November 23, 2024

85.1 सिनेमा हाल पर लिखी पहली किश्त के बाद आज पढ़िए यह दूसरी किश्त

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शरद कोकास
85.1 सिनेमा हाल पर लिखी पहली किश्त के बाद आज पढ़िए यह दूसरी किश्त ….”थोड़ा सा देखने दो ना भैया , बस ये वाला सीन” (कुछ याद आया ?)

यह वे दिन थे जब किसी शहर की हैसियत का अंदाज़ा वहाँ स्थित टाकीज़ों की संख्या से लगाया जाता था ৷ अमूमन एक टाकीज़ वाले शहरों के बीच बैतूल में दो टाकीज़ों का होना उसके गौरव में वृद्धि करता था ৷ रघुबीर टाकीज के अलावा बैतूल में एक टाकीज़ और थी जिसका नाम ज्योति टाकीज़ था ৷ टाकीज़ होने से पहले यह एक अनाज गोदाम था ৷ इसमें हाल कुछ नीचे की ओर था और गेट से सीढ़ियों से उतरकर हाल में जाना होता था ৷ रघुबीर टाकीज़ से यह टाकीज़ इस लिहाज़ से बेहतर थी कि यहाँ थर्ड क्लास में भी बेंचें थीं यद्यपि उनमे पीठ टिकाने के लिए पटिया नहीं लगी थी अतः खटमलों से पीठ तो बचाई ही जा सकती थी ৷

उन दिनों सिनेमा के मालिक आम लोगों की भांति शहर के ही वासी हुआ करते थे, इसलिए टाकीज़ को उसके नाम से जानने के अलावा उसके मालिकों के नाम से भी जाना जाता था ৷ जैसे रघुबीर टाकीज गंगाचरण उमाचरण जायसवाल की टाकीज़ कहलाती थी वैसे ही ज्योति टाकीज़ गोठीजी की टाकीज़ के नाम से मशहूर थी ৷ बैतूल में गोठी परिवार, डागा परिवार जैसे कुछ मशहूर परिवार थे जिनका राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में काफी प्रभुत्व था ৷

उन दिनों युवाओं में फर्स्ट डे फर्स्ट शो पिक्चर देखने का क्रेज़ था ৷ जो युवा पहले दिन पहला शो देखकर आते वे अपने आप को पद्मश्री प्राप्त कर लेने जैसे गौरव के साथ शहर भर इतराते फिरते ৷ हम बच्चों के लिए यह पहला दिन वर्ज्य था, पहले दिन सिनेमाघरों में बहुत अधिक भीड़ होती थी और हम जैसी नन्ही नन्ही जानों की उस भीड़ में पिस जाने की संभावना अधिक होती थी ৷ कबीरदास जी पहले ही चेतावनी दे गए थे ৷

इसलिए हम लोग पिक्चर देखने से पहले पोस्टर देख कर ही संतोष कर लेते थे ৷ पिक्चर देखकर आये हुए बच्चे किन्ही क्रिटिक्स की भांति आलोचना की भाषा में फिल्म की समीक्षा करते ..”धाँसू है रे’, ‘मस्त है’, ‘एकदम देखने लायक, या फिर ‘अरे उल्लू बना दिया रे’, ‘एक भी फाइटिंग सीन नहीं’, ‘हेलन का डांस मस्त है, बाकी सब बकवास ৷’ ‘एकदम स्टार्टिंग से देखने लायक’ ‘वो वाला’ सीन मिस मत करना, एकदम ओपन ৷’

हम पोस्टर देखने वाले बच्चे बहुत ध्यान से उन्हें सुनते, हालाँकि आजकल के कवि कथाकारों की तरह उनकी समीक्षा से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था, इसलिए कि सिनेमा हम लोगों के लिए उन दिनों एकमात्र मनोरंजन था और हमारी हैसियत दर्शक या साहित्य के रूपक में कहें तो पाठक से अधिक नहीं थी ৷ लेकिन कस्बों के यह समीक्षक फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों के लिए प्रोफेशनल क्रिटिक्स जैसा ही महत्व रखते थे और उनके फीडबैक के आधार पर ही और अधिक मसालेदार फ़िल्में बनाई जातीं ৷

