दिनेश कुशवाह हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जो सामाजिक वंचना से त्रस्त मनुष्यता के हक़ के लिए लगातार प्रयासरत दिखाई देते हैं
दिनेश कुशवाह हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जो सामाजिक वंचना से त्रस्त मनुष्यता के हक़ के लिए लगातार प्रयासरत दिखाई देते हैं। उनकी कविताओं में इस त्रासदी का रोना,उलाहना या दयायाचना नहीं है बल्कि जन- जागृति की ऐसी मानसिक ख़ुराक़ है जिससे पोषित होकर जन साधारण तक आत्मबोध,आत्मबल एवं आत्मविश्वास से लबरेज़ होकर वह तथाकथित सत्तावर्ण/सत्तावर्ग समाज प्रणीत अन्याय के मार्ग में प्रतिरोध पैदा कर सके। दिनेश कुशवाह इतिहास में बहुजन मेहनतकश वर्ग के प्रति उपेक्षा एवं न्याय को ही नहीं साबित करते बल्कि वे उस इतिहास को ख़ारिज़ भी करते हैं जो मुट्ठी भर लोगों द्वारा, मुट्ठी भर लोगों के लिए लिखा गया यशोगान है जिसमें एक बहुत बड़े निर्माता-सर्जक-उत्पादक वर्ग को उपेक्षित एवं हतोत्साहित करने के ही यत्न किए गए हैं-
“वे अभागे कहीं नहीं है इतिहास में/
जिनके पसीने से जोड़ी गई/
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट/
पर अभी भी हैं मिस्र के पिरामिड/
चीन की दीवार और ताजमहल/
सारे महायुद्धों के आयुध/
जिनकी हड्डियों से बने/
वेअभागे/
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।”(पृष्ठ 11)
“पहाड़ लोग” नाम की कविता में कवि मेहनतकश आम आदमी के अभिशप्त सपनों पर भरी रात में लगे सूर्य ग्रहण सा अभिव्यक्त करता है जहां वह आज भी बचा है तो केवल इस्तेमाल की वस्तु बनकर जैसे कि छायादार और फलदार वृक्ष- “बचे हैं कुछ छायादार और फलदार वृक्ष /
नीच कहे जाने वाले परिश्रमी लोगों की तरह।
जिन लोगों ने झूले डाले इनकी शाखों पर/ इनके टिकोरों से लेकर मोजरों तक का/ इस्तेमाल करते रहे, रूप-रस-गंध के लिए/ जिनके साथ यह गर्मी-जाड़ा- बरसात खपे/ यहां तक कि जिन की चिताओं के साथ/ जलते रहे ये/
उन लोगों ने इन पर /
कुल्हाड़ी चलाने में कभी कोताही नहीं की।”
कवि ईश्वर की न्याय विधाता होने दया निधान होने और कृपासिंधु होने पर भी कटाक्ष करता है-“उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता/
सारे शुभ-अशुभ भले-बुरे कार्य/
भगवान की मर्जी से होते हैं/
पर कोई प्रश्न नहीं उठाता कि
यह कौन सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान? चित भी मेरी, पट्ट भी मेरी/
तुम्हारे न्याय में देर नहीं है, अंधेरे ही अंधेरे है कृपासिंधु।”
महाभारत की कथा को अवलम्ब बनाकर कवि अन्याय से आंख मूंदने वालों पर बड़ा ही चुटीला व्यंग्य करता है-“आग लगती है हस्तिनापुर में/
और जलता है द्रोपदी का लहंगा/
ख़ून हरियाली का होता है/
वध मासूमियत का/
पंख सुंदरता के नोचे जाते हैं
और सिर्फ चिड़िया की आंख
देखने वाले, कुछ नहीं देखते।”
या फिर यह कविता कि-“मंच से मां कहते हुए भारत को/
रोज़ ही उसकी साड़ी टान रहे हैं दु:शासन/ भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य/
प्रश्न पूछने का पैसा लेते हैं/
एकलव्य के अंगूठे कटते रहें तो/
कृष्ण को कोई शिकायत नहीं है। ”
कवि बड़ी बेबाकी के साथ तथाकथित ईश्वर को ललकारते हुए कहता है-“यह वही ईश्वर है /
जो तुम्हें मालपुआ खिलाता है/
तुम्हारे गर्भगृहों को सोने से भर देता है/
और हम उसके द्वार पर अछूत और अकिंचन/
बनकर खड़े रहते हैं।”
कविता-संग्रह में अनेकों कविताएं हैं जो पारंपरिक अन्याय के महिमा-मंडन को ध्वस्त करती हैं तथा नए सरोकार एवं नए समीकरण रचती हैं। हिंदी की पारंपरिक कविताओं के स्वीकृत-मिथकों को नकारती-तोड़ती हुई ये कविताएं कविता पर अहंकारी वर्चस्ववाद को चुनौती देती हैं जहां जीवन के कठोर सच से मुंह चुराते हुए शब्दों की झूठी चाशनी के मार्फ़त दिवास्वप्न की नीम कड़वाहट की साखी दी गयी है।
—प्रकाशक हैं – राजकमल प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली।