वो नीली चिट्ठियां कहां खो गई
वो नीली चिट्ठियां कहां खो गई
जिनमे लिखने के सलीके छुपे होते थे
कुशलता की कामना से शुरू होते थें
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थें
और बीच में लिखी होती थी जिंदगी
प्रियतमा का विछोह,
पत्नी की विवशताएं
नन्हें के आने की खबर,
मां की तबियत का दर्दं
और पैसे भेजने का अनुनय
फसलों के खराब होने की वजह
कितना कुछ सिमट जाता था
एक नीले से कागज में
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती
और अकेले में आंखों से आंसू बहाती
मां की आस थी ये चिट्ठियां
पिता का संबल थी ये चिट्ठियां
बच्चों का भविष्य थी ये चिट्ठियां
और गांव का गौरव थी ये चिट्ठियां
अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौड़ता हैं
और अक्सर ही दिल तोड़ता हैं
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो
सब कुछ दो मिनिट में डिलीट होता हैं
सब कुछ सिमट गया छै इंच में
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में
जज्बात सिमट गए मैसेजों में
चूल्हे सिमट गए गैसों में
और इंसान सिमट गए पैसों में,,..
देवानंद पांडेय