November 21, 2024

सदानन्द शाही

मुझे झूठ से गहरी सहानुभूति है। बेचारा झूठ।क्या जिंदगी पायी है।झूठ से काम सब लेते हैं ,पर झूठ के काम कोई नहीं आता।झूठ सबकी हिमायत में तत्पर , झूठ की हिमायत कोई नहीं करता। संसार का सबसे बड़ा झुट्ठा भी झूठ की भर्त्सना करता मिल जायेगा।असल में झूठ की भर्त्सना करना हमारे डीएनए में शामिल है।बचपन में खेल खेल में ही झूठ की भर्त्सना करना सीख जाते हैं।झूठ बोलना पाप है,नदी किनारे सांप है ,वही तुम्हारा बाप है।आगे बढ़ते ही कबीर दास मिल जाते हैं।एकतारा बजाते हुए कि सांच बराबर तप नहीं /झूठ बराबर पाप/जाके हिरदय सांच है/ताके हिरदय आप।कहने का मतलब यह कि ईश्वर अपना हाल मोकाम उसी हृदय को बनाता है जहां सत्य का वास होता है।कभी-कभी सोचता हूं ,ईश्वर तो सबको बनाने वाला है ,सबका निर्माता हैं ।अगर उसने सच बनाया है तो झूठ भी तो उसी का बनाया हुआ है।अपने सिरजे हुए से ऐसा भेदभाव।अब सोचिए कि यह सोचकर झूठ पर क्या गुजरती होगी। पिता एक भाई को सब-कुछ लिख दे और दूसरे की ओर झांके भी नहीं।पिता के ऐसे व्यवहार से किस बच्चे का कलेजा मुंह को न आ जाय।
आख़िर झूठ और सच दोनों का जन्म भाषा के गर्भ से होता है।मेरे एक मित्र कहा करते थे कि भाषा भावों और विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है,यह भाषा की अधूरी परिभाषा है ।सही बात यह है कि भाषा भावों और विचारों को छुपाने का माध्यम है।यानी भाषा के बिना झूठ संभव ही नहीं है।भाषा पर जिसका जितना अधिकार होता है वह उतने ही अधिकार से झूठ बोल सकता है।इसीलिए जितने बड़े भाषणवीर होते हैं प्राय: उतने ही बड़े झूठवीर होते हैं। सच पूछिए तो सच और झूठ का सम्बन्ध चोली दामन का सम्बन्ध होता है।कचहरियों में पवित्र किताबों पर हाथ रख कर क़सम खाने के बाद झूठी गवाही देने का काम भाषा में ही संभव होता है,जैसे की पद और गोपनीयता की शपथ लेने के साथ ही झूठ का कारोबार शुरू कर देते हैं ।सच की बुनियाद पर ही झूठ पलता है। हमारे एक गुरु जी इस बात को युधिष्ठिर के हवाले से समझाते थे।वे कहते थे कि एक निर्णायक झूठ बोलने के लिए युधिष्ठिर जीवन भर सच बोलने का रियाज़ करते रहे। मेरे एक बुजुर्ग साथी कहा करते थे-झूठ और सच दोनों भाई हैं,एक से काम न चले दूसरे से चलाइए।लेकिन समय बदल गया है।सत्य किसी काम का नहीं है ।उसे सिर्फ़ दीवार पर साइनबोर्ड की तरह लटकाया जा सकता है ,शौक़ से लटकाइए पर झूठ को शुक्रिया तो अदा करते रहिए ।
लेकिन नहीं ! नहीं करेंगे। जिस भाषा से दोनों का जन्म दिया जब वही पक्षपात करती है तो लोगक्या करें ।लोक भाषा हो या देवभाषा ,सब झूठ के विरोध में खड़े हैं।देव भाषा का पहला पाठ ही शुरू होता है -सत्यं वद् धर्मम् चर।पाठ पढ़ कर हम सत्यं वदें या न वदें झूठ की भर्त्सना करना सीख जाते हैं जैसे कि धर्म को चरना । धर्म को वैसे ही चरने लगते हैं जैसे कि सांड खेत चरता है। कहते हैं कि सांड जिस खेत में लार चुआ देता है, उसे चर कर तबाह कर देता है।धर्म को चरना कोई गुनाह नहीं यह तो पहले पाठ को ठीक से आचरण में उतारना है।इसमें भी भाषा मदद देती है।देव भाषा के चर को देश भाषा की चर क्रिया से बदल देते हैं और सीना ठोककर धर्म को चरते हैं। लेकिन बात तो झूठ की हो रही थी,इसमें धर्म झुट्ठे आ गया।
झूठ से मुझे इसलिए भी सहानुभूति होती है कि उसकी स्थिति उस प्रेमी या प्रेमिका जैसी होती है जिससे मिलते सब हैं पर जाहिर कोई नहीं होने देता।प्रेम करता हुआ आदमी कहीं पर हो मन प्रिय में लगा रहता है।पहला मौका मिलते ही वह प्रिय के पास पहुंच जाता है।छूटल घोड़ भुसउले ठाढ।अवसर पाते ही घोड़ा खाने की जगह पर हाज़िर।फ़र्क़ इतना है कि घोड़ा जो काम डंके की चोट पर करता है आदमी चुपके-चुपके करता है।नजर बचाकर। दिन-रात झूठ जीते हैं, झूठ बरतते हैं ,झूठ का खाते हैं, और गाते सच की हैं।यह कृतघ्नता की पराकाष्ठा है।
अरे भाई! खाते समय शर्म नहीं आई, गाते समय आ रही है।या तो झूठ का खाइए मत और अगर खा रहे हैं तो कम से कम उसका गाइए तो।अगर झूठ बोलना पाप है तो कृतघ्नता उससे भी बड़ा पाप है।डबल पापी बनने से तो बेहतर है, एक ही पाप करना। इसमें एक फायदा भी है। झूठ के प्रति कृतज्ञ होकर कम से कम कृतज्ञता के पुण्य के भागी बनेंगे। कृतज्ञता का पुण्य झूठ बोलने से जमा हुई पाप की गठरी को धो देगा। आजकल ऐसे ऐसे डिटर्जेंट हैं कि दाग चाहे जैसे हों मिनटों में धुल जाते हैं ।ऐसे डिटर्जेंट कि बस उनका शेयर खरीद लें दाग हो या धब्बा पलक झपकते ही दमकने लगता है।
खुल्लम खुल्ला प्यार कर सकते हैं तो क्या खुल्लम खुल्ला झूठ नहीं बोल सकते। खुल्लम खुल्ला झूठ बोलने से बरकत मिलती है ,ओहदा मिलता है ,इनाम इकराम मिलता है। यह आदमी नाम का जीव भी ग़ज़ब है।उसे इनाम इकराम सब चाहिए।पद भी चाहिए, प्रतिष्ठा भी चाहिए।नाम भी चाहिए यश भी चाहिए।झूठ की शरण में जाओ तो सब मिल जाता है।वह भी बिला मशक्कत।लेकिन झूठ को धन्यवाद देते नानी मरती है।कम से कम उसे धन्यवाद तो दे दो भाई।
बेचारा झूठ न तो घूस मांगता है न पार्टी के लिए चंदा। उसे बस थोड़ी सी सहानुभूति चाहिए,थोड़ा सा रिकग्निशन चाहिए ।पुराना गाना है न- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले ,झूठा ही सही।।कैसा लगता होगा उसे ? काम ले लेते हैं और काम निकल जाने पर दुत्कारते रहते हैं । झूठ को दुत्कारिए मत। बेचारे झूठ को नकारने के लिए नये नये झूठ मत गढिए।वो क्या कहते हैं-उत्तर सच।यह भी झूठ को पर्दे के पीछे ठेलने की एक युक्ति है। तो आदमी होकर इतने एहसान फरामोश न बनिए।याद रखिए सच की हिमायत से वनवास मिल सकता है, देश-निकाला हो सकता है ,गद्दी नहीं मिलेगी।गद्दी पानी है तो झूठ की हिमायत करिए। खुल्लम खुल्ला।

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