वक्त की उलझनें
विधा -विचार कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन – 332027
मो. 9001321438
वक्त की उलझनें
करती है शिकार
दिमाग का……!
उलझनें टोकती है
आज को हमेशा
और भटकाती है
निश्चित ही भविष्य।
टकराव वक्त का
फैलाया एक भ्रम
जिसमें उलझकर
दिमाग हर बार
लेता है फैसला गलत।
वक्त के पैदा किये शक
चुनने को करता है
मजबूर…!
गलत रास्तें…!
और सोचने को भी
करता है बाध्य
लेकिन….!
सोचा जाता है
नित्य ही निरर्थक…!
वक्त सार्थक
और वक्त ही निरर्थक
बनता है तब
जब मन संकुचित हो
दिमाग शून्य…! या
कल्पना के विचार
प्रस्थान बिंदु
होते है सजग
जो करते है पैदा ऊर्जा!।
तभी मैं सोचता हूँ
वक्त की उलझनें
शक पैदा करती हैं
या नई ऊर्जा के
विचार प्रस्थान केन्द्र
के तटस्थ उन्नत
पथ के आधार…!
वस्तुओं की मांग
और भौतिकता की लालसा
वक्त के लिए
और उसकी उलझनों
के वास्ते…!
हर बार करती आई है
चिरकाल से एक
नये सुनहरें पथ की खोज
जिसमें आदमी धँसता है
और वक्त हँसता हैं।
वक्त की उलझनें
तय कराती वो यात्रा
जिसके लिए नहीं रहता
आदमी कभी भी तैयार
लेकिन एक आत्मा
और दो पवित्रता
वक्त के साथ
बनी रहती है…!
परन्तु! तकरार के सौदे
के पास आदमी
भटकने लगता है
तब वक्त की उलझनें
मुँह फाड़े ताकती
निगलने के लिए
आदमी का भविष्य
नहीं…! समाज का भविष्य।
और नई अन्तर्दशा
से समाज के चरम
समरस साम्य बिंदु
टूट जाते है…!
आरोप लगता है
आदमी पर…
वक्त कहीं नहीं दिखता
और वक्त की उलझनें
विलुप्त हो जाती है
घटनाओं का
संयोजन करके।
आदमी सोचता है
इस घटना के पीछे
हेतु कौनसे हैं…!
न्यायाधीश बने
व्यक्ति करते है फैसला
जैवीय कारकों का
किन्तु! लुप्त वक्त की
शक – शंका उलझनें
जो विरामावस्था में है
नहीं सोचता इन पर कोई
कटपुतली बना आदमी
न सोचता है न मौन होता
बल्कि! वो लड़ता है
समाज से…!
दोष और आरोप
लगाने में करता है
महारथ हासिल।