दोष लग गया हो जैसे
निम्बू का सीना चीरकर
चाहे कितने ही तरतीब से क्यों न निकाल ही दिए जाएं
उसके सारे के सारे बीज
मगर उसके रस को
निचोड़ते ही
न जाने भीतर के किस
रहस्यमयी रसग्रंथि से
एक अंतिम दाना उछलकर
गिर पड़ता है खाने में
और देखते ही देखते
पूरे ज़ायके को कर देता है
एकदम से ख़राब
जीवन की रीत कुछ ऐसी
सुख – दुःख चलते रहेंगे
बराबर से साथ -साथ
मगर अंतस की व्यथा का कोई
निश्चित कार्यकाल तय नहीं
कितने ही स्मृतियों का जंगल है मेरा मन
कितनी दुर्बल आँखों से निहारती हूँ उन्हें
ठहरे उन आघातों को सतृष्ण
भोगते रहने का दोष लग गया हो जैसे
सोचती हूँ मौलश्री का एक पेड़ लगा लूँ बालों में खोँस लूँ उसके पुष्प
फिर उसकी औषद्ध चमकदार
कमनीय पर्ण का स्पर्श
छाती के बाएं हिस्से में पल -पल धड़कते उस रक्तिम गोले से निशीथ के अंतिम पहर तक करवाती रहूँ
जिससे सवेरे का सूरज हल्का महसूस हो
अश्वथामा की तरह मेरे भी माथे पर
दिन रैन दहकता है एक घाव
रिसता रहता है जिससे
छल -छद्म का अव्यक्त पीर बूंद बनकर
मेरे देव! क्या भूल गए तुम
मैंने अमरत्व नहीं
तुमसे केवल चाही थी मुक्ति
प्रेम से पहले मैंने मांगी थी आस्था
तुम तो आत्मगौरव भी न लौटा सके
ये कालरात्रि समाप्त क्यों नहीं होती है
निर्जन के एकांत में भी कितना
आलाप समाहित है
मुझे रागों में मालकोस पसंद था
कल अंगराग के समय केसर घोलूँगी
क्लान्त मुखमंडल
लगने लगेगा थोड़ा और पीत
चन्द्रिका से तनिक उधार लूंगी शीतलता
और चुपके से विलाप के प्रसंगिकता की
कानी ऊँगली मरोड़ दूंगी
प्रेम में छले असंख्य लोगों के हृदय को
किसी रोज़ अनुराग से भर दूंगी
और खिन्न मनुष्यों के लिए संवेदनाओं की माला जपूंगी
अरपा के पुल से गुज़रते वक़्त
हर बार उसके तराई में झाँककर
ठहरे हुए मन्नत के सिक्कों की
किस्मत पर बेसुध रो पडूँगी
यूँ दरकते लम्हों की चीख को समेटे मरूंगी अपने ही शहर में हज़ार बार
कोई निर्दोष तब भी न जान सकेगा अपना दोष
अनु