पुत्रेष्टि [कहानी] – पुत्रेष्टि
तपेश भौमिक
घर पर जबसे नई बहू अनन्या आई है, आस-पड़ोस में उसकी तूती बोलने लगी है जब कि अपने ही घर पर वह बेगानी-सी रहने लगी। कहीं किसी काम में उसकी हिस्सेदारी नहीं। कुछ पूछे सासु माँ से तो जवाब नहीं। देवर का घूरना उसे डराता कभी। जब तक पति या ससुर जी घर में हैं तब तक सासु माँ की नौटंकी चलती रहती और वे घर से निकले नहीं कि वही बेगानी हरकत।
इसका अर्थ यह कतई नहीं कि अनन्या झगड़ालू या अन्य कुछ रही हो। नाप-तौल कर बोलने में तो मानो उसने महारत हासिल कर रखी हो। कोई उसकी नजरों के आगे अशिष्ट आचरण करे और वह चुप्पी साध ले ऐसी भी नहीं है वह। इतने कायदे से कहे कि कड़े से कड़े की भी बोलती बंद हो जाए। कुछ लोग ऐसे होते ही हैं जो जहाँ जाते हैं, वहीं छा जाते हैं और यह बहू भी उसी विरादरी की है। बहू की बातों में जो अपनापन झलकता उसके बदौलत ही लोग खींचे चले आते। आस-पड़ोस एवं यहाँ तक कि ससुर जी और उनके विरादरीवालों का भी यही मानना है जब कि सासु माँ को यह बात गले नहीं उतरती। लोग जैसे ही बहू की प्रशंसा करते वैसे ही उन्हें मिर्ची लग जाती।
कहते हैं न कि तकदीर और तकलीफ का एक अदृश्य नाता भी होता है। किसी की ऐसी तकदीर नहीं जिसे तकलीफ न हो। इसलिए यह कहना ज़रूरी है कि बात यहाँ तक होती तो वह शायद अपने आप को एडजस्ट कर लेती। आस-पड़ोस में इन माँ-बेटे की जोड़ी की लगती बातें खूब चलती। जहाँ कोई पारिवारिक कलह हो तो लोग इन्हीं को बुलाते। अब नई बहू आई तो नई या पुरानी सारी बहुएँ और युवती लड़कियाँ अनन्या के आगे-पीछे मंडराने लगीं। क्या सुई-धागे की उलझन, क्या ननद-भौजाई की अनबन, यहाँ तक कि पति-पत्नी की अनबन आदी सारी बातों की पेचीदगी भरी उलझनों में एक निष्पक्ष सलाहकर के रूप में उभरने लगी थी वह।
यही कारण था कि दो-चार सप्ताह बीतते-न-बीतते अनन्या एक अदृश्य प्रतियोगिता के भँवर में फँसती चली गई। समाज-विरादरी में सासु-माँ और देवर जी की साख घटने लगी। अब जो आए वही अनन्या के बारे में पूछा करे। अब इस माँ-बेटे की जोड़ी को यहाँ तक शिकायत होने लगी कि आस-पड़ोस की औरतों और बड़े-बूढ़ों पर तो मानो बहू ने जादू चला रखा है, सब उसीकी तारीफ करे! जलन क्यों न हो जहाँ किसी की नेतागिरी का परचम नीचे की ओर खिसकने लगे और उसकी जगह किसी दूसरे नेता का परचम लहरना चाहता हो तो पहला नेता हाथ पर हाथ धरे कैसे बैठा रह सकता है।
