“स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ी सुराजी काव्य और साहित्य का योगदान”
अंग्रेजों ने व्यापार करने के बहाने भारत की पुण्य धरा पर कदम रखे और अपने पैर पसारते गये। देश गुलाम हो गया। अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ता गया और बढ़ता ही गया। जब अत्याचार अति की सीमा को लाँघने लगता है तब क्रांति का उदय होता है, विद्रोह जन्म लेने लगता है। भारत के अनेक अंचलों से विद्रोह की चिंगारी विराट रूप धारण करने लगी।
छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं रहा। वर्ष 1818 में बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में गैंद सिंह के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। वर्ष 1857 से छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो गयी थी । सोनखान के जमींदार वीरनारायण सिंह ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का ऐलान किया था। तत्पश्चात अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अपने प्राणों को हथेली में रख कर इस महासमर में कूद गए थे।
वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर ब्रिटेन ने भारत की मर्जी के खिलाफ भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय कांग्रेस के नेताओं से बिना पूछे भारत को जर्मनी के खिलाफ युद्ध में झोंक दिया था। गाँधी जी ने इसका विरोध किया था और घोषणा कर दी कि हम इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ नहीं देंगे। उन्होंने देश को यह नारा दिया था –
ब्रिटिश युद्ध प्रयत्न में, जन-धन देना भूल है।
सफल युद्ध अवरोध वर, सत्य अहिंसा मूल है।
छत्तीसगढ़ के स्वभाव में कभी भी आक्रामकता नहीं रही। छत्तीसगढ़ की जनता पर गाँधी जी का बहुत अधिक प्रभाव रहा है। यहाँ की शांति-प्रिय जनता सत्य और अहिंसा को अपनाती रही है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सत्याग्रह करते हुए जेल जाते रहे। स्वतंत्रता के आंदोलन में छत्तीसगढ़ के कलम के सिपाही तमाम साहित्यकार भी कूद गए। कलम ही उनकी तलवार थी। जन-जागरण के गीत रचे गए। राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए नाटकों का मंचन होने लगा। अक्षर-अक्षर चिंगारी बनकर ब्रिटिश शासन का विरोध करने लगे।
छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य में सन् 1501 से सन् 1900 तक का काल “भक्तिकाल” था अतः इस अवधि का सुराजी साहित्य उपलब्ध नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य का आधुनिक काल सन् 1901 से माना गया है जिसे तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है।
शैशव काल (सन 1901-1925 तक) – इस काल में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. सुंदरलाल शर्मा ने अनेक आंदोलनों पर छत्तीसगढ़ी भाषा में काव्य रचनाएँ कीं।
