25 साल सन्यासी रहे, अब करेंगे विवाह!
इस खबर के विषय में कल पढ़ा और एक मित्र से डिस्कस भी किया कि मधु कांकरिया जी का उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ जैन धर्म के ढकोसलों पर गहन प्रहार करता है। धर्म कोई भी हो, सबमें विकृतियां समाई हैं। अब तक एक दो धर्मों पर ही बात होती थी लेकिन अन्य धर्मों के विषय में जब कोई लेखक लिखता है तब उन धर्मों का गहन विश्लेषण करने के उपरांत लिखता है। दूर से सब अच्छा ही लगता है लेकिन अंदर जाओ तब पता चलता है ये तो एक दलदल है जिसमें धंसने वाला जानता ही नहीं उसका हश्र क्या होगा? उसकी भावनाओं का कैसे दुरुपयोग किया जा रहा है? कैसे अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु उसे चारे की तरह प्रयोग किया जा रहा है। फिर उसके लिये चाहे अपनों को ही क्यों न ठुकराना पड़े। फिर चाहे अपनों पर ही ज्यादती क्यों न करनी पड़े। बहुत आसान है किसी के भी मस्तिष्क को भय का साम्राज्य बोकर अपने अधिकार में करना। आप डरते रहते हैं ऐसा नहीं किया इसलिये गलत हो गया। या फिर किसी संत आदि का आगमन हो गया या फिर उन्होंने कुछ अच्छा बोल दिया और आप मान बैठते हैं, जो अच्छा हुआ उनकी कृपा से हुआ। धर्म की आड़ में कुछ खास तत्व अपने सुख के साधन जुटाते हैं।
वहीं बालपन से जो सन्यासी बना दिये जाते हैं फिर वो स्त्री हों या पुरुष, एक उम्र पर आकर उनके अंदर भावनाएं जन्म लेती ही हैं, उनका दमन और दंड जैसे विधान कितने अनुचित होते हैं, उनके क्या दुष्प्रभाव पड़ते हैं ये सब इस उपन्यास को पढ़कर जाना जा सकता है। कैसे एक पूरा परिवार प्रभावित होता है उसे बहुत ही संजीदगी के साथ लेखिका ने प्रस्तुत किया है।
आज जैन मुनि ने सन्यास त्याग दिया आसानी से लेकिन पहले ऐसा संभव न था। उनके लिये कितने कड़े प्रावधान थे, उनमें भी कई कितने निकृष्ट श्रेणी के होते हैं यह पढ़कर जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त सबसे प्रमुख तथ्य जो लेखिका प्रस्तुत करती हैं वह यही है कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को तो ग्रहण किया ही नहीं गया बल्कि अपने मनानुसार उसका दुरुपयोग बेशक किया गया फिर वो कोई भी धर्म क्यों न हो। महावीर ने कुछ सूत्र दिए थे लेकिन यहाँ के लोगों ने उन्हें ही भगवान का दर्जा दे दिया और सूत्रों से परे एक नए धर्म की स्थापना कर दी। ऐसा ही लगभग प्रत्येक धर्म मे हुआ। जिन्होंने भी कोई आदर्श स्थापित किये उन्हें ईश्वर मान लिया गया और उनकी शिक्षाओं को जीवन मे उतारा कम और गाया ज्यादा गया। ऐसे में समयानुसार प्रत्येक धर्म में धीरे धीरे विकृतियों का समावेश होता गया। आज धर्म के नाम पर कत्ल हो जाते हैं तो प्रश्न उठता है कौन सा धर्म ऐसा करने की आज्ञा देता है? आज धर्म के नाम पर स्त्री का शोषण होता है तो किस धर्म में ऐसा कहा गया? आज प्रत्येक धर्मस्थल के बाहर भिखारियों अपाहिजों का जमावड़ा देखने को मिलता है, जो सन्यासी या भक्त होते हैं, उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ जाते हैं तो कौन सा धर्म ऐसा करने को कहता है? संसार में मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं लेकिन इतनी सी बात का प्रसार नहीं किया जाता अपितु अन्य आडंबरों में जनमानस को लगा दिया जाता है। उनका ध्यान भटका दिया जाता है। पिछले जन्म के कर्मों का विधान बता एक तरह से इग्नोर करने की शिक्षा दी जाती है वहीं मंदिर निर्माण के लिये खुले हाथों से दान करने का आह्वान किया जाता है जबकि उन्हीं मंदिरों के बाहर बेबस लाचार और असहायों को एक वक्त पेट भरने का साधन भी नहींहोता तो प्रश्न उठता है – यह कैसा धर्म जो जीते जागते भगवान को छोड़ पत्थर की मूर्तियों को पूजने का ज्ञान देता है? ऐसे अनेक प्रश्न उठाती चलती हैं लेखिका लेकिन इतनी सहजता से आपको लगता है सही कहा क्योंकि ये प्रश्न सबके मनों में उठते अवश्य हैं।
आज के समय में धर्म के नाम पर होते शोषण का जीवंत दस्तावेज है -सेज पर संस्कृत।
अवश्य पढ़ें जाने योग्य उपन्यास जो पाठक की चेतना को तर्कसंगत रूप से जागृत करता है। धर्मग्रंथों में लिखा गया है भक्त को ही भगवान मिलते हैं तर्क करने वाले को नहीं क्योंकि जो तर्क करेगा वो मूल तत्व से वाकिफ हो जाएगा तो धर्म की हुकूमत फिर किस पर चलेगी? धर्म आज व्यापार है। एक ऐसा धंधा जो कभी मंद नहीं पड़ता। ऐसे में कौन चाहेगा तर्कसंगत वार्ता जनमानस तक पहुंचे और वो जागृत हो। कुछ लोगो की काँव काँव से उनपर फर्क भी नहीं पड़ता क्योंकि धर्म की जड़ें इतनी गहरी जमा दी गयी हैं कि अब चाहो तो भी नहीं उखड़ी जा सकतीं।
आज इस घटना ने उपन्यास पर लिखवा लिया वर्ना जब से पढ़ा तब से सोचती ही रही आज लिखूंगी, कल लिखूँगी। अब प्रश्न ये है कट्टरपंथी उन्हें सहज जीवन जीने देंगे? उपन्यास में तो कहानी एक अलग ही मोड़ पर मुड़ जाती है और धर्म का एक और घिनौना चेहरा सामने आता है। लेखिका ने केवल धर्म ही नहीं बाजारवाद की भेंट चढ़ते लघु उद्योगों की चिंता पर भी प्रकाश डाला है जिसके दुष्परिणाम कैसे एक परिवार को भुगतने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य मुद्दे भी साथ साथ चलते रहे। यदि आप जानना चाहते हैं कैसे जनमानस का दोहन होता है, कैसे उनके विवेक को जकड़ा जाता है तो एक बार सबको यह उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिये।
राजकमल से प्रकाशित उपन्यास मील का पत्थर है जो धर्म में व्याप्त जड़ताओं और कुरीतियों पर प्रहार करता है।
वंदना गुप्ता