अब आस-पड़ोस में इस माँ-बेटे की जोड़ी के दब-दबे का पारा नीचे खिसकने लगा क्यों कि कूट चाल में पारंगत इन दोनों में से किसी की अब किसी पर कुछ जम नहीं रही थी। पड़ोस से गीतू की माँ को छोड़ कर औरतों ने बहू जी को उनकी सासु और देवर जी के बारे में एक-एक समाचार देकर अपने को परितृप्त समझने लगी थीं क्योंकि उनके भी पुराने घाव अब तक भरे नहीं थे। इन बातों में गीतू की माँ और देवरजी के बारे में भी मसालेदार बातें होतीं। नतीजतन माँ-बेटे और गीतु की माँ की तिकड़ी की मिलीजुली कारगुजारी भी अनन्या के लिए नींद हराम करनेवाली बात हो गई। पतिदेव तो देव ही निकले जिन्हें सांसारिक बंधनों से कोई लेना-देना न था। स्कूल मास्टरी और ट्यूसन से जो समय बचता वह भगवान को अर्पित हो जाता। अपने ही घर के आँगन में एक छोटा-सा मंदिर जहाँ बैठ कर गीता का पाठ करना एवं बाकी समय को गाँव के चौपाल में बिता देते। किसी भी धार्मिक कर्मकांड में भागीदारी होना इनका शगल शुरू से ही रहा है।
दरअसल लोग सासु माँ और देवर जी की हेकड़ी के कायल थे न कि उनके गुणों के। पहली बात यह थी कि औरतें अपनी समस्या इन सासु माँ महाशया से कहतीं और मर्द छोटू भैया से। लेकिन छोटू भैया निस्वार्थ सेवा किसी को न देते। वे हर काम का कमीशन जरा-सा घुमाकर तथा बहाने बना कर जरूर ले लेते। लोगों को भी यह पता था कि वे अपने दम पर सुलह करवाते हैं। डरा-धमका कर सुलह करवाने में तो वे उस्ताद ही हैं। एक पक्ष उनसे खुश हो जाता तो दूसरा पक्ष नाखुश। लेकिन कोई खुल कर विरोध करे इतना साहस इलाके भर में किसी में शायद ही रहा हो!
अनन्या की बातों और विचारों का जादू ऐसा चला कि औरतें अपनी शारीरिक समस्या को लेकर तो आने ही लगीं, साथ ही बच्चे की उल्टी-दस्त या नज़ला-बुखार के लिए या बच्चा केवल रो रहा हो तब भी उसके पास निदान पाने के लिए आने लगीं थीं। वह अब तक बच्चे की माँ न होते हुए भी अनुभवी माँ जैसी सलाह-मशबीरा देने लगी थीं जब कि ससुराल आए हुए अभी गिनती के चार महीने भी पूरे नहीं हुए थे। इसी बीच उसने होम्योपैथी के द्वारा कितनों को ही, विशेष कर बच्चों को कई बीमारियों से राहत दिला चुकी थी। वह अपने पूर्व तजुर्बे को वखूबी आज़माने लगी थी जिसका सीधा असर उसकी लोकप्रियता पर दिखने लगी।
जब तक शादी नहीं हुई थी तब तक अपने पिताजी की होम्योपैथी डिस्पेन्सरी में बतौर सहायक का काम सम्हाल देती थी। कभी-कभी तो केस-स्टडी में पिताजी उससे मशबीरा करके ही अंतिम निर्णय लेते थे कि फलाने पेशेंट को कौन-सी दवा दी जाए। तज़ुर्बा तो था ही, अब सासु माँ के तानों ने उसे और आगे बढ़ा दिया था। भीतर से एक जिद्द उस पर हाबी होने लगी थी। कोई मेहमान घर आते तो घर के माहौल से उन्हें यह समझते देर न लगती कि इस घर में सास-बहू में एक अदृश्य प्रतियोगिता चल रही है। सासु माँ तो आजकल यह भी कहने लगी थीं कि वह तो बेटे को व्याह करवा कर घर में बहू नहीं बल्कि चेरिटेबल डिस्पेन्सरी की डॉक्टरनी ले आई है। शाम को जब दो-चार लोगों की भीड़ लग जाती तो फिर ताने सुनने पड़ते। “बहू, मिलने का समय वाला एक साइन-बोर्ड टांग देना। अरे! मेरे ही कारण इस बहू को इतना प्रचार मिल गया है। जब कोई हमसे बात करने आए तो यह बीच में टपक पड़ती है।” “टोटके वाला निदान कोई हमसे ज्यादा क्या दे सकेगा।” सासु माँ बात-बात पर उन्हें कहतीं जो बहू के पास आया करतीं। पिताजी की डॉक्टरी और दादी माँ के टोटके, सब कुछ मिला-जुला कर नई बहू को राज-वैद्य नहीं तो रानी-वैद्य ज़रूर बना दिया है। चिकित्सा से संबन्धित सलाह देने में दवा की जगह अब तक वह परामर्श ही अधिक दे रही थी। वह बात-बात पर सतर्क करती कि जमाना ‘माँ-मौसी’ का न रहा। अब तो ‘जितनी दवा उतनी बीमारी’ वाली बात आ गई। हमें डॉक्टर की सलाह ज़रूर ले लेनी चाहिए। इस बीच ‘आँगन-बाड़ी’ की सेविकाओं को भी बहू की भनक लग गई थी। उन्होंने अपने हेल्थ सुपरवाइज़र तक बात की जानकारी दे दी थीं। थोड़े ही दिनों में नई-बहू नामक प्राणी बहुजी में तब्दील हो गई थी।
अब तक ग्रामीण स्वास्थ्यकेंद्र क्या, ब्लॉक स्वास्थ्य-केंद्र तक भी बहुजी की खबर जा चुकी थी। किस बीमारी के लिए किस डॉक्टर के पास जाना चाहिए, भला बहुजी से ज्यादा कौन जाने! एक दिन छोटू दादा कुछ ज्यादा ही पीकर घर लौटे तो उनकी आँखों की खुमारी देख कर ही बहुजी समझ गईं कि उनसे दूर खिसक जाना चाहिए। वह खिसकना ही चाह रही थी कि… .”भाभी! सर दुख रहा है, सर दबा दो न।” छोटू ने धूर्तता भरे स्वर में विनती की। “देवरजी! मैं अपने पति के सर दबाने के लिए आई हूँ। आप अपने दिल में कोई-सा लड्डू पका रहे हो तो उससे बाज आइए। भाभी का दर्जा दीजिए। यही हमारा संस्कार भी है।” इतना कहकर वह अपने कमरे में जा ही रही थी कि सासु माँ ने जरा ऊंचे स्वर में छोटू भैया के आगे खाना परोसने को कहा। इस पर बहुजी ने साफ़ शब्दों में कह दिया कि उनकी हालत ठीक नहीं है, वे स्वयं आकर खाना परोसें। इतना कह कर वह अपने पति से मोवाइल पर बातें करने लगी। सासु माँ के दिमाग का पारा इतना चढ़ा कि पहले का जमाना होता तो बहू की खबर ले लेती। लेकिन वह भी कम सयानी नहीं थी! उन्होंने जुबान पर आई गाली को निगल कर इतना भर कहा, “इससे घर का काम-काज न सम्हलेगा।” बुदबुदाती हुई खुद ही खाना परोसने चली गई। उनके समर्थन में लाड़ला छोटू बेटा आज तो एक कदम आगे बढ़कर कहने लगा,
