….और मैं बन गया ‘मास्कमैन’
■ तत्सम्यक मनु
फरवरी 2020 के किसी तारीख की बात है। मैं बिहार की राजधानी पटना से परीक्षा देकर वापस घर को लौट रहा था, जिस ट्रेन के लिए सीट आरक्षित था, कैपिटल एक्सप्रेस थी। रात्रि के 11 बजे ट्रेन आई और मैं अपने गंतव्य को जाने के लिए पूर्वयोजित ‘लसीट पर बैठ गया, जो कि लोवर बर्थ थी ! उस तारीख में भी देश में ‘कोरोना’ अपनी मायाजाल फैलाते हुए बढ़ी जा रही थी, पटना में भी वायरस आ चुके थे, सिर्फ़ प्रमाणित होना बाकी था, किन्तु मैंने दूरअंदेशी को देखते हुए ‘मास्क’ लगाना शुरू कर दिया था। जिस कंपार्टमेंट में मैं बैठा था, मैंने देखा कि उस कंपार्टमेंट में ही नहीं, वरन पूरी बोगी में किसी यात्री ने मास्क पहने हुए नहीं थे। मैंने सामने की सीट पर बैठे सहयात्री भाई साहब से पूछ ही बैठा- ‘क्या सर कोरोना चली गयी क्या ? आपने मास्क नहीं लगाया है!’
रात्रि का समय होने के कारण हो या अन्य कारणवश प्रत्युत्तर में उन्होंने मुझसे कहा- ‘अरे भई, यह कोरोना-वोरोना कुछ नहीं है ! यह सरकार और डब्ल्यूएचओ का अपनी-अपनी कमजोरी छिपाने का प्रपंचमात्र है और तुम्हें मेरे मास्क न पहनने से इतनी ही असहजता है, तो मुझे एक मास्क दे दो !’
मेरे पास उस समय स्वयं पहने मास्क के अतिरिक्त, अतिरिक्त मास्क नहीं था, इसलिए मैंने बात आगे नहीं बढ़ाया और ‘क्षमाभाव’ से शुभ रात्रि कहकर अपनी सीट पर चादर तान सो गया ! अहले सुबह नींद तब टूटी, जब किन्नरबंधुओं द्वारा जबरन रुपये माँगे जाने लगे थे । मैंने उन्हें मना करते हुए आगे बढ़ जाने को कहा, लेकिन उसी समय पेपरसोप बेचने वाले आए और उनसे मैंने सोप खरीदा, तो देखा कि वे उसके साथ-साथ फेसमास्क भी बेच रहे थे। मैंने उनसे बिना हुज्जत किए एकदाम 55 रुपये में एक मास्क खरीदा, ताकि सामने के सीटवाले सहयात्री भाई साहब को दे सकूँ, क्योंकि उनके द्वारा रात में मुझसे माँगे गए ‘मास्क’ को गिफ़्ट के तौर पर प्रदान कर सकूँ ! सचमुच में, उनकी बातें मुझे इंस्पायर कर चुका था और मेरे दिल को स्पर्श कर चुकी थी !
अब सुबह के 5 बज चुके थे, किन्तु सामनेवाले यात्री मुझे दिख नहीं रहे थे। मुझे लगा वे नित्यकर्म में गए होंगे, पर काफी देर बाद भी वे जब अपनी सीट पर नहीं आए, तो मैंने अपर बर्थवाले सहयात्री से पूछा कि इस भाई साहब को नहीं देख रहा हूँ, तो उसने कहा कि वे तो 2 घंटे पहले ही उतर गए हैं !
मैंने वह मास्क उसी भाई साहब के लिए लिया था, लेकिन अपर बर्थवाले सहयात्री को मास्क देकर कहा- ‘भैया, मास्क पहनिए। कोरोना का प्रकोप बढ़ने लगा है ! उन्होंने मास्क लेते हुए ‘धन्यवाद’ कहा, किन्तु अन्य यात्री मुझे देखने लगे थे कि मैं मास्क उन्हें भी दूँगा, जबकि मैंने यह मास्क उन सभी के समक्ष ही 55 रुपये खर्च कर खरीदा था और बहरहाल उन सभी यात्रियों के लिए यह खरीद पाना संभव नहीं था, किन्तु मन में यह बात ठान लिया कि अपनी संचित राशि से और खुद सीकर जरूरतमंदों के बीच मुफ़्त मास्क बाँटेंगे !
जो भी हो, नियत समय से कुछेक घंटे की देरी पर ट्रेन गंतव्य जंक्शन पर लगभग 20 मिनट के लिए रुकी रही। उस दिन घर आने तक मेरे दिमाग में यह बात जोर-जोर से चलने लगी थी कि अगर कोरोना का प्रकोप बढ़ गया, तब क्या होगा, क्योंकि लोगों के बीच खुद के द्वारा मास्क खरीदने के प्रति इच्छा तो है ही नहीं, न ही मास्क पहनने के प्रति जागरूकता है?
घर पर मैंने ट्रेन वाली घटना व मेरे विचारों को यानी मुफ़्त में मास्क वितरण करने के विचारों को परिजनों के साथ शेयर किया। मास्क खरीदने में रुपये बहुत लग जाते, किन्तु खुद और परिजनों की इच्छाशक्ति ने मन की दृढ़ता को संबल प्रदान किया, साथ ही घर पर सिलाई मशीन ऐसे समय में बड़े काम आए और हम सबने मिलकर पहले सैकड़ों, फिर हजारों और फिर लाखों मास्क सी डाले और यह कार्य अनवरत जारी है। इसके साथ ही शनै: -शनै: लाखों की संख्या में मास्क खरीदे भी गए। शुरुआत के कुछ ही दिनों में हम पारिवारिक सदस्यों ने भौतिक दूरियों का पालन करते हुए कई हज़ार मास्क निःशुल्क वितरण कर दिए!
