कवि बसंत त्रिपाठी का चौथा काव्य संग्रह ‘नागरिक समाज’
‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ ‘सहसा कुछ नहीं होता’ ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’ ये तीन काव्य संग्रह के बाद मूल रूप से कवि बसंत त्रिपाठी का यह चौथा काव्य संग्रह है ‘नागरिक समाज’ । हालांकि बीच बहस में हस्तक्षेप के तौर पर ‘प्रसंगवश’ एक आलोचना व ‘शब्द’ कहानी का संग्रह भी , उनका प्रकाशित है । तो असल बात यह कि मैं आरंभ से बसंत को देख रहा हूं । उनमें एक सतत प्रक्रिया और विकास अपनी निरंतरता में दिखी है । कहना ना होगा कि यह ‘नागरिक समाज’ उनके काव्य यात्रा की न सिर्फ कसौटी ही है , गवाही भी है । बीसवीं सदी के अंतिम दशक का यह कवि परिदृश्य में तो अपने राष्ट्रीय पहचान के साथ मौजूद है । फिर भी मैं उन्हें , हमेशा छत्तीसगढ़ से जोड़ लेता हूं । वह समय था , छत्तीसगढ़ की समकालीन कविता में कमलेश्वर साहू , भास्कर चौधरी , संजय शाम , निर्मल आनंद , रजत कृष्ण पीयूष कुमार , किशनलाल , अजय चंद्रवंशी , नंदकुमार कंसारी , मितादास व सतीश कुमार सिंह ; सभी लगभग आ चुके थे । अतः बसंत का लेखन भी उनके समानांतर ही पल्लवित हुआ । किन्तु बसंत ने अपने लेखन की जो पृष्ठभूमि इधर तैयार की , वह एक मानक अध्याय की तरह हुआ । वैचारिक प्रबलता के मामले में वे साथियों से कहीं आगे आए ; कह दें तो संभवतः न यह अतिरिक्त अनुराग होगा , और न अतिश्योक्ति ही । मैं ऐसा मानता हूं । यह एक ईमानदार सच होगा ।
कुमार अंबुज ठीक कहते हैं कि “बसंत त्रिपाठी की कविता अपनी भाषा भंगिमा और सुस्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए अलग से चिन्हित की जाती रही है । वाम दृष्टि उनकी कविता का सहज हासिल है । रेखांकित किया जाना चाहिए कि यह संग्रह उनकी कविता के इन अवयवों के विकास का परिचय है । खास तौर पर बीत गए दशक में भारतीय समाज , राजनीति और अस्मिता की चेतना में आज के फर्क की तफसील एवं पड़ताल इन कविताओं में उपलब्ध है “।
अमूमन संग्रहों के नाम से ही कविताओं का संदर्भ चित्र , दिमाग की भित्ति पर अंकित हो जाता है , मसलन बकौल कमलेश्वर साहू ‘कारीगर के हाथ होने के नहीं होते’, भास्कर चौधरी ‘कुछ हिस्सा उनका भी है’ । कि बसंत ने अपने इस नए ताज़ातरीन संग्रह का नाम ‘नागरिक समाज’ रखा । यह स्वभावत: ही आभास कराता है कि ये कविताएं उनके नागरिक बोध को नागरिक समाज के हलफ़नामा में प्रस्तुत करेगा ।
बसंत के इस अविभाजित संग्रह को देखें तो , उन्होंने अनुक्रम में ‘महायुग’ ‘आयो घोष बड़ो व्योपारी’ और ‘कुछ भी अलौकिक नहीं होता’ के तीन उप शीर्षक में इसे भाजित किया है ; किन्तु रचनाएं अपने तादात्म्य बोध में कहीं विलग नहीं है । ये कविताएं अविभाज्य हैं । यह दिखता भी है ।
बसंत अपनी रचनाओं की कड़ी में बिल्कुल सधे , सादे लिबास से ; सदी को परखने की जो कसौटी लिए आते हैं , वे उसे नुस्खों की तरह बताने लगते हैं कि
“इस सदी को समझने के लिए ….