“माँ! अपनी बहू के लिए दवाखाना खोल देना, इनसे रसोई न सम्हलेगी। हम दवा पीकर रह लेंगे।” साथ ही उसने भाभी की बातों का जवाब इतनी सारी लड़खड़ाती आवाज में दिया कि बहुजी की जुबान तक यह बात चली आई कि……तो दारू कौन पीएगा?’ लेकिन उनकी समझदारी ने उन्हें रोक दिया। बात बढ़ने ही वाली थी कि टल गई।
इस नए जमाने में छोटू भैया बड़े सम्हल कर चलते हैं लेकिन प्रायः कोई न कोई ज़हमत आड़े आ ही जाती है। गीतू की माँ कई दिनों से छोटू भैया को चेता रही थी कि उसका एबौर्सन करा दे। वह उसके ही कारण पेट से रह गई है। पति कोई डेढ़-दो साल से बाहर है तो कैसे कुछ गोल-मोल बात की जा सकती है! छोटू भैया कई दिनों से उसकी बातों को नज़र-अंदाज करते जा रहे थे। लेकिन आज तो उसने आखिरी चेतावनी दे रखी है कि एबौर्सन न कराए तो वह आत्म-हत्या कर लेगी। उससे पहले पत्र लिख कर उसके पेट से रहने का खुलासा भी कर देगी ताकि गुनहगार को अपने किए की सजा मिले।
इसलिए उस दिन शाम को छोटू भैया ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी। वे जब खाना खा कर उल्टी करने लगे तब तक बड़ी बहू दौड़ कर अपने कमरे से बाहर आ गई थी। इससे पहले कि सासु माँ बाहर आती। अब सासु माँ एक तरफ छोटू को जहाँ झिड़कने लगीं वहीं दूसरी तरफ बहूजी को कोई दवा देने की बात कहने लगी। “नहीं माँ, कोई दवा की आवश्यकता नहीं है, अभी सो जाएंगे तो आराम मिलेगी।” इतना कह कर दुर्गंध के कारण नाक पर साड़ी का पल्लू बांध कर वह सफाई करने लगीं। तभी उल्टी की आवाज सुनकर भीतर कमरे से ससुर जी चिल्लाने लगे कि क्या हुआ। इस पर सासु माँ जब तक कुछ कहती तब तक अनन्या ने उन्हें इशारे से चुप रहने को कह कर अपनी आवाज को कुछ कराहने जैसी बनाकर कहा, “कुछ नहीं पिताजी, थोड़ा अम्ल का प्रकोप है। मैंने थोड़ी-सी उल्टी कर दी है। कोई बात नहीं, अभी दवा ले लेती हूँ।” सासु माँ ने धीरे से केवल इतना कहा, “झूठी कहीं की!” आज शायद पहली बार उन्होंने बहू की ओर प्यार से देखा था। उनकी आँखों में खुशियों के आँसू छलक आए थे।
बात बहुत बड़ी हो जाती अगर ससुरजी उठकर आ जाते और छोटू का नजारा देख लेते; कोहराम मच जाता। सीधे बेल्ट से पिटाई कर देते। इस तरह की बारदात दो-चार बार हो चुकी थी। एक बार तो ऐसा हुआ कि छोटू बाप को पीटने के लिए उद्यत हो गया था। तब इस बहू ने ही हाथ-पाँव जोड़कर उस कलंक से छोटू को बचाया था। एक तरफ बाप ‘बब्बर-शेर’ तो दूसरी ओर छोटा बेटा ‘बिगड़ैल-षंड!’ और क्यों न हों? आर्मी में कई बरस तक सूबेदार के पद पर रह कर कई पदक हासिल कर अब रिटायर हुए थे। बड़े बेटे ने आर्मी ज्वाईन नहीं की। बदले में मास्टरी की नौकरी में जम गए। फिर छोटे को भी आर्मी की नौकरी के लिए तैयार होने को कहते, लेकिन गाँव में लीडरी करने से इनको फुरसत कहाँ !
पहले सासुजी के दिमाग में एक बात बार-बार आने लगी थी कि इस बहू की बच्ची को छोटू की बहू लाकर नीचा दिखाऊँगी तो इसके होश ठिकाने लग जाएंगे। लेकिन छोटू की बदनामी इतनी फैल चुकी थी कि कोई बेटी क्यों दे। लेकिन कल रात जो हुआ उस घटना ने सासु जी के दिल को पसीज दिया था। फिर भी वह इतनी आसानी से नरम पड़ने वाली भी नहीं थीं। वह सोच रही थी कि बहू बहुत ही सयानी है। इसके साथ तो बहुत ही सोच-समझ कर पेश आना चाहिए। बार-बार सोचती कि वह बहू के आगे हथियार नहीं डालेगी। वह चाहती कि बहू लोग-समाज में इतना भर कहती रहे कि आज मैं जो कुछ भी हूँ वह अपनी परम पूज्य सासु माँ की बदौलत ही हूँ। लेकिन बहू भी इतनी घाघ कि सासु के आगे जरा भी घास डालने को तैयार नहीं। यहाँ गाँव-समाज में औरतें जैसे-जैसे बहू के पीछे डोलने लगीं वैसे-वैसे सासु माँ का मन सौतिया डाह के कारण जलने लगी। वह मौके-बेमौके बहू को नीचा दिखाने में तूल जाती।
कोई दो-ढाई साल तो बीत ही गए होंगे, अब तक सासु माँ की गोद में एक अदद पोता उपहार स्वरूप देना था लेकिन यह क्या! न बहू कुछ कहे और न बेटा। अतः सासु माँ एक नया उपद्रव मचाने लगी। एक दिन जब यह समाचार मिला की पड़ोसिन के यहाँ लाल की पत्नी के गोद हरे हो गए तो इन सासु माँ का चेहरा अचानक मुरझा गया और अनन्या के प्रति जहर उगलने को तैयार हो गई।
“बहू! तेरी शादी के तो तीन वर्ष हो गए, पोते का मुंह कब दिखाएगी? लाल की बहुरिया तो तेरे से पीछे आकर बेटा जन कर सबकी दिल जीत ली। तू तो केवल डॉक्टरनी बनी फिरा करती और तेरा खसम मास्टरी। अपने घर के अंधेरे को दूर करने की कोई सुध है तुम दोनों को?” कहते हुए सासु माँ के चेहरे पर कई प्रश्न चिन्ह उभर आए थे। ललाट पर उभर आई आड़ी-तिरछी रेखाएँ साफ पढ़ी जा सकती थी। “माँजी मैं कुछ समझी नहीं।” अनन्या ने बात की गाँठ को समझ कर भी सासु की जुबान की ऐंठ का कुछ और खुलासा करवाना चाहती थी। “तू तो खुद ही इतनी समझदार है कि तुझे समझाना सासु के बस की बात नहीं।” सासु माँ ने तोहमद जड़ते हुए कहा। “धीरज धरिए।” अनन्या ने बेहद समझदारी से प्रत्युत्तर में कहा। “आजकल की लड़कियां तो फैशन की दीवानी है। तू भी उन्हीं की बिरादरी की है। बच्चा जन कर झंझट मोलने का जोखिम उठाना नहीं चाहती, और क्या , तू तो खुद डाक्टरनी बनी फिरती है। कोई ऐब है तो दवा-दारू कर।” सासु माँ ने उत्तेजित होकर कहा। इस बात से मानो अनन्या बिफर गई। “माँजी अभी आप शांत हो जाइए। हमें भी दुनियादारी मालूम है। अन्य दस-पाँच से मुझे न जोड़े तो अच्छा है। इतना कह कर उसने वहाँ से हट जाना ही ठीक समझा।
छोटी ननद ने भी यही बात छेड़ी तो उसने इतना भर कहा, “आपके भैया भी तो कुछ रुचि नहीं दिखाते, वे तो सारा समय स्कूल और ट्यूशन में ही व्यस्त रहते हैं। उन्हें कहाँ फुर्सत कि अपनी भी कोई है जिसके साथ कुछ आंतरिक होना चाहिए!”