किसी भी नई फिल्म के आने से पूर्व पिछली किसी फिल्म में उसका ट्रेलर दिखाया जाता, जिसमे उसके ख़ास ख़ास दृश्यों,उत्तेजक नृत्यों या संवादों की झलक दिखाई जाती, जिन्हें देखकर फिल्म देखने की उत्कंठा जागृत होती ৷ जनता को लुभाने का यह तरीका बढ़िया था ৷ आजकल यह तरीका राजनीतिज्ञों ने अख्तियार कर लिया है, लेकिन अफ़सोस यही है कि वे केवल विकास की फिल्म का ट्रेलर दिखाते हैं फिल्म तो कभी बनती ही नहीं ৷

उन दिनों इंटरवल में मोटे कागज़ से बना विज़िटिंग कार्ड के साइज़ का एक गेट पास देने का चलन भी था৷ बाहर जाने के बाद पुनः हाल में प्रवेश हेतु गेट पास दिखाना अनिवार्य था ৷ कभी कभी बोर हो जाने अथवा ज़रुरी काम आ जाने या घर वालों की डांट से बचने के लिए हम लोग आधी फिल्म ही देखते और फिर गेट पास किसी दोस्त को पकड़ा देते, बाकी बची फिल्म अगले दिन देख लेते ৷ ऐसा ही वह भी करता, इस तरह बिना किसी को पता चले दोनों की पिक्चर पूरी हो जाती ৷ अंत देखकर प्रारम्भ जानने अथवा प्रारम्भ देखकर अंत जान जाने की कला यहीं से मुझमे आई ৷ मेरी इतिहास बोध की क्षमता का यह प्रस्थान बिंदु था ৷

पिक्चर देखने वाला दिन हम लोगों के लिए किसी पर्व की तरह होता था ৷ पिक्चर देखने से मिलने वाले आनंद की कल्पना में हम पूरा दिन बिताते ৷ जेबखर्च से बचाए अपने पैसों को बार बार टटोलते ৷ साथ में कौन कौन जायेगा इसकी दरियाफ़्त करते ৷ सिनेमा देखने में बीतने वाले उन तीन घंटों के सुख की कल्पना दुनिया के हर सुख की कल्पना से बड़ी थी ৷ आजकल दिन भर मोबाइल या टी वी पर सिनेमा देखने की सुविधा प्राप्त पीढी उस सुख और आनंद की कल्पना नहीं कर सकती ৷ इस आनंद का अर्थ वही समझ सकता है जिसने भुनी हुई मूंगफल्लियाँ खाते हुए, बीड़ी पीते हुए या पीने वालों और मशीन चलाने वाले ऑपरेटर को गरियाते हुए, तालियाँ और सीटियाँ बजाते हुए और हर डांस पर पर्दे पर सिक्के फेंकते हुए उस दौर का सिनेमा देखा हो ৷

मशीन चलाने वाले ऑपरेटर से याद आया ৷ उन दिनों टीन की बड़ी बड़ी पेटियों में फिल्मों की रीलें आया करती थीं ৷ पेटी लेकर आनेवाले डिस्ट्रीब्यूटर के एजेंट किसी होटल में ठहरते और जैसे ही एक सप्ताह हो जाता वही पेटी लेकर किसी अन्य शहर की ओर रवाना हो जाते ৷ अगर भीड़ बरक़रार रही तो वे लोग और ठहर जाते ৷ जैसे आजकल लोग नई फिल्म के लिए शुक्रवार की राह देखते हैं हम लोग पेटी लेकर आने वाले एजेंट की राह देखते ৷ हममे से कोई एक खोजी प्रवृत्ति वाला वीर बालक टाकीज़ तक जाता और लौटकर शान से बताता “पेटी आ गई है, कल या परसों से लगेगी नई पिच्चर ৷“

