कवि राजेश जैन ‘राही’ की कुछ नयी ग़ज़लें
(1)
ये तो सच है दौलत पास नहीं है,
लुट जाने का डर भी ख़ास नहीं है।
बातें होंगी जी-भर तुम चाहो तो,
पीना-खाना मुझको रास नहीं है।
पतझड़ है, लू है, मत पूछो कैसे,
जीवन में महका मधुमास नहीं है।
अपनों से बचकर रहना, सुनते हैं,
अब अपनों का भी विश्वास नहीं है।
गीत-ग़ज़ल का जंगल है घर में भी,
बोलो क्या यह भी वनवास नहीं है।
शादी का ख़र्चा बेशक लाखों में,
रिश्तों में मीठा उल्लास नहीं है।
‘राही’ की पूंजी हैं अक्षर मीठे,
मुफ़लिस होने का अहसास नहीं है।
(2)
गीत का मुखड़ा ग़ज़ल की शाम हो तुम,
चाँदनी की छाँव-सा आराम हो तुम।
इस नगर में अब किसे अपना कहूँ मैं,
गुल तुम्हीं, गुलशन तुम्हीं, गुलफ़ाम हो तुम।
कौन कहता है नहीं कुछ काम मुझको,
याद करना, बात करना, एक प्यारा काम हो तुम।
कुंभ जाने में अभी खतरे बहुत हैं,
घर के आगे एक पावन धाम हो तुम।
मयकदे जाता नहीं मैं जाम पीने,
सच कहूँ तो एक मीठा जाम हो तुम।
राजेश जैन ‘राही’
काव्यालय, 35 प्रथम तल,
कमला सुपर मार्केट, तेलघानी नाका,
स्टेशन रोड,
रायपुर छ. ग.
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