स्वतंत्रता और साहित्य
हर युग का साहित्य उस काल का आईना रहा है उस आईने में हम उस देशकाल में घटित घटनाओं को देख सकते हैं महसूस कर सकते हैं।
कलमकारों का स्थान स्वतंत्रता संग्राम में अविस्मरणीय रहा है। क्रांतिकारियों से लेकर देश के आम लोगों तक लेखकों ने अपने शब्दों से टूटे,हारे मनो में जोश भरा है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्यिक युग की मशाल जला स्वतंत्रता संग्राम में अभूतपूर्व योगदान दिया है उन्होंने अपने साहित्य में गद्य और पद्य के द्वारा अंग्रेजों की नीतियों का जमकर विरोध किया। अंग्रेजों द्वारा लूटपाट, दमनकारी नीतियों का भी वर्णन अपने नाटकों के द्वारा किया है।’अंधेर नगरी चौपट राजा’ ‘भारत दर्शन’ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान,शौर्य की उन्होंने भरपूर प्रशंसा कर यश गान किया। इसके अलावा प्रेमचंद की रंगभूमि, कर्मभूमि, जयशंकर प्रसाद का चंद्रगुप्त उपन्यास यह सभी देश भक्ति से ओतप्रोत साहित्य हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के जरिए मृतप्राय मनो में एक नई ताकत व नई ऊर्जा का संचार किया। प्रेमचंद की बहुत सारी रचनाओं पर रोक लगा दी गई,जब्त कर लिया गया, जला दिया गया परंतु उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। उन्हें डराया-धमकाया भी गया। लेकिन इन दमनकारी नीतियों के आगे प्रेमचंद ने कभी हथियार नहीं डाले।
उनकी रचना ‘सोजे वतन’ पर उन्हें तलब भी किया गया पर प्रेमचंद की लेखनी रुकी नहीं, बल्कि और प्रखर होकर स्वतंत्रता आंदोलन में आग में घी का काम करती रही। उन्होंने लिखा-
‘मैं विद्रोही हूं जग में विद्रोह कराने आया हूं, क्रांति-क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूं।’
कविवर जयशंकर प्रसाद की ओज से भरी कलम ने लिखा:-
‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।’
देश का गौरवगान करती जयशंकर प्रसाद की रचना ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ एक अप्रतिम रचना है।
द्विवेदी युग के साहित्यकारों की कलम भी कुछ कम धार दार नहीं थी
सुभद्रा कुमारी चौहान ने
शौर्य की गाथायें कहती कई कविताएं लिखी
जिसमें ‘झांसी की रानी’ सर्वाधिक लोकप्रिय है:-
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी की रानी थी।’
बुन्देले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’
‘भारत-भारती’ के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त ‘राष्ट्रकवि’ कहलाए,
‘भारत-भारती’ में उन्होंने लिखा-
‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।
माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखकर जनमानस के मन में स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान के भाव जागृत किए।
‘चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं
चाह नहीं प्रेमी माला में विंध प्यारी को ललचाऊं
चाह नहीं सम्राटों के द्वार पर हे हरि! डाला जाऊं!
चाह नहीं देवों के सिर पर चढूं, भाग्य पर इतराऊं
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक’।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जाएं वीर अनेक।।
पं. श्याम नारायण पांडेय ने ‘हल्दी घाटी’ में लिखा:-
‘रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।’
इकबाल ने ‘सारे जहां से अच्छा हिदुस्तां हमारा,
हम बुलबुले हैं इसके यह गुलसिता हमारा’ लिखा
तो सुमित्रानंदन पंत ने
‘ज्योति भूमि, जय भारत देश।’
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने ‘विप्लव गान’ लिखा:-
‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर को जाए
नाश! नाश! हाँ महानाश!!! की
प्रलयंकारी आँख खुल जाए।’
इन सबके अलावा बंकिमचंद्र चटर्जी ने देशप्रेम से ओत-प्रोत गीत ‘वंदे मातरम्’ ने एक बार फिर लोगों में जोश भर आजादी की अलख जगा दी।
‘वंदे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयज शीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्! वंदे मातरम्!’
कविवर रामधारी सिंह दिनकर ने बहादुर वीरों की शान में कहा:-
‘कमल आज उनकी जय बोल जला अस्थियां बारी-बारी
छिटकाई जिसने चिंगारी जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल।’
इसके अलावा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ‘गीता रहस्य’,शरद बाबू का उपन्यास ‘पथ के दावेदार’, वीर सावरकर की ‘1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ हो या पंडित नेहरू की ‘भारत एक खोज’ इन सभी किताबों ने एक अलख जगाने का काम किया।स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के अहिंसा आंदोलन के कारण भी कलम का विशेष योगदान रहा है ।
राधाचरण गोस्वामी, रामनरेश त्रिपाठी बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, नाथूराम शर्मा शंकर, गयाप्रसाद शुक्ल स्नेही, माखनलाल चतुर्वेदी, सियाराम शरण गुप्त, जैसे अगणित कवियों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी-अपनी कलम की धार से मानस को जागृत कर अपनी अपनी हिस्सेदारी की।
अज्ञेय,शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जैसे साहित्यकारों ने समाज में फैली कुरीतियों पर कहानियां लिखकर जागरूकता फैलाई है तथा कुप्रथाओं को दूर करने में भागीदारी की है।
हिन्दी के अलावा बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल व अन्य भाषाओं में भी साहित्यकारों ने राष्ट्रप्रेम की भावनाएं जागृत कीं और जनमानस को आंदोलित किया।
कवि गोपालदास नीरज
ने लिखा:-
‘देखना है जुल्म की रफ्तार बढ़ती है कहां तक
देखना है बम की बौछार है कहां तक।’आजादी के बाद के हालातों को स्पष्ट करते हुए नीरज ने कई रचनाएं लिखी हैं।
‘चंद मछेरों ने मिलकर, सागर की संपदा चुरा ली
कांटों ने माली से मिलकर, फूलों की कुर्की करवा ली
खुशियों की हड़ताल हुई है, सुख की तालाबंदी हुई
आने को आई आजादी, मगर उजाला बंदी है।’
हितेषी ने लिखा:-
शहीदों के मजारों पे ,
लगेंगे हर बरस मेले।
राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक’ के रचयिता रवींद्र नाथ टैगोर का योगदान अद्वितीय व अविस्मरणीय है
हरिवंशराय बच्चन का लिखा ‘आजादी का गीत ‘
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल
चांदी, सोने, हीरे मोती से सजती गुड़िया
इनसे आतंकित करने की घडियां बीत गई
इनसे सज धज कर बैठा करते हैं जो कठपुतले
हमने तोड़ अभी फेंकी हैं हथकडियां।
श्यामलाल गुप्त पार्षद का लिखा यह गीत:-
‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जरूर सुनाई देता है।
आजादी मिलने के बाद जो त्रासदी घटित हुई उसका असर भी साहित्य पर देखने को मिला। विभाजन का दर्द भीष्म साहनी और कृष्णा सोबती का साहित्य पढ़ कर महसूस किया जा सकता है।
महामारी, अकाल पर भी साहित्य लिखा गया कई फिल्में भी बनी।
समय- समय पर काल और घटनाओं के हिसाब से साहित्यकार आईना दिखाते रहे हैं पर क्या आज के युग के साहित्यकार इस जिम्मेदारी का निर्वहन सही ढंग से कर रहे हैं? हम साहित्य के नाम पर क्या परोस रहे हैं? क्या हमारी रचनाओं में जागरूक करने वाले लेख , कविताओं, कहानियों को उत्कृष्ट स्थान प्राप्त है या सस्ती लोकप्रियता के लिए कुछ भी लिखकर परोस रहे हैं।
हम आने वाली पीढ़ी को साहित्य के नाम पर क्या धरोहर दे रहे हैं यह सोच कर लिखना बहुत जरूरी है।
स्वतंत्रता आसानी से नहीं मिली उसके पीछे कितनी धारदार कलमें, कितने बलिदान और लोगों ने क्या-क्या कुर्बान नहीं किया यह बात हर समय हमारे मस्तिष्क में रहनी चाहिए।
आने वाली पीढ़ी को अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए उत्साहित करना हमारी जिम्मेदारी है। आज के लेखकों को इस जिम्मेदारी को वहन कर अपना उत्कृष्ट योगदान देना होगा।
ताकि हमारी पीढ़ी जिस तरह गर्व से हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, निराला जी, सुभद्रा कुमारी चौहान इत्यादि नाम लेती हैं आगे आने वाली पीढ़ी भी उसी तरह गर्व से इस काल के साहित्यकारों का नाम ले सके।
लेख:
निमिषा सिंघल
(आगरा उत्तर प्रदेश)
nimishasinghal197600@gmail.com