November 23, 2024

विवाह : लगती गाँठ और टूटते रिश्तें!

0

विधा- आलेख

व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का एक संस्कार है ‘विवाह’। पवित्र माने जाने वाले इस संस्कार में संसार और जीवन दोनों का विकास और वृद्धि निहित है। आधुनिकता की होड़ में मची अंधाधुंध में मानवीय भावनाओं का कोई औचित्य नहीं है। बौद्धिक वर्ग अपने प्रपंचों से संसार को दिशाहीन बना रहा है। जिस बुद्धि तत्त्व को मानव का सुंदर और महत्त्वपूर्ण आयाम माना गया; वहीं प्रच्छन्न बौद्धिक वर्ग आज विनाश की लीला रच रहे हैं।
बौद्धिक वर्ग एक ओर तो विकासवादी बनने का मार्ग बताते हैं दूसरी ओर तर्क के बहाने कुतर्कों से संस्कृति का विनाश करने पर तुले हैं। बुद्धि साध्य नहीं है वह तो मानवीय जीवन और प्रकृति को सौंदर्य प्रदान करने का साधन मात्र है।जब से साधन को ही साध्य मान लिया गया विनाश की लीला तभी प्रारंभ हो गई।
संस्कृति में समन्वय की धारणा इस प्रकार विच्छिन्न करने लगे हैं तथाकथित बौद्धिक वर्ग जिस प्रकार हिंसक पशु वनमृगों का शिकार करता है। आर्थिक दौर में लोगों का व्यवहार अर्थ के कारण ही प्रभावित और संचालित हैं; लोग अर्थ में संसार को खरीदने की शक्ति का सामर्थ्य देखते हैं।

यथार्थतः अर्थ केवल सीमित समय के लिए मजदूर एकत्र कर सकता है। खरीद केवल सेवाओं की होती हैं। अर्थ से परिजन और रिश्तेदार खरीदे नहीं जा सकते। हाँँ, मजदूर की तरह वह आपके साथ तब तक रहेंगे जब तक मजदूरी मिलती रहेगी या मिलने की आशा रहेगी।

इन सारी विकृतियों का प्रभाव सबसे अधिक वैवाहिक संस्कार और जीवन पर पड़ा। आज हर किसी को डर है कि विवाह के बाद परिवार बिखर न जाए। ऐसा क्या होता है कि विवाह के कुछ दिन बाद ही बिखराव और टकराव शुरु हो जाता है। अंंततः परिणाम वही महाभारत! रामायण तो विवाह के पूर्व ही समाप्त हो जाती हैं। द्रोपती आती हैं और महाभारत की नींव रख देती हैं। या श्रवण बना पुत्र दुर्योधन बन जाता है।
आज इसी बात की पड़ताल कर आपको इसका कारण बताता हूँँ और समाधान भी। लड़के के विवाह के बाद धीरे-धीरे समीकरण इस प्रकार बनते हैं कि कुछ समझ नहीं आता टकराव और बिखराव का दौर शुरू हो जाता है। इसके कारणों को समझने से पूर्व है आप वर्तमान समाज, परिवार, घर-गृहस्थी, स्वभाव की तुलना पूर्वजों से करें आपको कोई दोष नहीं नजर आएगा। दिन रात का अंतर दिखेगा। अब आप जानने को उत्सुक होंगे बिखराव के हेतु क्या है? तो जान लो हम सुनते हैं और कहते आए हैं कि विवाह लड़की का दूसरा जन्म है। अब गौर करो! जब बच्चे का जन्म होता है तभी से वह बोलना,चलना,खाना-पीना समझना, जानना सब कुछ कर लेता है क्या? आप कहोगे नहीं।
धीरे-धीरे हाथ पैर हिलाना आँँखें टिमटिमाना, हँसना, किलकारी मारना,रोना इत्यादि क्रियाओं के बाद अस्फुट शब्द बोलता है। धीरे-धीरे शब्दों का उच्चारण करता है फिर उसे बोलना आता है। चलता भी एकाएक नहीं।
आगे समझना इसी प्रकरण को—

