November 21, 2024

एक वाद्ययंत्र ऐसा भी…

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लेखक चित्तरंजन कुमार

कल सुबह सुबह छठ घाट पर सालों बाद यह वाद्य यंत्र दिख गया । आपमें से कइयों ने इसे पहले भी देखा होगा । बिहार ,झारखंड और पूर्वांचल में इसे सिंघा या सिंगा कहते हैं। कुछ लोग दुदुम्भी भी कहते हैं । इसका निचला सिरा नुकीला होता है। नुकीले सिरे पर जोर से फूंक मारी जाती है और पल भर में ऊपरी सिरे से हूँ हूँ धूं धूं sss, धू धूं हूँ हूँ sss की आवाज़ आकाश में फैल जाती है । छऊ नाच में भी सिंघे का उपयोग किया जाता है। पुराने वक्त में शिकार के वक्त पशुओं को खदेड़ने के लिए भी इसे बजाया जाता था ।

“डीजे वाले बाबू मेरा गाना चला दो” के दौर में अब कोई सिंघा की तरफ देखने वाला भी नहीं है । कभी सिंघा के उद्घोष से दूर तक पता चल जाता था कि कोई आयोजन हो रहा है। बचपन की साफ साफ याद है कि जब सिंघा बजता था तो हम सारे बच्चे गोल गोल घेरे में उसके चारों तरफ खड़े हो जाते थे। तब हमारे लिए पूड़ी ,जलेबी और रसगुल्ले से ज्यादा जरूरी सिंघा सुनना होता था ।

जीवन से लुप्त होती जा रही विविध ध्वनियों के बीच सिंघा की हुंकार अब करुण चीत्कार में बदल गई है। कभी रणभूमि में अपनी आवाज से योद्धाओं के खून में गर्मी पैदा करने वाला सिंघा अब अपनी मौत के दिन गिन रहा है ।

एक समय था जब बिहार में हर शादी ब्याह, छठी, सतईसा, मुँहजूठी, बरछा से लेकर अंतिम संस्कार तक में सिंघा साथ साथ रहता था। सिंघा सुख और दुःख में समभाव से बजने वाला एकमात्र बाजा है। यह जिस शान से द्वार पूजा में बजता है उसी तेवर के साथ अंतिम संस्कार में भी। आप शादी में शहनाई , हारमोनियम और तबला तो बजा सकते हैं, पर अंतिम संस्कार में शहनाई और तबला बजाने के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। एक सिंघा ही है जो जन्म से मौत तक साथ रहता है ।

नीचे चित्र में दिखाई दे रहे सिंघा बजाने वाले से जब मैंने नाम पूछा तो उन्होंने कहा कि वे पासवान जी हैं । नाम नहीं बताया अपनी जाति बताई । वे पिछले 40 साल से सिंघा बजा रहे हैं । अब 60 साल के हो गए । बताया कि छठ पूजा में 2 दिन से सिंघा बजा बजा कर लोगों से 800 रुपया मिला है । किसी ने 50 दिया, किसी ने 10 तो किसी ने 5 भी दिया । वैसे छठ पूजा समिति ने 2 दिन के लिए इन्हें 1000 में बुक किया था। बाकी अगर कोई 10 , 20 देना चाहे तो उसकी खुशी ।

ग्लोबलाइजेशन के बाद पुराने समाज की कई चीजें अब मिसफिट हो गई है। जैसे रिटायर आदमी एक वक्त के बाद अपने ही परिवार में मिसफिट हो जाता है । अब बेल का शरबत मिसफिट हो गया, दातुन करना मिसफिट हो गया है। अंग्रेजी बाजे के बीच सिंघा मिसफिट है। वैश्वीकरण के बाद बनने वाले समाज में सिंघा मिसफिट है। सिंघा अपार्टमेंट कल्चर और मेट्रो सीटी में मिसफिट है। क्या हमारा समाज अब पुरानी ध्वनियों को पकड़ना भूल गया है ? मुंबई और बेंगलुरु के किसी स्टूडियो से निकला हुआ एक गीत रातों-रात करोड़ों मोबाइल की कॉलर ट्यून बन जाता है पर सदियों से हमारे साथ रहने वाला सिंघा दम तोड़ रहा है । हर पीढ़ी अपने खान पान, रहन सहन के तरीके तय करती है। नई पीढ़ी के लिए सिंघा शायद कूल नहीं है, और जो कूल नहीं है वह आजकल मिसफिट है ।