इसे तो उस अतृप्ति से भी जाना जा सकता है
जो लगातार
सबके भीतर जमा हो रही है
जमीन में क्षार की तरह”
अथवा कि इस तरह से भी / कि
“जीभ पर रखते ही बैगन की सब्जी
टींस सी उठती है
और याद आता है दस साल पुराना बिछुड़ चुका स्वाद”
बसंत इस कविता में विशिष्ट रूप से इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक को देख रहे हैं । एक ओर राष्ट्रीय राजनीति में अन्ना आंदोलन के बाद कांग्रेस का सफाया हुआ है , फिर देश साम्प्रदायिक राजनीति के ध्रुवीकरण और उसके उद्घोष में डूबता-उतरता गया है । यह समय है
“असुरक्षा जो हर वक्त
आशंका की तरह बजती रहती
संपन्नताएं जो भय पैदा करतीं
बात बेबात झुंझलाना जो बढ़ता ही जाता
इन सबसे भी पहचानी जा सकती है यह सदी”
यह एक पूरी कविता है , एक पूरा आख्यान है इस नई सदी के । जहां ईरादतन गोबर और मूत की संस्कृति का अकल्पनीय द्वैतवाद प्रभावी हो गया है । कि धन को बुरी नजर से बचाने के लिए बिक रहे धनरक्षक यंत्र , शक्ति वर्धक औषधि , और पिज़्ज़ाहट की कुकुराहट में इसी मध्य
“पीपल के पत्तों की तरह
कांप रहे हैं गरीब-गुरबे
नीम की पत्तियों की तरह झर रहे दिन रात”
कि तिलचट्टों झींगुर अपने अभिक्रिया पद पर गान गा रहे हैं ।
सरकारी विकास , कागजों और आंकड़ों का विकास है । उसमें जमीनी सच्चाई नहीं है । अब भी देश में वही अपहरण , बलात्कार और आत्महत्या गहरे में पैठ बनाया हुआ है । कागजों और आंकड़ों के विकास के ये लोग हैं कि इतिहास को भी बदल डालने की चाहत में नंगे खड़े हैं । जिसे बसंत दो टूक शब्दों में साफ़ करते हैं कि
“भरमाने और उलझाने वाले तर्कों से ही नहीं
असंतोषों के उमड़ते सैलाब से भी
जान सकते हैं हम ।”
इस सदी को । इस पूरी एक कविता में बसंत ने देश और सदी की नब्ज़ को छू , देश के ताज़ा तरीन हाल-ए-देश , बयां कर दिया है ।
‘दुनिया की महान उपलब्धियों के लिए शोकगीत’ गाते , बसंत के यहां संवेदना वस्तुत: भावुकता के औदात्य में है । परिस्थिति और संघर्ष का चित्रण उन महान उपलब्धियों के तुलनात्मक में है । जहां नमकीन रोशनी में चमकते चेहरे , या कि लीपे-पुते चेहरे हैं अथवा आंचल में देर तक सिर छुपाए सुबकते चेहरे हैं । एक ओर हमारी महानता बोध है कि अग्निवीर के नकली चोले में , ललचाई नज़रों क़ैद हुए जा रही है किन्तु बसंत की आंखें , देख रही है अप्रत्याशा कि
“मृत्यु दिन-ब-दिन आसान हुई जाती है
बेकारों की टोली से कम होते जा रहे हैं कुछ चेहरे”
बसंत की इस कविता में नदी के लिए एक सोते फूटे नहीं , कि कई-कई उपधाराएं भी बह आई हैं मसलन कि युवा से प्रौढ़ की यात्रा का दुख , ‘बिल्कुल अकेला’ बेकारों की टोली से कम होते ‘चेहरों का दुख’ ‘मिट्टी का ढेला’ या कि जिंदगी के रेले में तेज बढ़ते खादों के दाम से हलाक़ान किसान के लिए संवेदना में गाए उनके उस शोक गीत को देखें – सुनें
