नया सफ़र-लघुकथा
– सन्दीप तोमर
“आवेश! अब हम शादी के बंधन में बंध सकते हैं, एक टॉक्सिक रिश्ते से आज मुझे मुक्ति मिल ही गयी।– कोर्ट रूम से बाहर निकल ये कल्पना के ये पहले शब्द थे।
“हाँ, कल्पना! कितना कुछ झेला तुमने, सुकेश ने तुम्हारी जिन्दगी को जहन्नुम बना दिया था। चलो, आज की शाम तो सेलिब्रेट करने की शाम है।“
“हाँ, आवेश! तुमसे एक बात और कहनी थी; लेकिन डिअर, पहले वादा करो कि गुस्सा नहीं करोगे?”
“पहेलियाँ मत बुझाओ कल्पना, पता है न आज मैं कितना खुश हूँ, जिस दिन का मुझे बेसब्री से इन्तजार था, आज वह दिन आया है।“
“सुनो, कल ही मैं प्रेरणा से मिलकर आई हूँ, तुम्हें तो पता ही नहीं है- उसका बेटा ऑटिज्म का शिकार है, सामने रखी किसी भी चीज को तोड़ देता है, कहीं भी फेंक देता है, टीवी. मोबाइल, लैपटॉप जैसी कितनी ही महँगी से महँगी चीजे तोड़ चुका है, हैण्ड-वाश की बोतल को मुँह से लगाकर पी जाता है।“
आवेश कल्पना की बातें सुनते-सुनते न जाने कहाँ खो गए।
उस दिन आवेश बहुत ही सहज रूप से अपनी प्रेरणा से मिला तो उसने पूछा था- “आखिरी बार हम पुनः सोचें कि क्या हम जीवन की नैया को साथ-साथ खेने को तैयार हैं या फिर अब इस रिश्ते को यहीं विराम दे दिया जाये।“
प्रेरणा ने कहा था- “आवेश! तुम्हारा अपाहिज होना ही काफी है इस रिश्ते को आगे न ले जाने के लिए। मेरे मम्मी-पापा कभी भी एक अपाहिज को दामाद के रूप में स्वीकार नहीं कर पाएँगे।“
उसने प्रेरणा से कहा था- “एक बार मैं तुम्हारे मम्मी-पापा से बात करूँ?”
प्रेरणा ने साफ़-साफ़ मना करते हुए कहा- “अगर ऐसा किया तो मेरा घर से बाहर निकलना और तुमसे मिलना बन्द हो जायेगा।“
उस दिन फिर कभी न मिलने के इरादे के साथ वह रुखसत हुआ तो प्रेरणा ने कहा- “सुनो! तुम बहुत अच्छे हो, अपनी अच्छाई को कभी भी मत छोड़ना।“
“आवेश! सुन रहे हो, मुझे पता है तुम मेरे प्रेरणा से मिलने से गुस्सा होंगे… लेकिन…।“
कल्पना की आवाज़ सुन वह वर्तमान में आया- ”कल्पना! कितना मुश्किल होता है अपनी आँखों के सामने पूर्व प्रेम को तन्हा होते देखना, एक रोज उसे फेसबुक पर देखा तो मन में एक उमंग और बेचैनी दोनों थी। मैं सोच रहा हूँ जो जीवन उसने खुद चुना उसे जीने या फिर झेलने का अख्तियार उसे खुद है, हमारी कोई भी हमदर्दी बेमानी है।“
“तुम इसे सज़ा के तौर पर तो नहीं देख रहे?”- कल्पना ने कहा।
“कल्पना! उसे किसी सज़ा की बात मैंने तो सपने में भी नहीं सोची, सज़ा तो उसने मुझे दी थी, अहसास दिलाकर कि तुम अपाहिज हो।“
“क्या जाने उसका क्या ही प्रारब्ध है।“- कल्पना ने बुदबुदाते हुए गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए कहा-“आवेश! नए सफ़र के लिए चलें?”
खिड़की बन्द करने से पहले अनायास ही उसने कल्पना की कलाई को कसकर पकड लिया।