शैशव काल के साहित्यकार पं. लोचन प्रसाद पांडे ने साम्प्रदायिक सौहार्द्रता स्थापित करने का आग्रह करते हुए स्वराज लेंगे का नारा बुलंद किया था –
हिन्दू तुरुक एक हो, कुच्छु करा बिचार गा।
दुख झन भोगा रात दिन, करा देश उद्धार गा।।
अपन भुजा के बल मं रह के, सब स्वतंत्र हो जावा गा।
हक्क न अपन जान दा सोझे, “स्वराज लेंगे” गावा गा।।
अब जो करिहा सुना तुंहर सब, धरम-करम बच जाही गा।
भारत मालामाल होय दुख-दारिद पास न आही गा।।
(लोचन प्रसाद पांडे)
कवि गिरिवरदास वैष्णव जी सामाजिक क्रांतिकारी कवि थे। अंग्रेजों के शासन के खिलाफ लिखते थे –
उनका प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह “छत्तीसगढ़ी सुराज” के नाम से प्रकाशित हुआ था। उनकी कविताओं में समाज की झलकियाँ मिलती है। समाज के अंधविश्वास, जातिगत ऊँच-नीच, छुआछूत, सामंत प्रथा इत्यादि के विरोध में लिखते थे।
अंगरेजवन मन हमला ठगके
हमर देस मा राज कर् या।
हम कइसे नालायक बेटा
उंखरे आ मान कर् या।
(कवि गिरिवरदास वैष्णव)
(ब) विकास काल – (सन् 1926 से सन् 1950 तक)
आज हम स्वतंत्र हैं। सार्वजनिक रूप से कुछ भी कह लेते हैं, लिख लेते हैं लेकिन स्वतंत्रता के पहले ब्रिटिश शासनकाल में देशप्रेम की बातें करना या देशभक्ति पर कुछ लिखना दंडनीय अपराध हुआ करता था। वन्देमातारम् , जय हिन्द जैसे नारे लगाने पर गोलियाँ चल जाती थीं, लाठियाँ बरस जाती थीं। जेलों में ठूँस दिया जाता था। ऐसे कठिन काल में साहित्यकारों ने जो कुछ भी लिखा वह उनके अदम्य साहस का परिचायक है।
इस काल में गाँधीवादी विचारधारा के कवियों तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने ही देश की आजादी पर रचनाएँ रचीं। गाँधीवादी विचारधारा के कवि कोदूराम “दलित” हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषा पर समान अधिकार रखते थे। वे पक्के गाँधीवादी थे। छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य में स्वतंत्रता आंदोलन के संबंध में उन्होंने ही सर्वाधिक कविताएँ लिखीं।
वे प्राथमिक शाला के अध्यापक थे। वे अपने विद्यार्थियों की टोली लेकर गाँव-गाँव में जाते थे और राउत दोहों के माध्यम से देशभक्ति की भावना जगाया करते थे।
राऊत नाचा के दोहे –
सत्य-अहिंसा के राम-बान
गाँधी जी मारिस तान-तान।
हमर तिरंगा झंडा भैया, फहरावै आसमान रे
येकर शान रखे खातिर हम देबो अपन परान रे
हमर तिरंगा झंडा भैया, फहरावै आसमान रे
चलो चलो संगी हम गाबो ,जन गण मन के गान रे
होले गीत
गाँधी के गुन गाबो, लाल
गाँधी के गुन गाबो, अरे भइया हो
गाँधी के गुन गाबो लाल
देस आजाद कराबो लाल….
देस आजाद कराबो, अरे भइया हो
गाँधी के गुन गाबो लाल
परदेशी गोरा आइन हें
भूरी चांटी-जस छाइन हें
उन्हला मार भगाबो, लाल
उन्हला मार भगाबो, अरे भइया हो
गाँधी के गुन गाबो, लाल
सत्याग्रह –
अब हम सत्याग्रह करबो