“शेयर बाजार का सांड़ हुंकारता है किसानों की हड्डियों में
मोटर कार की मंदी में अर्थहीन हो जाती है खाद की तेजी
जीवन भर थक हारकर कमाता है किसान एक मजबूत फंदा
बंधा था जो आस की रस्सी से , टूट जाता है वह”
हमारा बहिर्जगत , मुकाबले अंतर्जगत के क्षींण होता जा रहा है । हमने अपने शान और गर्व का बेड़ा गर्क कर रखा है ; और मान ली है उन इच्छाओं का दास । परन्तु बसंत हैं कि उन इच्छाओं से उपजी टींस को गहरे कटाक्ष में अभिव्यक्त कर , कहते हैं कि
“हमारे रहबरों के लिए मनुष्यता का मतलब
उनकी निजी इच्छाएं हैं
और मैं रहबरों की इच्छाओं की सुरक्षा में पलता
एक बेमतलब का जीव”
यह एक करारा व्यंग है ।
ताकत और सत्ताओं ने मनुष्य की इच्छाओं पर पहरे लगा रखे हैं । यह हमारे अंतर्जगत और बहिर्जगत में समान रूप से व्याप्ति में है । परन्तु हमारा अन्तर्जगत कलुषता से पूर्णतः मुक्त है और बहिर्जगत जब जब अन्तर्जगत के सम्मुख , समान , प्रभावी और सक्रिय हुआ , क़यामत की बात हुई ! संवाद बने , मार्च हुआ ! तथापि
“देखो कि चमकीली तरंगें ही
तुम्हारा चयनित अकेलापन है
और मोमबत्ती ब्रह्मास्त्र !”
मेसोपोटामिया, सिंधु सभ्यता के विकास के साथ नागरिक समाज की अवधारणा को भी बल मिला । किन्तु कालांतर में राज-राजे , रियासतों की भूख ने नागरिक समाज को अपने हिंसक वृत्ति से हार्डकोर टारगेट में रखा । तब से कई विद्रोह और सशस्त्र क्रान्तियों के बाद जो लोकतंत्र की मानक भावनाएं जन्मीं , वह अब आशातीत और परिणाम मूलक नहीं रह गया । अलबत्ता उसके इतर हमें यह लगता है — कि इसे हम पर बलपूर्वक लाद दिया गया है । मानो हमारी आईडेंटिटी को ही नेस्तनाबूत किए जाने को जरूरी बताया जाने लगा है । देखें कि देश , राष्ट्र हो गया है और नागरिक समाज हाशिए पर खोकर अपनी आजादी , अपने आप में उलझ गया है । जैसे–
“वह एक नारा देता है मसलन ‘जयहिंद’
और कहता है — गाओ
गाओ , क्योंकि तुम इस उन्नत देश के
उदार नागरिक हो”
यह / ‘वह’ कौन है ? सरकार ? सत्ता ?? कारपोरेट पूंजी??? दलाल मीडिया ??? सब चोरों की जमात है । सब ईजाद तकनीक के विशेषज्ञ । इतने मनभावन लोकलुभावन , इतना करीबी और चिंतातुर कि उलझाता ह्वाट्सएप पर एक गुलदस्ता भेंट कर , कि ई-मेल पर स्वास्थ्य की चिंता से सनद्ध , मन माफिक जगहों को घुमा लाने के पैकेज का देता है प्रलोभन ।
अपने समकाल को जब कोई कवि दर्ज़ करता है तो तत्कालीन भाषा , विज्ञान , टैक्नोलॉजी और प्रौद्योगिकी के शब्द मुहावरों की तरह ज़बान पर चलने लगते हैं यह उस कवि के नवीनता बोध व सम्बद्ध रूचियों को भी दर्शाता है । इन मायनों में बसंत की कविता अपने समय के ऊर्ध्व और पार्श्व को भी लंबवत् में खड़े करती है। बसंत इस कविता में बाजारवाद के दुश्चक्र व प्रलोभनों को देख चकित हैं कि जब
“वह पांच रूपये रोजाना से भी कम में
जब परिवार की सुरक्षा का वादा करता है”
सोचते हैं