“……..और उनकी रातें भी अपने दिन भर की थकावट दूर करने के लिए होती हैं! यही न?” ननद ने केवल चुहल के अंदाज में कहा था या अन्य कुछ, अनन्या को यह समझ में नहीं आया। फिर भाभी को निरुत्तर देख यह कहा था कि कोई तो तरकीब निकालो कि तुम माँ बन सको। खुद समझदार हो और सहज समाधान का रास्ता तुम्हारे आस-पास हो तो उसे अपनी भलाई के लिए काम मेँ लगाओ, तुम्हें कौन रोकेगा। प्रयोग में लाने भर की देरी है, बस। इस बात को सुनकर वह भीतर-ही भीतर तिलमिला कर रह गई थी। एक बार मन हुआ कि वह इस बात का खुलासा कर दे कि तुम्हारे भैया तो एकदम निष्पंद हैं। उन्हें तो शादी ही नहीं करनी चाहिए थी। अनन्या क्या कहना चाह रही थी, यह शायद ननद भाँप गई थी जिसके कारण उसने तत्काल बात को विराम दे दी।
अनन्या अब तक यह समझ चुकी थी कि उसे कुछ ठोस निर्णय लेने से पहले प्लान बना कर चलना चाहिए। साथ ही यह भी सोचने लगी कि उसकी जगह कोई दूसरी लड़की होती तो कबकी इन चेहरों पर कालिख पोत कर चली जाती। अब उसे वे कुछ पुरानी बातें याद आ गईं जब सासु माँ जान बूझ कर छोटू के घर आने के बाद उसे अकेली छोड़ कर घंटों घर से खिसक जाया करती थी। उसने कई दफ़ा इस बात की शिकायत भी की थी कि उसे इस प्रकार अकेली छोड़ कर न जाया करे क्योंकि उसे अकेले में डर लगता है। इस पर सासु माँ कहती कि घर पर तेरे देवर तो था ही, तू कौन अकेली रह गई थी?
उधर ससुरजी तो दिन भर अपने चाय-चौपाल में चमचों के साथ चकल्लस करते तथा मुकरियाँ भाँजते ; अपने देह पर मूक्कियाँ लगवाते। फौज के दिनों की कितनी ही मन गढ़ंत कहानियाँ उनकी झोली से निकलतीं जिससे निखट्टुओं का मन बहलता रहता। साथ ही अपनी गांठ की कौड़ी से कभी-कभी उन्हें चाय भी पिला देते। पेट में चूहों की हरकत होने लगती तो घर आते। खाना खाते हुए भी हरेक आइटम पर छींटा-कसी करते रहते —दाल में नमक कुछ ज्यादा ही पड़ा है, सब्जी में तेल-मसालों की बाढ़ आ गई है, आदि-आदि। इनके अलावा जब कराहने की नौवत आती तो बहू की मुफ्त सेवाओं के लिए आ धमकते। कभी-कभी सासुजी से कुछ खुसर-फुसर भी करते। एक दिन पर्दे की ओट से अनन्या ने सुना कि ससुरजी पूछ रहे हैं कि क्या कुछ काम बना? जवाब में सासु ने जो कुछ भी कहा था उसे सुन कर तो उसके कान गरम हो गए थे। वह पूरी बात सुन पाई थी कि नहीं रसूई में बिल्ली ने खीर की कटोरी गिरा दी जिसकी आवाज से सभी चौकन्ने हो गए थे। उसे भी रसोई की ओर भागना पड़ा था।
पति महाराज स्कूल और ट्यूसन को लेकर जितना व्यस्त रहते, उससे कहीं ज्यादा व्यस्तता दिखाते। अनन्या जब भी कुछ कहती तो वे यह कहकर किनारा कर लेते कि अभी नहीं कमाएंगे तो कब कमाएंगे ? तुम्हारी नामजदगी पर चार लाख की बीमा पॉलिसी ली है मैंने। उनके किस्त भरना है कि नहीं? अनन्या कुछ गुफ्तगू करे कि सासु माँ हाजिर हो जाती, आज भी हो गई। वह मन में यह सोचने लगी कि यह कैसी सास है जो बेटे और पतोहू के बीच आड़े आ जाती है! अब बिस्तर पर भी वह जब जाए तब किसी न किसी बहाने सासु माँ भी कमरे में आ धमकती और जब तक बेटा बिस्तर पर निढाल होकर पड़ न जाता तब तक इधर-उधर की बातें एक पर एक जड़ती रहती। इस क्रम में कभी बाधा नहीं पड़ती।
