राष्ट्रभक्ति की आड़ में ही सत्ता अपना
रास्ता बना लेती है : प्रियदर्शन
प्रेस में पे-रोल में घटते पत्रकारों की संख्या अच्छा संकेत नही है : आशुतोष भारद्वाज
रायपुर। निरंतर पहल पत्रिका के स्थापना दिवस समारोह में नामचीन पत्रकारों को सुनना बहुत ही सुखद अनुभव था। इस अवसर पर ‘हमारा समय और मीडिया की चुनौतियाँ’ विषय पर एक गम्भीर विमर्श का विशेष आकर्षण रहा। अभिव्यक्ति के बढ़ते खतरों ने मीडिया के कामकाज को गहरे तक प्रभावित किया है। प्रसिद्ध लेखक पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने देशभर में प्रेस में पे-रोल पर पत्रकारों की चिंतनीय रूप से घट रही संख्या को एक बुरा संकेत बताया।
पत्रिका के संपादक समीर दीवान ने आधार वक्तव्य में कहा कि निरंतर पहल- खेती, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे महत्वपूर्ण विषयों की धुरी पर ही निकलती है और यह किसी तरह की क्रांति के लिये तो हरगिज नहीं है।
निरंतर पहल का प्रकाशन विगत 15 महीनों से हो रहा है। और इसे इसके कंटेंट और प्रस्तुतिकरण के लिए सराहना होती रही है। एनडीटीवी के कार्यकारी संपादक श्री प्रियदर्शन ने रूपक में ही कहा देशभक्ति की आड़ में ही सत्ता अपना रास्ता बना लेती है। आशुतोष मिश्रा चितकारा यूनिवर्सिटी ने मीडिया में नई तकनीक की आमद और उसके होशपूर्ण इस्तेमाल की चुनौतियों की चर्चा की। समारोह में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ सुशील त्रिवेदी ने सभी वक्ताओं के उद्बोधन पर प्रतिक्रिया में कहा कि अब ग्लोबलाइज़ेशन की जगह डी-ग्लोबेलाइजेशन, पॉपुलेशन की जगह डि-पॉपुलेशन ने ले ली है। ऐसा नही है कि केवल इमरजेंसी के समय ही सरकार की गलत नीतियों पर विरोध स्वरूप सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ दी जाती थी बल्कि इससे काफी पहले 1942 में भी इस तरह विरोध जताने की शुरुवात हो चुकी थी।
बड़े दिनों बाद इस तरह से सुपढ़ , भाषा से समृद्ध, अनुभवी वक्ताओं के विचार सुनने का अवसर मिला । बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, रंगकर्मी के अलावा निरंतर पहल के पाठक उपस्थित थे। प्रियदर्शन ने बड़ी सहजता से अपनी बात कुछ उद्धरणों के साथ रखी और हमारे समय मे मीडिया के विविध प्रकार की चुनौतियाँ की और उनसे निबटने की जरुरतों और तरीकों की चर्चा की ।
प्रियदर्शन ने ‘निरंतर पहल’ पत्रिका के सुरुचिपूर्ण होने, उसकी गंभीरता और उसकी भाषा, उसकी सामग्री चयन की प्रशंसा करते हुए कहा कि इसमे साहित्य के पन्नों पर उदयप्रकाश जैसे कहानीकार की ‘नेलकटर’ जैसी कहानी और तेजिंदर की ‘शहंशाह’ जैसी कविता का दिखना सुखद है। सब कुछ ठीक होते हुए इसमें एक बात खटकती है कि इसमें कोई चुभने वाली बात नहीं है। “यद्यपि सीमित संसाधनों से निकल रही एक सुघड़ पत्रिका है।
इस गठे हुये कार्यक्रम की सभी ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की। लंबे अंतराल के बाद नई आवाजों को सुनने का अवसर मिला और पत्रकारिता की चुनौतियों से निबटने पर संजीदा बातचीत हुई। अंत में डॉ रुपिंदर दीवान ने सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त किया।