“तो मेरे एक सिगरेट से भी कम की कीमत है
और अचानक मुझे
सिगरेट सुलगाने से लेकर किताब खरीदने की
अपनी समस्त आदतें
अपराध लगने लगती है”
दरअसल यह बसंत के भीतर की ग्लानि नहीं , ग्लानि उस तकनीक और बाजार पर है/ जिसने तमाम दोस्तों के साथ चायघर को जाने वाली सड़कों के नक्शे तक में अपनी डुगडुगी बजा रखी है । कि प्रत्येक अर्थवान चीज़ें भी बेकार लगने लगती है । यह विषाद फसाद हमें हमारी जड़ों से जाने कब बेदखल कर दे बसंत की चिंता में यह भी शामिल है इस कविता में
कवि बुरा…बुरा ….बुरा है । सब कुछ बुरा है । भला कैसे कहे ? वह सतत् स्वप्नदर्शी और स्वप्नजीवी हुआ ! ‘एक नया दिन’ हमेशा उसके सपनों में पलता , आकार लेता है । नरम धूप और गेंदे की लहक , कि परिजात के फूल , अथवा पंछियों की उन्मुक्त उड़ाने , या कि उन लड़कियों की कुछ आवाजें उन्हें सुनाई न दे ; हो नहीं सकता ! किन्तु उनके नए दिनों पर वह व्याध हत्यारी संभावनाएं निरंतर चहलकदमी करती रहती है
कि कवि कहता है
“इस नए दिन में
हत्या या लूट की कोई संभावना नहीं
लेकिन मैं जानता हूं कि
वह इस वक्त भी
हो ही रही है”
बसंत के यहां आदिम राग , स्मृतिजीवी न होकर अपने वर्तमान और भविष्य के मध्य पैदा हुए उन दरारों को झांकने का प्रयास करती है गोकि अब ठहरा-ठहरा है । जबकि प्रकृति और भौतिक जगत की तमाम क्रिया कलापें बदस्तूर जारी है । यहां तक कि एक भूरा बिल्ला दोनों के पतीले से दूध चटकर भाग जाता है एक ही सड़क पर दोनों के बच्चे खेलते हैं । बसंत की चिंता में देखने और हैरत की बात यह है कि
“न वे मेरे घर आते
न मैं उनके घर जाता
हममें लड़ाई या कहा-सुनी बिल्कुल नहीं है
गोकि वक्त ही कहां है हमारे पास इतना”
बसंत की आदिम इच्छा इससे कतई इत्तेफाक नहीं रखते , वे चिंता करते हैं
जब वे बड़े हो जाएंगे
तो उनका भी एक घर होगा
और ऐसा ही एक पड़ोस
जो अबोला होगा !
बसंत की कविताएं ‘लड़ाई’ से नहीं ‘पीड़ा’ से आरंभ होती है । दुख और संताप से तथा उसके विद्रोह से आरंभ होती है । अपनी तमाम साफ़गोई के बाद भी उन जिल्लतों और अपमानों से आरंभ होती है जो अपनों के बीच परायेपन के बोध व पराजय में जन्मे हैं । बसंत की यह कविता इन संदर्भों में लड़ाई ही है कि संघर्ष की प्रक्रिया अनिवार्य शर्त के विरोध में निरंतर बनी हुई है । आखिर दुनिया किस कोटि की है कि मैं जब भी गया मुझे नकारा गया । जबकि नकारे तो मैंने भी हैं , हर उस प्रत्येक को जहां-जहां ठहरा हुआ पानी था । सड़ांध और बदबू थी । बसंत की लड़ाई शीर्षक इस कविता में ‘आत्मकथा’ के पुट्स, अपने ठोस और जैविक रूप में है। यह सच इसी समाज का है । जो यत्र-तत्र फैला है । बसंत इस कविता में , जहां कम्युनिस्टों , आदिवासियों , दलितों , स्त्रियों , युवाओं, और बच्चों के पास खुद चलकर जाते हैं कि बैरंग लौटना पड़ता है उन्हें , वही वे परशुराम के तथाकथित अनुयायियों ब्राम्हणों के बुलावे को इसलिए नकार देते हैं कि जानते हैं संभावनाएं मरी हुई गाय और ठंडा गोश्त है । वे चलते जाते हैं मुर्दा घाट की ओर ; यहां तक कि आत्महत्या के खिलाफ का कवि मन अपने व्यर्थता बोध में आता है तब यम भी उस पर संदेह करता है । कहता है
कविता में मिथक कोई अनिवार्य शर्त नहीं है । किन्तु हम अपने परिप्रेक्ष्य को सह-अस्तित्व यानी मिथक के सहारे हिंदी कविता में देखते रहे हैं । बसंत के यहां भी मिथक इसी रूप में आता है ।
‘लड़ाई’ और ‘आत्मकथा लिखने से पहले खुद से कुछ सवाल’ ये दो कविताएं आपस में मिली जुली कविताएं हैं जो स्मृतियों इच्छाओं और आकांक्षाओं के आकाश में अपने डैने पसारे अदीख चाहतों रुचियों और पराजयों में उस सूत्र की तलाश करते हैं जहां चीजों की पहचान राख के ढेर में कहीं दबी रह गई । जिसे बिसूरता है कवि
“हर राह
हजार पगडंडियों में फूटती है
हर पूरी हुई इच्छा
बीसियों अनिच्छाओं का कब्रिस्तान है
कितना भी खाली करो गिलास
तलछटी में कुछ ना कुछ रह ही जाता है”
बसंत के इस संग्रह का नाम यदि ‘नागरिक समाज’ है तो तदनुरूप ही इसमें सम्मिलित कविताएं भी हैं । कि इसके प्रत्येक कविता पर अलग-अलग बात की जा सकती है । पर्याप्त और विपुल संभावनाएं हैं । यहां जो नागरिक बोध है , वह बहुत लिजलिजा और हल्का किस्म का है । जिसे बसंत ने मैदानी इलाकों का नागरिक बोध की संज्ञा से नवाजे हैं । यह मध्यवर्गीय लिजलिजा नागरिक बोध है जहां गुंजाइश अपने सहूलियतों और सुविधाओं पर आ टिकता है । वस्तुत: यह मध्यवर्गीय बुर्जुआ समुदाय है जो आलस भरा सूकून में जीवन को कहीं जीता ह और कभी जागता है । यह कि यक़ीन मानिए कहीं यायावरी दिखलाता बीसियों चेहरे के साथ होता अय्यार भी है ! समय आने पर यद्यपि वह क्रोध तथा हताशा का पुतला है तो क्षण में ही हर उत्सव पर नाचता गाता उत्सव धर्मी है । उसकी नागरिकता इस देश के बाकायदा नागरिक की है । जिसे बसंत खीझ और प्रतिक्षोभ में रखते हुए कहते हैं
“हम अतीत से मुक्ति चाहते हैं और सजातीय वर ढूंढ़ते हैं
दो फसलों के बीच हम सपने देखते दिन गुजारते हैं हमारी दिनचर्याओं पर दो बजटों के अंतराल का पहरा है”
‘चुनाव का असमंजस’ ‘महान क्षणों का ढोल’ ‘सुशासन’ ‘गिरना’ ‘शासक अक्सर कहते हैं’ ‘लोकतंत्र’ ‘लोकतंत्र का धुआं’ इत्यादि कविताएं इसी नागरिक समाज की उपज है
बसंत कामनाओं और भरोसे के कवि हैं । इधर देश में हड़बड़ी में बुलडोजर जैसा चालू (अ)न्याय तंत्र विकसित हो गया है । संघी विचार के लोग इस बुल्डोजर (अ)न्याय के पक्ष में न सिर्फ खड़े हो गए हैं बल्कि सर्टिफिकेट भी देते फिर रहे हैं । यह दुर्भाग्य जनक है । जबकि कवि का देश है , उसका समाज है , परिवेश है । उपलब्धियों से परे रह , जो चाहता
“सुकून की केवल इतनी ही जगह चाहिए
कि खड़ा हो सकूं बेख़ौफ़
डरुं ना कि कोई निकल जाए कुचल कर”
यही चाहना ही था गौरी लंकेश , सुधा भारद्वाज , गोविंद पानसरे, वरवर राव और कलबुर्गी के भी या कि गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार आदि साथियों का । निजी सुख कि लाभ नहीं कमाए जा सकते राह-ए-पथिक का कारवां हुआ है । माननीय न्यायालय तक ने सत्ता के साथ हो लिए हों जैसे , फैसले सुनाए हैं । हिमांशु कुमार के शब्दों में “न्याय की मांग गुनाह है तो हम बार बार करेंगे” क्यों यह लग रहा बसंत को या कि देश कि जनता को ? वह यह क्यों सोच रही है ? कविता ऐसे समसमायिक पहलुओं की गहरी पड़ताल करती है । बसंत त्रिपाठी इस कविता में प्रश्न खड़ा करते हैं , “जबकि
“मैं स्त्रियों को यौन-शुचिता के प्रतीक की तरह नहीं देखता
और विनायक सेन उसके बारे में तो कुछ नहीं कहता
माना कि भीतर ही भीतर कुढ़ता हूं
आखिर सचिन तेंदुलकर के ‘भारत रत्न’ मसले पर
मैं चुप हूं
तो जाहिर है कि आपकी नज़र में
राष्ट्रद्रोही ही हूं”
गुस्ताख गुस्ताख़ियों के वे पूछ रहे हैं
“आपके इस सबसे बड़े लोकतंत्र की किताब में
मेरे लायक कौन सी सजा है” ?
यह एक नागरिक सवाल है , ‘नागरिक समाज’ के सवाल हैं । पूछा ही जाना चाहिए । कि
आप को वोट दिया था
और आप कई वादों के साथ
सरकार में थे
इसलिए जरा सी राहत की उम्मीद की थी”
कहा जाना चाहिए । चूंकि ये सरकारें , सत्ताएं ख़ूब धोखाधड़ी कर उगलती हैं आग !
बसंत ने यहां गजब की व्यंग व्यंजना प्रयोग की है
“अब यह इतना ज्यादा भी तो नहीं था
लेकिन हुजूर
बदले में आप तो
किडनी ही मांग ले रहे हैं
गुर्दे पर नजर गड़ी है आपकी
आंखों की पुतलियां निकालने का आदेश दे रहे हैं
और यूं ही
बस मजे के लिए
एक बांह काट ली है आपने”
नागरिक समाज की काव्यात्मक कथाओं के क्रम में बसंत न सिर्फ ‘दुनिया की रफ्तार से बाहर खड़े लोगों के लिए’ कि ‘सक्करदरा तालाब’ के दूषित होने अथवा ‘रियल स्टेट’ के कारोबार में चौपट हुए कपास के फूलों पर बाजारवाद के दुष्प्रभाव और ‘मेट्रो रेल के आगमन की तैयारियों के बीच’ जैसी कविताओं से , नागरिक मन की उत्पीड़न और उनकी जिजीविषाओं में पड़ चुके डाके की बात को अनेक गहरे अर्थ संदर्भ में उकेरे हैं ; जिससे ज्ञात होता है कि बसंत त्रिपाठी के नागरिक , चुने हुए नागरिक नहीं हैं । अन्यथा क्या संघी , देश का प्रधान तक अपनी नागरिक चुन , अपनी नाकामियों को ढंकते रहे हैं ।
पत्र साहित्य भी साहित्य की एक विधा है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद लगभग सुन्न हो गई । किन्तु सार्वजनिक संबोधनों के लिए यह अब भी कारगर है । यहां बसंत ने इस माध्यम का प्रयोग उन धर्मांधों के लिए किया जो घृणा से भरे हैं । धरती जीतने के उपक्रम में धीरे-धीरे धरती खाली करने में लगे हैं । बसंत इस कड़ी से लगातार आगे जाते हुए धर्म सत्ता पर भी वार करते हैं कहते हैं
“कायरो ,
क्या तुम बता सकते हो
कि किस ईश्वर के आख्यान में डूबकर
अपनी नसों में भरते हो यह घृणा ?
वैसे मेरा निजी अनुभव तो यही है
कि ईश्वर का नया नागर संस्करण
एक ध्वजा है, जो घृणा सिखाता है
और हत्या के लिए उकसाता है”
धर्म , सत्ता की पनाहगाह साबित हुई है । यह हत्यारी सत्ता को ठीक ठीक पता है कि धर्म की पीठ पर बैठ वह सर्वाधिक सर्वाइव कर सकती है ! लेकिन बसंत त्रिपाठी को जो पता है वह ठीक और पक्के इरादों के साथ दोनों की कब्रें खोदने के उपक्रम को आगे बढ़ाता है ।
“कायरों , तुम्हारा वह जहरीला टैंक
जो तुम्हें ईधन उपलब्ध कराता है
बदल नहीं पाएगा दुनिया का हत्यारा पृष्ठ
क्या इतिहास से तुम कोई सबक नहीं लेते हो ?
क्या तुम देखते नहीं कि दुनिया के तमाम तानाशाहों की कब्रें
सूखी पत्तियों से ढंकी सुनसान पड़ी है ?
‘करतब’ ‘कोलतार की सडक’ ‘फ्लाईओवर के नीचे जीवन’ में खानाबदोशों के जीवन की मार्मिकता का बसंत जैसा जीवन चित्र बनाते हैं । सरकारी नाकेबंदी में उन मजूरों के चेहरे झांकते हैं सरकार की विफलताओं को टारगेट करते हैं । उनके साइलेंट टारगेट में वे कुत्ते भी हैं जिन्हें बोटियों की लत है । यह दृश्य की मार्मिकता है कि
“हेड लाइट की बौछार में
भात खाती लड़कियां
और उन्हें लाड़ से देखती मां
जहां
यह जीवन है जो फ्लाईओवर के नीचे धड़क रहा है
ऊपर तो बस गाड़ियों की घरघराहट है
‘आयो घोष बड़ो व्योपारी’ इस संग्रह का दूसरा खण्ड है । जहां मनुष्य का जीवन जिजीविषाओं के रेलमपेल में कैद और संकटग्रस्त है । शर्त आधारित दुनिया और दिनचर्या से आज़ीज़ आ चुकी व्यवहारिकी का रेलम पेल है । वहां कवि का मनुष्य अंतहीन मुबाहिसों की ज्वाला में जल रहा है । अर्थ के लिए संकेतक बिम्ब है । मसलन नींद दो दिनों के लिए काम करने लायक ताज़गी और मौत सिर्फ आंकड़ा है” अतीत पुनरुत्थानवादियों का औजार कि धर्म उद्वेलित चित्त का उत्सव । बाज़ार जरूरतों का अंतहीन व्यापार कि राजनीति कांग्रेस भाजपा और देश पाकिस्तान-चीन का विरोधी ! वहां आम के लिए बचता क्या है ? दशा हिंदोस्तां है
वहां रहते हुए
मैं उदास और मौन कंठ से
गाता हूं उदासी और पराजय का
एक धुंधला, धुंध भरा गीत”
बसंत के यहां पराजय भीत तक आए हैं । यह पराजय विडंबनाओं से है । यह पराजय काश कि बसंत का पराजय होता ! किन्तु , यह बसंत का पराजय नहीं , पराजय तो नागरिक समाज का है जिसे वे ‘हिंदी’ शीर्षक कविता के इन दो काव्यांशों में रख साफ़ करते हैं
01
“इस भाषा ने
मेरे माथे पर लिख दी हैं पराजय की कुछ अदृश्य पंक्तियां
जो बार-बार इस तरह छा जाती हैं मुझ पर
जैसे विनम्र निरंकुशों के अव्यक्त अट्टहास”
02
“मेरे पीछे
एक तूफान है
पांव के सारे निशान मिटाता हुआ
और आगे एक अंधड़ लगातार चला जा रहा है जिसमें कुछ सार्थक कह सकने का सा भ्रम है”