परोसन में महेश की बीबी के भी पौं भारी हो गए जो अनन्या से एक साल बाद व्याह कर आई थी। ……… और तो और गीतू की माँ भी अवैध पुत्र-सुख में बीती बातें भूल गई थी। गीतू का बाप भी पुत्र-प्राप्ति को अपना अहो-भाग्य समझ लिया था। इधर सासु माँ पुरानी कहा-सुनी भूल कर गीतू के भाई की देख-रेख को अपना कर्तव्य बताने लगी। अपने को पाक साफ सिद्ध करने हेतु यह कहने लगी कि अरे पड़ोस के घर चाँद निकला तो उसकी रौशनी हमारे आँगन में भी पड़ेगी ही। हमे भी खुशी है, हम उन जलसखट्टियों में से नहीं हैं कि दूसरों से डाह करे। इधर छोटू ने भी इतमिनान की सांस ली कि बात बिगड़ते-बिगड़ते टल गई। सासु माँ मन में यह सोचने लगी कि तक़दीर फूटी हो तो ऐसा ही होता है, अपने घर का चाँद पड़ोस के आँगन को रौशन करे। अनन्या केवल इस गुत्थी को सुलझाने में लगी कि इन कूट-चाल कारस्तानियों के बीच वह अपना जीवन कैसे बिताएगी।
उस रात पहली बार पति-पत्नी में कुछ गुफ्तगू हुई, दोनों एक-दूसरे के साथ घंटों बतियाने लगे। अंतरंगता बढ़ी और निर्णय लिया गया कि दोनों ही संबन्धित डॉक्टर से सलाह मशबीरा करेंगे। दूसरी सुबह अनन्या और उसके पति देव के चेहरों पर आशा-निराशा के बादल आते-जाते रहे। पतिदेव बात को कल पर टालने ही वाले थे कि अनन्या ने ही ज़ोर देकर कहा कि चलो आज ही क्यों न हम डॉक्टर के पास चले। किन्तु इस बार भी वे कतर्व्योत करने लगे तो अनन्या का साफ जवाब था कि डर किस बात का? कुछ तो रिजल्ट निकलकर आएगा। एक बार तो पतिदेव ने यह कह कर किनारा कर लेना चाहा कि पहले तुम जाकर दिखा आओ, फिर अगर जरूरत पड़ी तो देखा जाएगा।
पहले तो वे स्त्री-रोग विशेषज्ञ के पास गए लेकिन वहाँ से डॉक्टरनी साहिबा ने शुक्राणु विशेषज्ञ के पास रेफर कर दिया । शुक्राणु देने के तरीकों से पतिदेव आनाकानी करने लगे। फिर राजी हुए भी तो अनन्या को उल्टी-सीधी धमकियाँ देने लगे। तब डॉक्टर साहब ने उन्हें इतना भर कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है, कोई न कोई रास्ता तो जरूर निकल आएगा। तब कहीं वे आश्वस्त हो सके। शुक्राणुओं के सेंपल दोनों के जब लिए गए तो पति कुछ और आश्वस्त हुए कि सरासर संदेह उन पर नहीं है।
अब जब रिपोर्ट लाने की बात हुई तो पति देव फिर से ‘आज नहीं कल ’ करने लगे। वे बहाने बनाते रहे और अनन्या मिन्नत करती रही। वह कहने लगी कि वह अकेली वहाँ नहीं जा सकती क्योंकि ऐसी जगहों पर पति-पत्नी दोनों साथ जाते है। ऐसी जगहों पर अकेली औरत का जाना तौहिनी है।
अंत में हार कर वह अकेली ही जाने लगी तो सासु माँ ने पड़ोस की गीतू की माँ को साथ ले जाने को कहा। वह इस बात पर राजी नहीं हुई। सासु माँ को ही साथ चलने को कहा। हार कर वह अकेली ही गई। जाने पर उस क्लीनिकल लैब के एक नर्स ने बताया कि कोई औरत आई थी नाम बता कर क्लीनिकल रिपोर्ट के बारे में पूछ रही थी लेकिन उसे साफ मना कर दिया गया कि ऐसे रिपोर्ट केवल पति-पत्नी के साथ आने पर ही दिए जाते हैं। नर्स ने जब उस औरत के नाक-नक्श के बारे में बताया तो अनन्या को यह समझते देर न लगी कि वह औरत और कोई नहीं, वह गीतू की माँ ही रही होगी।
