अनकहे रिश्ते….
मेरे पड़ोस की एक प्यारी सी लड़की सन्नो;(शोभा) चिड़िया सी इस आंगन से उस आंगन फुदकने वाली,बेहद मीठी आवाज़ जब भी वह मुझे पुकारती कानों में शहद घुल जाता ,वात्सल्य छलक कर बाहर आ जाता, कभी लगता ही नहीं वह एक पड़ोसन की बेटी है; मुझे मेरी ही बेटी जैसे लगती। उसका मुझे मासी कहना बेहद अच्छा लगता था। मां के प्यार से वंचित उसका बचपन जैसे आज भी हर किसी की आंखों में वही दुलार तलाश रही हो ।मन ही मन कुछ क्षण चुप्पी साध लेती, जब भी मुझे और मेरी बेटी को प्यार करते देखती ।मेरा पूरा ध्यान उसके ऊपर रहता जब भी वह पढ़ने में कोताही करती मेरी डांट उसके कानों में पड़ती और फिर से पढ़ने लग जाती ।उसकी हर नाजायज मांग को खारिज कर जायज मांगों के प्रति मैं बिना बोले ही सजग रहती उससे दुनियादारी की बातें समय के साथ सिखाना मैं अपना कर्तव्य समझने लगी भाई साहब का (पिता )का विश्वास भी बहुत गहरा था उन्होंने सन्नो की जिम्मेदारी के बोझ से लगभग मुक्ति पा ली थी; बस अब उन्हें उसके हाथ पीले करने की चिंता थी पर मुझे उसे सशक्त बना कर दुनिया के सामने एक सफल और जुझारू बेटी बनाना था। धीरे धीरे उम्र के साथ- साथ उसे मेरी सोच और उद्देश्य शायद समझ आने लगे थे ।
उसने तनमन से अपनी पढ़ाई पूरी की। बहरहाल किसी अच्छे परिवार से उसकी शादी भी कर दी गई ।लगभग 4 माह बाद मुझे एक फोन आया हेलो !क्या आप सन्नो की मां बोल रही है ।मैंने आश्चर्य के साथ “जी ” कहते हुए उत्तर दिया ।”उन्होंने आपको कल ही घर बुलाया है” उस अजनबी आवाज ने भी मुझे अम्मा कहा। मैं समझ नहीं पा रही थी कि भाई साहब का गुजर जाना, और सन्नो का अनाथ होना, अब ना जाने किन-किन बुरे अंदेशों से मन घबरा रहा था ।खैर मैं अपने पति और बेटी को लेकर उसके ससुराल पहुंची सन्नो दरवाजे पर पहुंचते ही हमारे पैर लोटे के पानी से धोकर प्रवेश कराया; पर मेरा मन अभी भी घर बुलाने का शबब जानने को बेचैन था। कुछ देर बाद ससुराली रिश्तेदार अड़ोसी- पड़ोसी आ पहुंचे। खाने-पीने का भी प्रतिबंध उसने बहुत अच्छा किया था। खाते वक्त सबने सन्नो की तारीफ करते हुए कहा आपने सन्नो को कितने अच्छे संस्कार दिए हैं; हम उसकी तारीफ करते थकते नहीं और वह आपकी ।मेरा आश्चर्य और कौतूहल बढ़ना स्वाभाविक था ।सभी खाने पीने के बाद बैठ कर बातें करने लगे तभी सन्नो अपने हाथ में एक लिफाफा लेकर मेरे सामने आ खड़ी हुई। दोनों हाथ जोड़े कुछ कहने की कोशिश नीचे निगाह लिए करने लगी; कहते कहते उसके होंठ कांपने लगे । उसने मेरे हाथों में लिफाफा थमा दिया मैंने कौतूहल से लिफाफा खोला यह उसके नौकरी के कागज थे। मेरी आंखों में हल्की सी नमी तैर गई तभी उसने कहा- “मेरी मां तो नहीं है; पर मैंने मेरी इस अम्मा से जिंदगी को जूझ कर जीने का जज़्बा सीखा है ;हौसले के साथ काम करने का हुनर सीखा है; मैंने यह भी नहीं जाना है कि खून के रिश्ते से भी बड़े दिल के रिश्ते होते हैं; मैंने जाना है रिश्तो का अभाव धन के अभाव से कहीं अधिक दुखदाई होता है इन सबके बावजूद एक मां का प्यार पाना किसी ईश्वरी वरदान से कम नहीं है।” कहते वह फफक पड़ी मेरी बिटिया मेरी ओर निहार रही थी और उसकी आंखों की मौन स्वीकृति मुझे उसे बाहों में भर लेने के लिए स्वीकृति दे रहे थे; मैंने पल भर की देरी न करते हुए सन्नो को पूरी ताकत से अपनी बाहों में भर लिया। उसका गुबार जैसे पिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगा ,और मुझे मुझ पर ही गर्व होने लगा। मेरा सीना पिघल कर भी फौलाद सा मजबूती का अनुभव कर रहा था।
संतोषी महंत”श्रद्धा”