समकालीन यथार्थ बसंत की कविताओं में उपलब्धि की तरह आएं हैं । बेबाक हो आएं हैं । आलोच्य रूप में मुखर हो आएं हैं । जैसे नाग नदी गंदगी लिए बहती है शहर के बीचों बीच । बसंत भी बहता है पुरवाई हवाओं सा काटता , तोड़ता-मरोड़ता बीहड़। हिंदी की समकालीन कविता का यह दौर , फिर उसकी बारीक पहचान मुझे बसंत की कविता का हासिल जान पड़ता है । कि नजर ए चश्म में है , हिंदी समाज में कुछ विवश सम्पादक , जुगाड़ू प्रकाशक और बहुरुपिए कविनुमा नुमाइशी नुमाइंदे । बसंत का आक्रमण बरबस नहीं , बल्कि नियोजित आक्रमण है । हम फेसबुकियों की लफ्फाजी तौर तरीकों पर कड़ा प्रहार है । चूंकि हम कविता के मूल्यों से भटक चुके लोग हैं । प्रदर्शनप्रियता के आकंठ में डूब चुके फोटो चेंपू लोग हैं । यह ‘कविता और घोड़ा के प्रतीक बिम्ब में जरूरी समझ तथा हिदायतों के साथ व्यक्त होती है
“यदि इतना दुस्साहस है
तो जाओ वहां एक घोड़ा हिनहिना रहा है
अन्यथा इस तरफ आ जाओ
सैकड़ों घोड़े वाले
लगाम थामे इंतजार में हैं”
किसी एक पर बैठकर फोटो खिंचवाओ और फेसबुक पर डाल दो”
इस तरह से आयो घोष बड़ो व्योपारी के उलाहनों में कृष्ण की लद्धड़ गोपियों सा चुके थके-हारे आभासी कूपमण्डूक फार्मूलेबाज जिनकी कभी कोई नोटिस नहीं ली गई वे बसंत की आलोचना के केंद्र में समा आएं हैं । ‘ये हिंदी वाले कौन हैं’ ‘समकालीन कला केंद्रित संगोष्ठी का आधार वक्तव्य’ ‘आवरण’ ‘व्यक्तित्व’ ‘दीप प्रज्वलन’ ‘आलोचना’ ‘चिंतक’ ‘किताब और लेखक’ ‘लेखक और प्रकाशक’ ‘प्रकाशक और पाठक’ ‘पाठक और दुकानदार’ इत्यादि कविताएं ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’ ‘कुछ भी अलौकिक नहीं होता’ अथवा ‘सहसा कुछ नहीं होता’ ‘मौजूदा हालात को देखते’ हुए की ताकीद करते हैं ।
बसंत के इस प्रबंध काव्य का तीसरा खंड उन कवियों तथा उनकी कविताओं के प्रभाव को दर्ज़ करता है जो बसंत के जद्दोजहद में उत्प्रेरक की तरह भीतर तक आएं। वे नेरूदा की बात करते हैं , गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की बात करते हैं नाजिम हिकमत की बात करते हैं कि मीरां को याद करते हैं कि ग्राम्शी पर बात करते हैं और उनके माध्यम से अनेक अनुत्तरित प्रश्नों का उन्हीं की भाषा और तौर तरीकों में हल ढूंढ़ने लगते हैं । इस कड़ी में वे नेरूदा की काव्य यात्रा का जैसा साद बखान करते हैं वह नेरूदा के अद्वितीय जीवन प्रसंगों को साफ़ करता है कि उनका लेखन हरे जंगलों के बीच कोई उजली नदी सी रही । अर्थात् नेरूदा की हाईट जो रही वह देवदार सा हुआ । चूंकि इस खंड की कविता में बसंत ने लक्षित किए हुए लेखक के किरदार को आत्मसात किया है तो एक अतिरिक्त सम्मानित और आत्मीय नजरिया उनके प्रति रखे भी हैं जो पीढ़ियों के प्रति उनके उदारमना को दर्शाता है ।
कुल जमापूंजी वाले इस 135 पृष्ट के काव्य संग्रह की हम जितनी बार पाठ करें , प्रत्येक बार यह कुछ अधिक बेहतर के अहसास हमें समृद्ध बनाएगा । ऐसा मेरा विश्वास है । संग्रह को सेतु प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड पटपड़गंज दिल्ली ने छापा है और संग्रह प्राप्ति के लिए सहयोग राशि मात्र 175-/ तय किया । जो कि अमेजान फ्लिपकार्ट पर आनलाइन उपलब्ध है ।
इन्द्रा राठौर, रायपुर