उसने जब रसीद दिखा कर रिपोर्ट मांगी तो डॉक्टर साहब ने साफ-साफ कहा कि उसे अपने पति के साथ आना चाहिए। समस्या कहाँ है शायद इतना तो उन्हें भी पता हो। उन्होंने यह भी कहा कि इस जटिल समस्या पर आपके पति को कोई चिंता नहीं है? आप पति के साथ ही आइए।
यह बात सुनते ही वह एकदम-सी मुरझा गई थी। बहुत कहने पर भी रिपोर्ट नहीं दी। उसे वहाँ से अपने आपको बाहर निकाल कर ऑटो में बिठाना परेशानी का सबब था। उसके पाँव मन-मन भर भारी हो रहे थे।
पति रात को घर आए तो उसने कुछ भी नहीं पूछा। अनन्या भी स्वयं कुछ बोलने से कतरा रही थी। उस जैसी बुद्धिमति लड़की को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि बात को कहाँ से शुरू करे। उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह पहले इस प्रसंग पर कुछ भी नहीं बोलेगी। पति महोदय को कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह भी अपनी ईगो के कारण कुछ भी कहने से कतराती रही जबकि पति बचता रहा।
दूसरी सुबह सासु माँ ने जब बात छेड़ी तो उसने कुछ भी नहीं कहा और फफक कर रो पड़ी। सासु ने यह समझ लिया कि हो न हो बहू में ही खोट है, और नासमझ-सा आम सासों की तरह बहू को बुरा-भला कहने लगी। अनन्या अब भी चुप थी। उसने केवल इतना भर कहा कि डॉक्टर साहब ने उसे पति को साथ लेकर जाने को कहा था। अब सासु माँ ने आखिरकार धमाका कर ही दिया, “ मैं सीधी-सी बात कहे देती हूँ कि तेरा मुँह देख कर रहनेवाली नहीं हूँ। पोते का मुँह कब दिखाएगी, यह साफ-साफ कह देना नहीं तो अपना रास्ता आप देख लेना। तू तो खुद डॉक्टरनी बनी फिरती है, अपना हिसाब नहीं लगा सकती? हमने तो यह सोच कर तुझे घर लाया था कि कोई अड़चन हो तो सम्हाल लेगी।
उस रात बहुत अनुनय-विनय करने पर पति ने कहा कि वह शादी नहीं करना चाहता था। माँ-बाप ने जबरन शादी करवा दी, यह कह कर कि उन्हें किसी भी सूरत पर वंश को आगे बढ़ाना है। उसने आगे और जो कुछ भी कहा उसे सुनकर अनन्या का कलेजा मुँह को आ गया। उसने कुछ देर के लिए चुप्पी साध ली। फिर सम्हल कर कहा, “हमें हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहना चाहिए।” पतिदेव का चेहरा अब तक निर्विकार था। अचानक कुछ पसीने की बूंदें छलकने लगीं। वह कुछ कहना चाह रहा था पर हकला कर रह गया। “आप घबराइए नहीं, डॉक्टर के पास चलिए तो सही। उन्होंने कहा है कि समस्या है तो समाधान भी है। हम तो इसी काम के लिए बैठे हैं। थोड़ी-सी लंबी ट्रीटमेंट की अवसयकता हो सकती है।” अनन्या ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा। ‘सच?’ पतिदेव ने उसकी आँखों में आँखें डालकर आज पहली बार देखा था। उस दृष्टि में प्यार का अतिरेक इतना था कि उन दोनों के बीच संशय की दीवार ढह गई। आज दरवाजा भीतर से बंद था। सासु माँ ने बाहर से आज भी दस्तक दिया था पर किसीने भी दरवाजा खोलने की ताकीद नहीं की।