्पर्श मिलता है, जो भिन्न–भिन्न आयामों से भिन्न–भिन्न अवसरों पर जीवन को गढ़ते हैं।
वर्तमान परिदृश्य में भी इस तथ्य को अनुभव किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप देश में ऐसे लाखों लोग हैं जो भगवा ध्वज को अपना गुरु मानते हैं। साथ ही वे धर्म, अध्यात्म, कला, शिक्षा, तकनीकी आदि क्षेत्रों में कार्यरत होते हुए किसी व्यक्ति विशेष को भी अपने गुरु के रूप में मान्यता देते हैं। और इन दोनों स्थितियों में वे कोई अंतर्विरोध नहीं पाते। यही समग्र दृष्टि है। यही भारतीय बोध है। ज्ञान और प्रबोधन की अनेक राहें जीवन में खुलती हैं। जो हमें दिशाबोध कराते हुए जीवन की दिशा बदल दे, हमारा मार्गदर्शन कर हमें सत्पथ पर ले चले, वह हमारा गुरु है। संपूर्ण जीवन में ऐसा एक बार ही नहीं, अनेक बार संभव होता है।
आज के चकाचौंध भरे समय में जो अपनी मधुर वाणी से बहला–फुसला कर, चमत्कारों से प्रभावित कर हमको अपने वश में करने का तो प्रयास करता है, परन्तु स्वयं के पाश में बांँधकर, हमारे आगे जाने का मार्ग अवरुद्ध कर देता है, वह गुरु नहीं, गुरु के भेस में पाखंडी है। ऐसे कपटी गुरुओं से सावधान रहना आवश्यक है। ये गुरुदेव नहीं गुरु घंटाल हैं, जो धर्म की आड़ में स्वयं के सुख भोग के लिए शिष्यों को साधन बनाते हैं। शिष्यगण भी सांसारिक सुख–भोगों के लालच में इनके जाल में फँसते चले जाते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सब खेल धर्म और अध्यात्म के नाम पर होता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि सच्चा गुरु वही है जो अंधकार से प्रकाश की ओर तथा अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाए। वर्तमान युग में, आज की शब्दावली में इसका तात्पर्य है कि सच्चा गुरु वही है, जो अपने शिष्य को इन्फार्मेशन से नॉलेज की ओर ले जाए, नॉलेज से अंडरस्टेंडिंग की ओर ले जाए एवं अंडरस्टेंडिंग से विज्डम की ओर ले जाए। उसके हाथों में बोध का दीपक सौंप दे। उसकी प्रज्ञा को जाग्रत कर दे।
कबीरदास जी कहते हैं कि मैं भी सामान्य लोगों की तरह, सांसारिक और वैदिक परम्पराओं का आँख बंद करके अनुसरण कर रहा था। परन्तु आगे जब सद्गुरु मिल गए तो उन्होंने कृपा करके मेरे हाथ में ज्ञानरूपी दीपक पकड़ा दिया। और मैं गुरुकृपा से सही मार्ग पा गया।
“पाछैं लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥”
“””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””इन्दुशेखर तत्पुरुष