कसो कसौटी-मा अउ देखो
हम्मन खरा उतरबो
अब हम सत्याग्रह करबो.
चलो जेल सँगवारी –
बड़ सिधवा बेपारी बन के, हमर देश मा आइस
हमर-तुम्हर मा फूट डार के, राज-पाट हथियाइस
अब सब झन मन जानिन कि ये आय लुटेरा भारी
अपन देश आजाद करे बर, चलो जेल संगवारी।
कतको झिन मन चल देइन अब, आइस हमरो बारी।।
स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ ही साथ अंग्रेजों के दमनकारी नियमों के खिलाफ अनेक आंदोलन और सत्याग्रह भी होते रहे। उन्हीं में से एक आंदोलन “स्वदेशी आंदोलन” था जिसमें विदेशी वस्त्रों की होली जलायी गयी । तकली, चरखा और हथकरघा के बने खादी के वस्त्रों अपनाने का संकल्प लिया गया।
कवित्त
सूत कातिहौं वो दाई, महूँ गाँधी बबा साहीं
ले दे मोर बर पोनी चरखा अउ तकली
हाथ करघा मा बुनवाहूँ मैं सुग्घर खादी
बार देहूँ होले-मा बिदेसी वस्त्र नकली
खादी के वस्त्र न केवल अंग्रेजों की अर्थ-व्यवस्था पर प्रहार थे बल्कि रोजगार का सशक्त माध्यम भी बने। गरीब से गरीब परिवार भी तकली और पोनी का प्रयोग कर सकता था
तकली –
सूत कातबो भइया आव
अपन-अपन तकली ले लाव।
भूलो मत बापू के बात
करो कताई तुम दिन-रात।
छोड़ो आलस कातो सूत
भगिही बेकारी के भूत।।
दलित जी की रचनाओं में आजादी के विभिन्न आयाम मिलते हैं, इसीलिए तो कहा जाता है कि जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। अंग्रेजों की सेना में भारतीय सिपाही भी थे। दलित जी ने उनकी अंतरात्मा को जगाने के लिए भी कविताएँ लिखीं।
सिपाही से –
हम ला झन मार सिपाही, हम ला झन मार सिपाही
एक्के महतारी के हम-तैं पूत आन रे भाई
हम ला झन मार सिपाही
लड़त हवन हन हम्मन सुराज लाने बर खूब लड़ाई
हवन पुजारी सत्य-अहिंसा के बापू जी साहीं
सत्याग्रही हमन चिटको गोरा ला नहीं डराईं
हम ला झन मार सिपाही
उन्होंने आजादी-आंदोलन के सिपाहियों के जोश को बढ़ाने के लिए लिखा –
वीर सिपाही –
हम वीर सिपाही अउ प्रताप के वंशज मन
का हुँड़रा कोल्हिया मन ला घलो डराबो जी ?
का इनकर डर मा हम घर मा खुसरे रहिबो?
अउ अपन देश के अउ नुकसान कराबो जी ?
अब तो हम ठाने हन इनकर सँग जूझे के
धरके बन्दूक सबो चेलिक मन जाबो जी
अउ कुदा-कुदा के अउहा-तउहा लगे हाँत
इन बँड़वा हुँड़रा मन ला मार गिराबो जी।
जनकवि कोदूराम “दलित” ने आजादी के बाद भी नव-सृजन के अनेक गीत लिखे। कविता के माध्यम से उन्होंने गाँधी जी का आभार भी प्रकट किया –
धन्य बबा गाँधी! –
कर-कर के सत्याग्रह गोरा-शासन ला झकझोरे
तोर प्रताप देख के चर्चिल, रहिगे दाँत निपोरे
चरखा-तकली चला-चला के, खद्दर पहिने ओढ़े
धन्य बबा गाँधी! सुराज ला लेये तब्भे छोड़े।
दलित जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा में जितनी सशक्त रचनाएँ लिखीं, उतनी ही सशक्त रचनाएँ उन्होंने हिन्दी में भी लिखीं –
पहनो केसरिया बाना
बढ़ो बढ़ो ए भारत वीरों ऋषियों की प्यारी संतान स्वतंत्रता के महासमर में हो जाओ सहर्ष बलिदान।