अमूमन सिनेमाघरों में एक ही मशीन पर फिल्म चलती थी ৷ एक रील के बाद तुरंत दूसरी रील चढ़ाई जाती फिर भी बीच बीच में फिल्म का रुक जाना या रील का टूट जाना स्वाभाविक था ৷ रघुबीर टाकीज़ में सिनेमा ऑपरेटर थे नायडू जी जिनकी हैसियत सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष से कम नहीं थी ৷ जैसे ही फिल्म रुकती नीचे हाल से आवाज़ें आना शुरू हो जातीं “अबे नायडू ..कैंची क्यों चला रहा है बे.. “ “ देख कोई सीन मत काटना..৷ “ नायडू जी प्रधान सेवक की तरह जनता की फब्तियों से निर्लिप्त रहकर फुर्ती से दूसरी रील चढ़ाते और फिल्म चालू हो जाती, लेकिन ‘हुस्न के लाखों रंग’ देखते हुए भावातीत ध्यान में मग्न सिनेमा दर्शक फिर ज़रा सा व्यवधान आते ही गालियों का प्रवाह नायडू जी की ओर मोड़ देते ৷

रघुबीर टाकीज़ हम लोगों के पुराने घर के ठीक पीछे थी और उसका परदे वाला हिस्सा तो बिलकुल ही घर से लगा हुआ ৷ रात में जब हम लोग बिस्तरों पर लेटते, आवाज़ों के सुनसान में, सेकंड शो में चल रही फिल्म के पूरे सम्वाद वहाँ साफ साफ सुनाई देते । दो तीन दिनों में ही हमारी लाइन में रहने वाले सब बच्चों को पूरे डायलाग और सीन याद हो जाते और हम सामने की लाइन में रहने वाले बच्चों पर अपना रौब ग़ालिब करते ৷ कभी कभी हम लोग यूँ ही भटकते हुए टाकीज तक चले जाते और गेट पर गेटकीपर के रूप में खड़े मोहल्ले के लड़कों से कहते “भैया, थोड़ा सा, बस थोड़ा सा देखने दो ना, बस ये वाला सीन ৷” गेटकीपर भैया पहले तो हमें भगाते ..”चलो भागो, अभी चेकिंग होने वाली है৷ ” फिर दया करके कहते “ अच्छा जाओ, बस पांच मिनट में बाहर आ जाना ৷“ हमें बखूबी पता होता, किस सीन के बाद कौनसा सीन या गाना आनेवाला है৷

दस पैसे में मिलने वाली सिनेमा के गानों की कागज़ पर छपी हुई किताब, मोटे कागज का गेट पास, एक्साइज ड्यूटी लगी सिनेमा की टिकटें, रंगीन छपे हुए नायक नायिकाओं के चेहरे वाले पोस्टर,सिनेमा के प्रचार के लिए बैंड बाजे वाला जुलूस, अब तो वह दौर किसी ख़्वाब की तरह लगता है ৷ मूंगफल्ली संस्कृति पॉप कॉर्न संस्कृति में जाने कब बदल गई ৷ रघुबीर टाकीज़ का नाम बाद में प्रभात टॉकीज़ हो गया था ৷ लेकिन प्रभात टाकीज़ भी ज़्यादा नहीं चली ৷ धीरे धीरे दम तोड़ती हुई सिनेमा संस्कृति के आगे एक दिन उसने भी दम तोड़ दिया । ज्योति सिनेमा भी एक दिन इसी तरह बंद हो गया ৷ वे गेटकीपर, पेटी लाने वाले डिस्ट्रीब्यूटर के एजेंट जाने कहाँ गुम हो गए ৷ बैतूल का यह दृश्य केवल बैतूल में ही नहीं देश के जाने कितने शहरों में घटित हुआ ৷

अभी पिछले दिनों बैतूल जाना हुआ था ৷ यूँ ही भटकते हुए घर के पीछे जा पहुंचा और रघुबीर टाकीज़ के खंडहरों पर नज़र चली गई ৷ परिसर में किसी ट्रांसपोर्ट मालिक के ट्रक खड़े थे ৷ मेरे अवचेतन में सिनेमा के वे दिन मंडराने लगे जब ऊपर लगे उस लाउड स्पीकर से आवाज़ आती थी .. ‘हूँ अभी मैं जवां ए दिल, हूँ अभी मैं जवां’ ৷ शून्य में ताकते हुए मैं जाने क्या सोच रहा होता हूँ कि यह दुनिया छोड़कर जा चुका अरुण कावले जाने किस गली से निकल आता है और कंधे पर हाथ रखकर कहता है.. “ आज चलें दोस्त ? नई पिच्चर लगी है

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