इधर तकनीक ने भी पारंपरिक वाद्य यंत्रों का काफी नुकसान किया है। बड़े बड़े ऑर्केस्ट्रा समूहों में भी वाद्य यंत्रो की जगह मशीनों ने ली है। आज कम्प्यूटर और की बोर्ड में सब समाया हुआ है।अब एक ही मशीन से सितार, संतूर, तबला और हज़ारों अन्य वाद्य यंत्रो की धुन निकल सकती है तो ज़ाहिर है कि अलग अलग वाद्य यंत्रो का इस्तेमाल फ़िल्म या संगीत में कम हो गया है। और ऐसे में पुराने वाद्य यंत्र दम तोड़ रहे हैं । सिंघा के अलावा बाँसुरी और अलगोजे भी फूंक से बजाए जाते है। वादक दो अलगोजे मुँह में रखकर एक साथ बजाता है। राजस्थान में पहले अनेक प्रकार के अलगोजे प्रचलित थे । राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों, विशिष्ट रूप से आदिवासी क्षेत्रों में इस यंत्र का प्रयोग किया जाता है। इसे कालबेलिए भी बजाते हैं। पता नहीं आजकल राजस्थान में अलगोजे किस हाल में हैं ?

तबले को कौन नहीं जानता । शास्त्रीय संगीत की बहुत ज्यादा जानकारी न रखने वाला व्यक्ति भी तबले की एक आध धुन जैसे ‘ना तिन तिन धा’ तो समझ ही लेता है । तबला आघात-वाद्ययंत्र का राजा माना जाता है और इसकी शुरूआती कीमत करीब 10,000 के आस पास है, हालांकि इसका इस्तेमाल बंद नहीं हुआ है, पर याद कीजिए आपने अंतिम बार तबला कब देखा था । आजकल बाजार में तबले का विकल्प तबला मशीन या ताल मशीन है जिसमें पहले से ही सारे ताल भरे होते हैं । अब किसी तबला वादक की जरूरत नहीं है । जो धुन चाहिए वह एक टेप रिकॉर्डर जैसी मशीन में पहले से मौजूद है।

जरा सोचिएगा , क्या मशीनों से घिरते घिरते हम भी मशीन होते जा रहे हैं ??

कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दी फिल्मों का वाद्य यंत्रो की बिक्री पर काफ़ी फ़र्क पड़ता है। जब ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ फ़िल्म में शाहरूख़ ख़ान ने मैंडोलिन बजाया था तो रातों रात मैंडोलिन की बिक्री में बढ़ोतरी हुई थी । मैं यह सोच सोच कर परेशान हूँ कि बॉलीवुड का कौन हीरो सिंघा बजाएगा। क्या जिम में कसरत करने वाले किसी मुम्बईया हीरो के फेफड़े में इतनी हवा है कि वह सिंघे में जोर की फूक मार सकें ।

जिस समाज की हवा में PM 2.5 जहर बनकर घुल रहा हो, जहाँ हवा में ऑक्सीजन कम और जहर ज्यादा हो वहाँ सिंघा कब तक बचेगा । जब तबले, अलगोजे और सिंघा विदा हो जाएंगे तो समाज कितना नीरस हो जाएगा । वाद्य यंत्र सिर्फ हमारा मनोरंजन ही नहीं करते , प्राणों में रस भी घोलते हैं। पता नहीं मांदर,ढ़ोल, खंजरी, तासा, झाल कब तक बचेंगे।

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