धर्म-युद्ध में मरना भी है अमर स्वर्ग-पद को पाना रणभेरी बज चुकी वीरवर पहनो केसरिया बाना।।
वीर सैनिक
भारत के वीर पुत्र हम सब सैनिक बन जाएंगे
अब दुखिया भारत माता के सब कष्ट मिटाएंगे।।
हम चरखा रूपी चक्र सुदर्शन फेरा करते हैं
रण-क्षेत्र में निर्भय दुश्मन को घेरा करते हैं
इसके जरिए हम बैरियो का गला उड़ाएंगे
अब दुखिया भारत माता के सब कष्ट मिटाएंगे।।
रहे न कोई भूखा-नंगा
कहा सयानों ने सच ही है, आजादी से जीना अच्छा।
किंतु गुलामी में जिंदा रहने से मर जाना है अच्छा।।
(कवि कोदूराम “दलित”)
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्रांतिकारी कवि कुंज बिहारी चौबे जब स्टेट हाई स्कूल राजनाँदगाँव में कक्षा चौथी में थे तब किसी अंग्रेज अधिकारी के शाला निरिक्षण के समय कक्षा के मॉनिटर के द्वारा अधिकारी का स्वागत गाड सेव द् एंथम के साथ सेल्यूट के साथ किया जाता था, जब अंग्रेज अधिकारी को सम्मान करने की बारी मॉनिटर होने की वजह से उन्हें करनी पड़ी तो वे वंदें मातरम कह उनके अभिवादन किये, जिससे सब हतप्रभ हो अंग्रेज अधिकारी के क्रोध का शिकार होना पड़ा फिर भी वे “वंदेमातरम” बोलते रहे। जब वे कक्षा आठवीं पहुचे तब उन्होंने शाला में फहराते यूनियन जेक को उतार के तिरंगा फहरा दिया था। दूसरे दिन सुबह प्रिंसिपल का ध्यान लहराते तिरंगे की ओर गया तब उन्होंने छात्रों की पिटाई करते हुए पूछताछ की कि किसने तिरंगा फहराया है ? तब निडरता से कुंज बिहारी चौबे ने कहा कि मेरे बेकसूर साथियों को आप क्यों मार रहे हैं? जो दण्ड देना चाहते हैं, मुझे दीजिए। तिरंगा मैंने ही फहराया है। बेंत से उनकी बेदाम पिटाई की गयी पर वे वंदेमातरम और महात्मा गांधी की जय के नारे लगाते रहे, उनका साथ सभी छात्रों ने दिया। इस प्रकरण में उन्हें स्कूल से निष्कासित कर राजनाँदगाँव विरासत की सीमा से बेदखल होने की सजा मिली। कुंजबिहारी लाल के समर्थन में छात्रों ने स्कूल आना बंद कर दिया तब तत्कालीन राजनाँदगाँव विरासत के राजा के द्वारा कुंज बिहारी चौबे के निष्कासन को रद्द करना पड़ा।
क्रांतिकारी कवि कुंजबिहारी लाल चौबे की कविता देखिए –
आँखी मा हमर धुर्रा झोंक दिये,
मुड़ी मा थोप दिये मोहनी।
अरे बैरी जानेन तोला हितवा ,
गँवायेन हम दूनों, दूध-दोहनी।।
पीठ ला नहीं तैंहर पेट ला मारके,
करे जी पहिली बोहनी।
फेर हाड़ा गोड़ा ला हमर टोरे,
फोरे हमर माड़ी कोहनी।
गरीब मन के हित करत हौं कहिके,
दुनियॉं मा पीटे ढिंढोरा ।
तैं हर ठग डारे हमला रे गोरा।।
कुंज बिहारी चौबे जी की एक और कविता जो बहुत मशहूर हुई है –
अजी अंग्रेज ! तंय हमला बनाए कंगला
सात समुंदर विलायत ले आके
हमला बना देहे भिखारी जी ।
हमला नचाए तैं बेंदरा बरोबर
बन गए तैं मदारी जी।
चीथ चीथ के तंय हमर चेथी के मांस ला
अपन बर तैंहर टेकाये बंगला….