पहले जनता कर्फ्यू, फिर पार्ट-पार्ट कर लॉकडाउन भी लगने लगी, लेकिन मार्केट आने-जाने वक़्त आस-पास के गांव के हाट में, तो कहीं भीड़-भाड़ वाले इलाकों में, तो ठेलेवालों के पास, तो कभी झालमुढ़ीवालों के पास, कभी किरानों की दुकानों में, कभी कुरियर वाले को, तो कभी विद्यालय अथवा हॉस्पिटल के क्वाराइनटाइन सेंटरों में मुफ़्त में मास्क वितरित करते रहे !
साल 2020 के अंत में बिहार विधानसभा का चुनावी माहौल होने के कारण लोगों को ज्यों-ज्यों यह भनक लगने लगा कि अब तो कोरोना की लहर घटती जा रही है, त्यों-त्यों लोगों ने मास्क पहनना छोड़ने लगे, इसके बावजूद मेरे द्वारा इस हेतु जनजागरूकता अभियान चलते रहा और हर रोज कुछ घंटों की सेवा लिए मुफ़्त मास्क वितरित करते रहा। अब मैं मेडिकेटेड मास्कों को खरीदकर भी मुफ़्त वितरित करने लगा हूँ। मेडिकेटेड मास्कों की खरीद पर जो राशि लगती है, उस राशि को मेरे हिंदी उपन्यास ‘वेंटिलेटर इश्क़’ की रॉयल्टी से पूरी हो जाती है।
अब मैं खुद के शहर और खुद के राज्य से इतर भी मुसाफिर की भाँति जहाँ भी जाता, वहीं निःशुल्क मास्क वितरित करने लग जाता। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के कई जिलों, यथा- कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर, समस्तीपुर, पटना, सहरसा इत्यादि में मैंने जमकर निःशुल्क मास्क वितरण किये। ….परन्तु कहते हैं न अच्छे कार्य करनेवालों की अगर प्रशंसा होगी, तो आलोचना भी ! इसे आलोचना नहीं कहिए, अपितु निंदा कहिये ! लोगों ने मेरे कार्यों को न केवल पागलपन कहा। कई लोगों को जब मास्क देने जाता और ‘कोरोना’ से बचने के लिए बताते फिरता, तो वे सब कहते कि कोरोना तो भाग गया है, फिर तुम क्यों पागलोंवाला काम कर रहा है, समय और रुपयों की बर्बादी कर रहे हो ! कई लोग सामने में मास्क पहनने के लिए लेते और बगल किसी दुकान में बेच देते, कई लोग तो मुफ़्त में मिलने के कारण कई-कई मास्क ले लेते, तो कोई व्यक्ति मुझसे मास्क लेकर मेरे सामने ही फेंक देते ! कई लोग तो अज़ीब ही फरमाइश कर बैठते कि उन्हें फलाँ रंग का मास्क अच्छा नहीं लगता है, इसलिए फलाँ रंग का मास्क चाहिए ! कई महिलाएं कहतीं कि मास्क लगाने से मेकअप छिप जाएगी ! कई लोग यह भी कहते कि 10 टकिया ‘मास्क’ बाँटकर दानवीर कर्ण बनते फिरते हो ! कभी-कभी मैं उन्हें जवाब दे देता कि दस टकिया ‘मास्क’ है तो क्या ? पहनो तो सही ! पहनेंगे नहीं यानी पर उपदेश कुशल बहुतेरे ! मैं तो जागरूकता के लिए यह अभियान चला रहा हूँ, ताकि लोग बीमारियों से बच सके, क्योंकि मेरे द्वारा प्रदत्त ‘मास्क’ नियमित साफ-सुथरे रखने पर सप्ताह- पन्द्रह दिन आसानी से चल सकते हैं !
वहीं एक दिन जब मार्केट में मैं मुफ़्त ‘मास्क’ वितरण को गया था, तो एक फल विक्रेता ने मेरे कार्यों को देखकर मुझे ‘मास्कमैन’ नाम दे दिया और उस दिन से मेरे दोस्त, परिजन, रिश्तेदारों और समाज के लोगों ने मुझे इसी नाम से पुकारने लगे यानी मास्कमैन ! अब तो 17 माह हो गए…. मैं अब भी हर दिन मुफ़्त मास्क वितरित करता हूँ । गणतंत्र दिवस 2021 के दिन मैंने मुफ़्त में 51 हज़ार से अधिक मास्क मात्र 8 घंटे में वितरित किया, जिसके कारण मेरा नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स 2022’ में दर्ज होने हेतु संपादक के मेल प्राप्त हुए हैं। वहीं ‘बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स’ और ‘रिकॉर्ड्स होल्डर रिपब्लिक यूके’ में मेरे कृत्य और कीर्तिमान सहित यह उपलब्धि ‘मास्कमैन’ के रूप दर्ज हो चुका है !
मैं अपने परिवार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जो मेरे सद्कार्य में साझीदार भी बने ! मैं आभारी रहूँगा उस रेलयात्री का भी, जिसकी बातों के कारण आज मैं पाँच लाख से अधिक ‘मास्क’ निःशुल्क वितरित कर चुका हूँ। मैं प्रेमश: आभारी रहूँगा, उस भिक्षुक का भी, जो मेरे पास भीख के एवज में रुपये नहीं, अपितु ‘मास्क’ माँगे ! फिर मैंने अपना संकल्प और भी दृढ़ किया कि जबतक ‘कोरोना’ जाएगी नहीं, तबतक मैं ‘मास्क’ बाँटता रहूँगा !