अजय शर्मा ‘दुर्ज्ञेय’ की 5 कविताएं
1)थोपा गया हिंदुत्व!
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वे समीप आते हैं
और समीप आकर
इस उम्मीद के साथ उद्घोष करते हैं कि
मैं भी उनका अंधानुकरण करते हुए यह कहूँ,कि
‘गर्व से कहो,हम हिंदू हैं’
मैं यह सुनते ही
एक उन्मादी होने के बजाए एक खोज़ी हो जाता हूँ
और खोजने लगता हूँ अपने अंदर का हिंदू…
लेकिन दुर्भाग्य!
कड़ी मशक्कत के बाद भी
मैं अपने अंदर,
एक अछूत,नीच,व्रात्य
और उसी का थोड़ा अपडेटेड वर्ज़न
तथाकथित ‘हरिजन’ के इतर
कुछ भी खोज़ पाने में असमर्थ रहता हूँ
और इसी असमर्थता के चलते
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता हूँ
क्योंकि एकबारगी तो मुझे स्वयं यकीन नहीं होता
कि मैं हिंदू नहीं हूँ!
मेरी इस किंकर्तव्यविमूढ़ता पर
वे खीझ उठते हैं और क्रोधित हो जाते हैं
और क्रोध को जबरन दबाते हुए मुझसे प्रश्न करते हैं…
ऐ मूर्ख!तुझमें धर्म का कोई गौरव-बोध है कि नहीं?
गौरव-बोध?
यह क्या होता है?
यह शायद तभी मर गया था जब
माँ के गर्भ में मेरा बीजारोपण हुआ था
जब जातिगत टिप्पणियों से मेरा अवतरण हुआ था
जब वर्जनाओं और धमकियों से मेरा मार्ग बींध दिया गया था
और इन्हीं सब प्रतिबंधों के चलते
मेरे गर्व ने हीनता के दलदल में आत्महत्या कर ली थी
जाओ,उसी दलदल में जाओ
(यदि तुम्हारे आका अनुमति दे सकें,तो)
और वहां से मेरा ‘मैं’ वापस लेकर आओ
ला पाओगे तुम?
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2)नदियाँ इसलिए भी बनी रहनी चाहिए
ताकि लोगों को सनद रहे कि पहाड़,
उनकी कल्पनाओं जितना भी कठोर नहीं है…
कविताएँ इसलिए भी होती रहनी चाहिए
ताकि युद्धोन्मुखी जग को यह सनद रहे कि मनुष्य,
अपनी मूल प्रवृत्ति में उतना भी हिंसक या हिंसप्रिय नहीं रहा है,
जैसा कि इतिहास बयान करता है…
नदी और कविता क्रमशः पहाड़ और मनुष्य के प्रेम का व्यक्त रूप रहे हैं!
मगर अफ़सोस!नदी और कविता दोनों ही खोते जा रहे हैं अपनी शुचिता और नैसर्गिकता,
दोनों को ही ज़रूरत है एक नए भगीरथ की!
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3)पुरुष होने के मायने
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अगर पिता द्वारा
माँ को प्रताड़ित करते वक्त
खामोश रहते हो तुम
तो मैं थूकता हूँ तुम्हारे स्त्री-उत्थान की संगोष्ठियों पर
और तुम मेरे लिए छद्म अवसरवादी के इतर कुछ भी नहीं
अगर पिता को तन्हा देखकर
तुम फेर लेते हो मुंह
और ‘पितृ-दिवस’ पर लाते हो उपहार
तो मैं धिक्कारता हूँ तुम्हारी आधुनिकता पर
और तुम मेरे लिए एक कपूत के इतर कुछ भी नहीं
अगर रात में
पत्नी की एक असहमति पर
तुम्हारे अहं को ठेस पहुँचती है
और इसी रौ में तुम जबरदस्ती करते हो
तो मेरे लिए तुम
मर्दाना कमजोरी के शिकार के इतर कुछ भी नहीं
अगर बेटी के लिए
अभी भी वर्जित है बाहरी दुनिया
उसे देहरी के अंदर क़ैद रखते हो
और तर्कों के तराजू पर इसे उचित ठहराते हो
तो तुम मेरे लिए एक मानसिक रोगी के इतर कुछ भी नहीं
अगर अन्याय देखकर
कुछ करने के बजाए
तुम स्वयं के हित/अहित का गुणा-भाग करने लग जाते हो
तो तुम मेरे लिए
एक मृतात्मा के इतर कुछ भी नहीं
साहस,धैर्य,विनम्रता
समझ,प्रेम और समता का होना ही
पुरुष होना है
अन्यथा जंगलों में,
लिंग लिए हज़ार पशु घूमते हैं
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4)जब भी मैं घर से विदा होता हूँ
मैं एकबारगी पिता से लिपटना चाहता हूँ
ठीक अमरबेल की उस लता के समान
जो अस्तित्व समूल अपने सहारे से लिपटी रहती है
इतनी तीव्र इच्छा रहने के बावज़ूद
मैं आज तक पिता के गले नहीं लग पाया…
मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे के लिए
प्रेयसी के आलिंगन से भी कहीं अधिक दुष्प्राप्य है पिता का आलिंगन…
कभी-कभी मुझे लगता है
इच्छा होने के बावजूद पिता मुझे गले नहीं लगाते
संभवतः वे जानते हैं कि दो पहाड़ों के मिलने से,
गंगा निकले या न निकले मगर हिमस्खलन जरूर होगा…
जिसके नीचे आकर मेरी ‘अंतिम आश्रय’ वाली संकल्पना दबकर दम तोड़ देगी
पिता से दूरी,पिता पर विश्वास है कि वह
सभी मुसीबतों,संकटों का सामना करते हुए भी मेरे अंतिम आश्रय बने रहेंगे…
पिता उस पंक्ति में सबसे आगे खड़े होने वाले शख़्स है,
जिस पंक्ति को देखते ही मित्र,माँ और प्रेयसी/पत्नी सिहर उठते हैं!
5)हम छीनेंगे
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जातीय-गणित और संसाधन-स्वामित्व के वरीयता-क्रम में
जो अंतिम पायदान पर जमे हैं
(जमाए गए हैं)
आश्चर्य की बात है कि उन्होंने
इस षड्यंत्र को अपनी नियति मान लिया है
(यद्यपि उन्हें मानने के लिए बाध्य किया गया है)
ख़ैर!जब किसी ने उन्हें यह बताया कि,
‘बड़े-लोगों’ के पेट में जाने वाला
अन्न का प्रत्येक अतिरिक्त कण
उनका अपना हिस्सा है,हक है…
तो पहले तो वे झिझके,
और बाद में हाथ फैला दिए…
(माँगना उनकी आदत बन चुकी थी)
इन फैली हथेलियों में
एक मुआवज़ा-पत्र डाल दिया गया
जिसमें लिखा था-
‘अछूतों को अछूत नहीं हरिजन कहा जाना चाहिए’
ये बात दीग़र है कि
उनकी बस्ती में कभी भी न कोई ‘हरि’ आया
और न वे ‘जन’ बन पाए…
तुम पूछोगे क्यों?
क्योंकि हक़ मांगे नहीं छीने जाते हैं!
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सम्प्रति-अध्ययन
अजय शर्मा ‘दुर्ज्ञेय’
पता- सीहपुर,सतौरा,कन्नौज(उत्तर-प्रदेश)
पिन-209731
संपर्क सूत्र-9140304603
ईमेल -durgeayajay209731@gmail.com
अजय शर्मा ‘दुर्ज्ञेय’