चिथरा पहिरथन, कथरी ला दसाथन
पेज-पसिया पी के अघाथन जी
चिरहा कमरा अउ टुटहा खुमरी मा
घिलर-घिलर के कमाथन जी।
हमरे रकत ला चुहक के रे गोरा!,
लाल करे अपन अंग ला………
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार हरि ठाकुर ने भी अपने विद्यार्थी जीवन में रायपुर के सेंटपॉल स्कूल में अपने साथी रामकृष्ण गुप्ता के साथ अगस्त 1942 में तिरंगा फहरा दिया था। उन्होंने सितंबर 1942 में चर्चिल के पुतले का भी दहन कर दिया था इसीलिए उनके साहित्य में भी आजादी की ऊष्मा अलग से महसूस की जा सकती है।
बनिया बन आइन अंगरेज। मेटिन धरम, नेम, परहेज।।
देस हमर सुख के सागर। बनिस पाप-दुख के गागर।।
करिन फिरंगी छल-बल-कल। फूट डार के करिन निबल।।
बढ़िन फिरंगी पाँव पसार। हमरे खा के देइन डकार।।
करिन देस के सत्यानास। भारत माता भइस उदास।।
करिन फिरंगी अत्याचार। मचिस देस में हाहाकार।।
(कवि हरि ठाकुर)
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार केयूर भूषण ने छत्तीसगढ़ की जनता को जगाते हुए कहा –
रहे समुंदर के पार, करे सोरा सिंगार
धरे एटमी हथियार, करे दुनिया बिहार
जेकर मानुष के अहार, हवै सोना के बैपार
चिटिक जागव जी उन ला चीन्हव जी।
(साहित्यकार केयूर भूषण)
कवि प्यारेलाल गुप्त की कविता में उस दौर में भारतीय जनता की भावनाएँ परिलक्षित होती हैं कि किस तरह से लोग देश-हित में धन, स्वर्ण, गहने ही नहीं बल्कि अपना रक्त-दान करने के लिए भी बड़ी ही उदारता के साथ उमड़ पड़े थे। उनकी एक मार्मिक रचना –
माँ! ये कानन के झुमका लाके मैं दे दिहों
माँ! जम्मो जोरे रुपैया महूँ दे दिहों
माँ! कोष भारत के रक्षा के खुले हे जिहाँ
सारी बस्ती के मनखे जुरे हे जिहाँ
लहू दिए बर झगरथें जिहाँ
नोट-सोना अउ गहना बरसथे जिहाँ।
माँ! ये सोनहा कड़ा तहूँ चलके दे
जउन दुश्मन के छाती के गोली बने।
(कवि प्यारेलाल गुप्त)
कवि द्वारिकाप्रसाद तिवारी “विप्र” ने बहनों से आह्वान किया था कि वे अपने बच्चों को देश प्रेम के गीत सुनाएँ, उन्हें वीर बनाएँ ताकि बच्चों के मुख से जय-हिंद का नारा सहज ही निकल पड़े –
अब सुनिहा दीदी हमर एकठन गोठ ओ
अब आए हे घड़ी अलवर पोठ ओ
लइकन ला अब वीर बनावा
रोज सुदेसी गीत सुनावा
अब जैहिंद कहत मा उघरै
सब लइकन के ओंठ ओ।
अब सुनिहा दीदी हमर एकठन गोठ ओ।।
(कवि द्वारिकाप्रसाद तिवारी “विप्र”)
असहयोग आंदोलन के दिनों में कवि बद्री विशाल परमानंद के क्रांतिकारी भजन, विभिन्न पार्टियों में गाये जाते थे। उनके खुद के नाम से अलग-अलग स्थानों पर लगभग 80 भजन-मंडलियाँ हुआ करती थीं –
चण्डिके जगदम्बे ज्वाला,
भारत की रखना लाज
हम उमड़ पड़े हैं आज
बचाने लाज हिन्द माता की
तेरे सजे सिपाही केसरिया बाना की
(कवि बद्री विशाल परमानंद)
कवि लाला फूलचंद श्रीवास्तव ने मुहावरों का प्रयोग करते हुए अंग्रेजों की क्रूरता का वर्णन किया था –
माँस लहू ल अंग्रेज पी दिन, हाड़ा रहिगे साँचा।
बाघ के गारा बइला बँधाये, कंस ममा घर भाँचा।।
सत अहिंसा बीज गँवाके, गोली मार गिराइन
पाप के खातिर गुड नठागे, भूत अइसन बौराइन।।
(कवि लाला फूलचंद श्रीवास्तव)
कवि दशरथ लाल निषाद ने शहीद वीर नारायण सिंह की शौर्य गाथा सुनाकर सभी को जगाने का प्रयास किया –
अपन जम्मो धन बांट के, वीर नारायण कहै ललकार
सेवा भाव के ढोंग मढ़ा के, अंग्रेज होगिन हें मक्कार।
जागव जागव गा सबो लइकन अउ सियान ….।
(कवि दशरथ लाल निषाद)
कवि पुरुषोत्तम लाल ने अपनी मातृभूमि के प्रति आभार व्यक्त करते हुए उसे गुलामी के बंधनों से मुक्त कराने का संकल्प लिया –
अइसन हमला पोसें पाले ओइसन आबो एक दिन काम बंधन ले मुक्ता के तुम ला , करबो कोटि कोटि परनाम ।
(कवि पुरुषोत्तम लाल)
कवि शेषनाथ शर्मा ‘शील’ अपनी हिन्दी की कविताओं से जन जागरण करते रहे –
बाजुएं शिथिल हुईं
कि हन्त धर्म सो गया ?