विवाह को हम लड़की का नया जन्म कहते हैं तो नए जन्म के अनुसार ही सारी गतिविधियां शुरू हो जाती हैं अब देखो बिखराव कैसे शुरू होता है। लड़की का विवाह होता है तब औसत 18-20 साल की होती हैं। वो समझ, व्यवहार, बोल-चाल, मान-सम्मान इत्यादि सारी सुरीति जानती है। ससुराल में जब सास-ससुर परिजन कुछ कहते हैं तो वह समझती हैं मुझे परेशान करते हैं मैं जानती हूँँ! समझती हूँँ! बच्ची नहीं सब आता है। असल समस्या यही है कि वो पीहर की जीवन-शैली व्यवहार अनुभव से ससुराल को मापती है।

करते होंगे परेशान ससुराल वाले मैं इनकार नहीं करता। आप यह भी न समझे कि मैं पुरुष प्रधान व्यवस्था का समर्थन कर रहा हूँँ। मैं नारीवादी हूँँ। मेरी बस इतनी सी कोशिश है कि पारिवारिक कलह का निदान कर सब प्रसन्न चित्त रहें। टकराव लड़की की इस सोच से शुरू हो जाता है। फिर ससुराल वाले उसके संस्कार माता-पिता की परवरिश पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं ? चरित्र पर संदेह करते हैं! हर परिवार के बिखराव के कारण अलग-अलग होते हैं। प्रायः होता यह है कि बहू बगावत कर देती हैं बेटा पिस जाता है। या बेटा चरित्रहीन होता है बहू मारी जाती है।

पहले बात बहू की करें उसका यह सोचना कि मैं जानती-समझती,वगैरा-वगैरा, यह सब ससुराल में आकर निरर्थक हो जाते हैं। ऐसा इसलिए कि लड़की का जन्म जिस कुल में हुआ उनके संस्कार, सोच-विचार, विश्वास, धारणा, व्यवहार प्रणाली, आर्थिक, सामाजिक वातावरण अलग होते है ससुराल से। लड़की की शारीरिक, मानसिक, व्यवहारिक परिपक्वता जन्म स्थान के वातावरण में हुई। परिपक्वता उसे 18-20 साल में आती है। जन्म स्थान पर तो बेटी के रूप में जन्मी, विवाह नया जन्म है यहाँँ बहू के रूप में नया जन्म होता है। जन्म नया है तो संस्कार, विश्वास, व्यवहार इत्यादि सारी गतिविधि भी नई होती हैं। पीहर में 18 साल में जिस तरह परिपक्वता मिलती हैं उसी तरह ससुराल में भी परिपक्वता मिलेगी। लड़की बेटी से बहु बनने के बाद उसी समझ से काम में लेती हैं जो समझ बेटी के रूप में ग्रहण की। परंतु बेटी और बहू की भूमिकाएं अलग-अलग होती हैं। बेटी का भूमिका संसार संकुचित और बहू का भूमिका अत्यंत विस्तृत है।
पीहर में जितने साल उसे परिपक्व होने में लगे, ससुराल की परिपक्वता पाने में उसे पीहर के वर्षों के आधे वर्ष लगेंगे। विवाह को नया जन्म मानकर नए जन्म की तरह ही जिसने जिया। उसका परिवार तो बिखरता नहीं। पुरुष इसलिए दब जाता है क्योंकि उसकी कामाग्नि उसी से तृप्त होती है। जहाँँ पुरुष चरित्रहीन होता है वहाँँ देवी जैसी स्त्री की दुर्दशा होती है। जैविक कारणों के चलते भी परिवारों में बिखराव होता है।

संक्षिप्त परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर,राजस्थान।
मो. 9001321438

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *