समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती है…
अदम गोंडवी की पुण्यतिथि पर विशेष
हिंदी ग़ज़ल में दुष्यन्त कुमार के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय एवं जनवादी शायर के रूप में अदम गोंडवी का नाम बड़े सम्मान व अदब के साथ लिया जाता है। ग़ज़ल को बगावती व फकीराना स्वर देने वाले गोंडवी कबीर की परंरा के शायर माने जाते हैं। उनकी वर्ग चेतना उन्हें नागार्जुन के करीब ले जाती है। मुशायरों में घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुर्ता व सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान, जिसकी ओर ध्यान ही न गया हो यदि यकायक माइक पर आए और फिर आपका ध्यान कहीं और न जाए तो समझ लो वो अदम गोंडवी ही हैं। वे सामाजिक आलोचना के प्रखर कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों व विद्रूपता्ओं पर करारा कटाक्ष हुआ करता था। वे अपनी कविता में दलितों ,शोषितों , गरीबों , मज़लूमों व बेसहारा लोगों की बात करते हैं।दुष्यन्त की तरह ही उनकी लेखनी समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और भ्रष्टाचार पर खूब चली। सहज भाषा में भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी ग़ज़लों के माध्यम से किए कटाक्षों ने अदम को आम जनता के बीच खासी लोकप्रियता दी।
22 अक्टूबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा ग्राम में जन्मे गोंडवी का वास्तविक नाम रामनाथ सिंह था। गोंडवी की औपचारिक शिक्षा केवल प्राइमरी थी। इसके बावजूद भी कबीर परम्परा के इस कवि की गिनती हिंदी ग़ज़ल विधा के शीर्षस्थ रचनाकारों में की जाती है। अमीर खुसरो से शुरू हुई हिंदी ग़ज़ल की यात्रा को सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अंचल, बलबीर सिंह रंग, शमशेर सिंह और बाद में दुष्यंत कुमार ने दर्द, मुहब्बत, माशूक और इश्क़ हकीकी के दायरे से बाहर निकालकर समाज एवं मानवीय संवेदनाओं तक विस्तार दिया। दुष्यंत कुमार की परम्परा को आगे बढ़ाने अदम गोंडवी ने अहम किरदार निभाया है। अदम गोंडवी कहते हैं –
‘ प्रारंभ तो दुष्यंत कुमार ने ही किया था-कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। हाँ यह जरूर है कि जो चिंतन दुष्यंत कुमार ने धुंधला छोड़ दिया था, उसे मैंने साफ करने का प्रयास किया। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि दुष्यंत कुमार के यहाॅं कलात्मकता है और मेरे पास साफ़गोई। मैंने जो कुछ देखा, अनुभव किया उसे सीधे-सीधे कह दिया, सजाया सॅंवारा नहीं। मैंने साफ़गोई से ही सबकुछ बयाॅं किया है’।
मेरी ग़ज़लें मेरे व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी हैं जैसे बरगद के ऊपर मैंने कविता लिखी। मैं ठेठ गाॅंव का रहने वाला हूॅं तो बरगद जैसे विशाल व्यक्तित्व से जुड़ाव स्वाभाविक है। साहित्य में सारी चीजें चेतन अवस्था में ही नहीं घटित होतीं। कई अचेतन अवस्था में भी घटित होती हैं। मेरी ग़ज़लों में परिवेश प्रधान तत्व है। एक आम आदमी अपनी भावना जिस प्रकार बोलचाल की सरल भाषा में व्यक्त करता है वही भाव, भाषा और सहज शब्दावली मेरे शायरी की पूॅंजी है।
18 दिसम्बर 2011 को लिवर सिरोसिस के चलते उन्होंने लखनऊ के संजय गाँधी पी. जी. हाॅस्पीटल में अंतिम साॅंस ली। सबसे दुखद बात यह है कि उनकी मृत्यु मुफ़लिसी में, इलाज के अभाव में हुई।
डाॅ. अनिल उपाध्याय