या कि आर्य महाप्राण
प्राणहीन हो गया ?
देश को करो प्रबुद्ध, प्राण बाँटते चलो .
तुम बढ़ो बढ़े चलो ….।
(कवि शेषनाथ शर्मा ‘शील’)
छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के अलावा अनेक आंचलिक भाषाओं के साहित्यकारों ने भी आजादी के आंदोलन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था –
मुरिया पाटा गीत
इरखा बइर कुवर नहीं
मारा पेटा कियर नहीं
मया प्रेम से रहू माता
तुचो जय-जय माता,तुचो जय-जय माता।
देश काजे जिउक सीखूँ, देश काजे मरुक सीखूँ
तुचो जय-जय गाऊँ माता
भारत माता, भारत माता
तुचो जय-जय गाऊँ माता
(कवि – अज्ञात)
कवि ठाकुर पूरन सिंह ने हल्बी में गीत गाकर स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगायी थी –
स्वतंत्र रलो अमचो भारत
एक हजार बरस आगे, हरिक पदिम देश ये रलो
तेलेबे कहानी जागे
सत धरम ले तोर लता, रजो धरम चो छाप
सरगुन ने गोटी धान ने, पोल निकरते रला पाप।
(कवि ठाकुर पूरन सिंह)
गोंड़ी कविता
हम भारत के गोंड़ बइगा, भारत ले रे
हम भैया छाती अड़ाबो
हम तो खून बहाबो, भारत ख्यार।
अंगरेजन ला मार भगाबोन भारत ले रे।
हम भारत के भाई-बहिनी मिलके करबो रक्षा
अंगरेजन ला मार भगाबोन
करबो अपन रक्षा भैया, भारत ख्यार।
हम भारत के गोंड़ बइगा,
कर देबो जान निछावर भैया,भारत ख्यार।
अंगरेजन ला मार भगाबोन भारत ले रे।
(कवि – अज्ञात)
आजादी आंदोलन के दौरान जन-जागरण हेतु अनेक पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता रहा है। मुख्य पत्र-पत्रिकाओं के नाम निम्नानुसार हैं –
1900 में छत्तीसगढ़ मित्र, हिन्द केशरी, स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट (माधवराव सप्रे)
1908 – राष्ट्रबन्धु (ठाकुर प्यारेलाल)
1915-सूर्योदय (कन्हैया लाल शर्मा)
1921-अरुणोदय (ठाकुर प्यारे लाल)
1935-उत्थान (रविशंकर शुक्ल)
आजादी आंदोलन से संबंधित साहित्य प्रकाशन –
कोदूराम “दलित” – हमर देश (पाण्डुलिपि)
द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र – गाँधी गीत, सुराजी गीत
गिरिवरदास वैष्णव – छत्तीसगढ़ी सुराज (1930)
पं. रामदयाल तिवारी – गाँधी मीमांसा
खूबचन्द बघेल – ऊँच-नीच (नाटक)
केयूर भूषण
इस प्रकार भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ी सुराजी काव्य और साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
आलेख – अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग (छत्तीसगढ़)