“न आँगन अपना ना छत अपनी”(श्रंखला से)
मेरे गाँव की पगडंडी, हर पल ये भान कराती है,
कितना कुछ पीछे छूट गया,सपनों में ये कह जाती है
छूटा बरगद,छूटा पीपल,जिस पर हम झूला करते थे ,
छूटा पनघट,गुरुओं का मठ,जो अठखेली के अड्डे थे
छूटी गिल्ली डंडा छूटा,पोशम्पा,सितौलिया छूट गये,
चौपाल -चौबारे,गैलों संग पोखर-कुऐं सब रूठ गये
बत्ती-स्लेट और बस्ते छूटे ,मास्साब की शंटी छूट गई,
झेंझी -टेशू ,पुरे चौक,भुजरिया छूटीं,फूलों की साँझी रूठ गई
वो झरबेरी,कच्ची कैरी,ईख खेत में इठलाती,
वो भोर,दुपहरी भी छूटी ,जो साँझ रहट पर थी गाती
पतंग,पेंच,मांजे सब छूटे, कुछ सखा- सहेली छूट गये,
बढ़ते मेले,उठते दंगल , हुड़दंग-झमेले छूट गये।
अम्माँ का सत्तू,भड-भूँजा छूटा,सिगड़ी-चूल्हा सब छूट गये,
गुड़ के भेले,वो गच्च मलीदे , सिल बटना भी हमसे रूठ गये।
साइकिल का पैडल,जुगाड़ भी छूटे,वो खाट-खटोला छूट गये,
सुराही -घड़े संग नैन-मटक्का छूटा,छत पर बैठक, लम-लेट बिछौना सब रूठ गये।
पलिया,डलिया,बिजना,ढिबरी,चकिया सब छूटे,उपले -गुलरियाँ भी छूट गये,
होली में दहकी बाली छूटी,बताशे-माठे, होरे सब हमसे रूठ गये
भैंस के पीछे हुर्र-हुर्र छूटी,हल कोल्हू बैल सब पीछे छूट गये,
थ्रैशर के संग मॉर्डन मशीनें देख कर,वे काग-भगौडे भी हमसे रूठ गये।
साँझे कीर्तन,सूतक मातम सब छूटे,संग हँसना-रोना,चना-चबैना छूट गये,
तेरह दिन की धूप -दीप संग नुक्ती छूटी ,वो मेल-भंडारे भी हमसे रूठ गये।
अब नींम कसैली बातें ही हैं , मीठी यादें सब छूट गईं,
आज शहर की भागदौड़ में,जीवन की ख़ुशियाँ रूठ गईं
है बहुत ज़रूरी प्रगति के,आयाम चरम को पा जाना,
पर क्यूँ कर है ये मोल ज़रूरी ,अपनी ही नींब बिसरा जाना ?
अब रहते बड़ी शान से जिसमें,उसे “फ़्लैट ” हम कहते हैं,
पक्की ईंटों के जंगल में, बस मन मसोस सब रहते हैं ।
रिश्ते बिखरे बटोरते -ढूँढते, हम क्यूँ खुद को ही खोजे हैं,
ना आँगन में तुलसी चौरा , ना छत पे सूरज -चंदा की मौजें हैं ।
छूटे तेल,ताई -रतजगे छूटे,भात-भतौने,ढोलक-बधाये सब छूट गये,
बन्नी-बन्ना वो भेंट-लंगुरिया छूटे,सोहर-बटौना,गारी-गौना भी हमसे रूठ गये।
प्रगति की क़ीमत नहीं ये बंधू, सब मन भरमाई बेसुरी वीणा है,
गाँव आज भी अटल ख़ड़ा है, पर शहरी जीवन रीता सूना है ।
प्रीति राघव/गुरुग्राम