कॉमरेड
जहाँ एक तरफ़ बतौर लेखक एवं एक सजग पाठक के मेरा मानना है कि हर कहानी में एक जायज़ शुरुआत एवं एक वाजिब अंत का होना बेहद ज़रूरी है। जबकि वहीं दूसरी तरफ़ कुछ लेखकों का कहना एवं मानना है कि कुछ कहानियाँ अपने आप में पूर्ण होते हुए भी कभी संपूर्ण नहीं होती जैसे..ज़िन्दगी। ज़िन्दगी भी किसी एक लम्हे या घटना के बाद खत्म नहीं होती..आगे नयी मंज़िल..नए मुकाम की तरफ़ बढ़ जाती है। ठीक इसी तरह हर कहानी में कहीं ना कहीं..कुछ ना कुछ और होने की गुंजाइश..संभावना हमेशा बनी रहती है या फिर कई बार इसे पाठकों की कल्पना पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि.. अब आगे क्या?
खैर..इस बात को यहीं विराम देते हुए कुछ ऐसी ही पूर्ण मगर अधूरी कहानियों (?) को ले कर अंकुर मिश्रा जी के नए कहानी संकलन ‘कॉमरेड’ की बात करते हैं।
इस संकलन की किसी कहानी में मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ सबको इकट्ठा करने वाला अंत में अपने साथियों का रवैया देख..निराश हो अकेला रह जाने पर परिवार समेत खुदकुशी कर बैठता है। तो अगली कहानी है कॉलेज में साथी रहे प्रीतम और स्मिता की। जिसमें प्रीतम, स्मिता की सहज दोस्ती को प्यार समझ लेता है और उसके विवाह के बाद भी उसकी तरफ़ आकर्षित रहता है।
इस संकलन की एक अन्य कहानी मानव स्वभाव के स्वार्थी अथवा निस्वार्थ होने को ले कर है। जिसमें मधुसूदन उर्फ..’मधु दा’ के चरित्र को आधार बना पूरी रचना का ताना बाना बुना गया है, जो गरीबी में भी अपनी ईमानदारी पर आंच नहीं आने देता।
अगली कहानी कॉलेज के ज़माने से दोस्त रहे दो दोस्तों की है जिनमें से एक के होनहार जवान बेटे को एक 20-22 साल का लड़का नशे की हालत में अपनी गाड़ी से कुचल कर मार देता है। शिकायत करने पर उसके पिता को कुछ पैसे ले कर मुँह बंद रखने के लिए मजबूर किया जाता है क्योंकि जिसने एक्सीडेंट किया, वो विधायक का बेटा था। मगर क्या एक मजबूर बाप अपने बेटे की मौत का बदला ले पाता है अथवा उसे मायूस हो..भरे मन से उसे चुप बैठे रह जाना पड़ता है?
एक अन्य कहानी में स्कूल में अध्यापक और साथी विद्यार्थियों के उपहास एवं प्रताड़ना का केन्द्र बना ‘सैम’ अंत में ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है जिसकी किसी ने उम्मीद भी नहीं की होती।
अगली कहानी ईमानदारी और लगन से काम करने वाले अभिषेक की है। जिसका दफ़्तरी काम के नाजायज़ दबाव को निरंतर झेलते झेलते, एक दिन बॉस और चंद मातहतों की वजह से, घर टूट जाता है। एक अन्य कहानी दफ़्तरी कलीग्स की विकृत मानसिकता एवं ओछी सोच को झेलते झेलते बीमार माँ बाप के साथ अकेली रह रही ‘सजल’ की है। जो दुखी मन से एक दिन अपनी व्यथा लेखक से कह उठती है। जो उसी के साथ उसी दफ़्तर में काम करता है। मगर अपनी झिझक एवं उदासीनता के चलते क्या वह भी उसका साथ दे पाता है?
एक अन्य कहानी में घर की कमाऊ बड़ी बेटी पहले इसलिए विवाह नहीं करती कि उसे अपनी दो छोटी बहनों का विवाह करना है। बाद में जब आर्थिक रूप से स्वतंत्र रह चुकी वह शादी कर नौकरी छोड़ तो देती है मगर फिर उसे पैसों के लिए अपने पति पर निर्भर हो जाना पड़ता है जो उसे मंज़ूर नहीं।
अंतिम कहानी है कई स्त्रियों से एक साथ संबंध रखने वाले युवक की। जिसे एक टैस्ट के दौरान अस्पताल से अपने और अपनी छोटी बेटी के एच.आई.वी पॉज़िटिव होने का पता चलता है। पश्चाताप के मद्देनजर स्वीकारोक्ति के लिए जब वह पत्नी के पास जाता है जहाँ कुछ और ही सच उसका इंतजार कर रहा है।
मेरे हिसाब से किसी भी कहानी या उपन्यास में लिखे वाक्य ऐसे होने चाहिए कि अगले वाक्य को पढ़ने के लिए उत्सुकता जागृत हो मगर इस कहानियों के संकलन में ऐसा हो रहा था कि हम आगे पढ़ तो रहे हैं लेकिन पिछली पंक्ति में क्या लिखा है उसे भूलते जा रहे हैं। मसलन..
*शीर्षक कहानी ‘कॉमरेड’ में पति पत्नी भी आपस में दफ़्तरी स्टाइल वाले औपचारिकता भरे तरीके से बात करते दिखाई दिए जबकि पति पत्नी के बीच औपचारिकता का कोई काम नहीं होता। यहाँ आत्मीय वार्तालाप होता तो ज़्यादा बेहतर होता।
*कॉलेज के विद्यार्थियों की आपसी बातचीत के संवाद भी दोस्ताना होने के बजाय औपचारिकता भरे लगे मानों उन्हें किसी वाद विवाद प्रतियोगिता में बोला जा रहा हो।
मेरे हिसाब से किरदारों के संवाद, उनके चरित्र, उम्र,व्यवहार और आपसी सम्बन्धों के हिसाब से होने चाहिए। ऊपरी तौर पर अगर देखें तो संभावनाओं से भरे लेखक ‘अंकुर मिश्रा’ जी की हर कहानी कोई न कोई विचारणीय प्रश्न उठाती ज़रूर नज़र आती है लेकिन कई जगहों पर दो वाक्यों के बीच में पूर्ण विराम के चिन्ह ‘।’ की कमी दिखी। जिससे वाक्य कन्फ्यूज़िंग लगे। साथ ही वर्तनी की त्रुटियाँ के अलावा डेढ़ डेढ़ पेज जितने लंबे पैराग्राफ़ भी पढ़ने को मिले जो थोड़ी उकताहट पैदा करते हैं।
दरअसल शुरू शुरू में हम जैसे कई लेखक अपनी रचनाओं को प्रभावी बनाने के मकसद से उनमें अपना सारा ज्ञान..अपनी सारी जानकारी एक तरह से लबालब भरते हुए उड़ेल देना चाहते हैं। यहाँ हमें संयम से काम लेते हुए खुद ही एक निर्दयी संपादक की भूमिका का भी वहन करना होता है जो हम पर और हमारी।लेखनी पर अंकुश लगा सके। उम्मीद है कि लेखक मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे और अपने प्रयासों से आने वाले समय में अपनी रचनाओं को और अधिक समृद्ध करेंगे।
103 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है यश पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
राजीव तनेजा, इन दिनों मेरी किताब से