November 21, 2024

डॉ. किशोर अग्रवाल की दो कविताएं

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जाओ उन्हे बता देना
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जाकर कह देना उन्हे
मैं बहुत दूर निकल आई हूं
इतनी
कि लौट भी नही सकती
भाग भी नही सकती।
क्यों दी थी इतनी आजादी मुझे
जरा तो लगाम लगाते।
वे मेरे अपने थे
समझाते।
मारते तो थप्पड़ ही मारते न
क्यों न रखा नियंत्रण मुझ पर
मेरी सोच पर मेरी कथित आजादी पर
भले क्यों बन गये वो।
वो तो मेरे अपने ही थे
किसे दिखाना था उन्हे यूं मेरा आजाद रहना।
अब
जब मैं घिर गई हूं क्या करूं
पढने गई थी लिव इन में रहने लगी
वे क्षणिक आवेग संतुलित रहते अगर घर मे रहती
आकर्षण खींच लाया मुझे इस विषम सोच में
क्या युवा खिंचते नही किसी की ओर
सब आकर्षण में बंधते हैं
पर सिर्फ उतने
कि छेड़े जा सकें या कटाक्ष हों नाम जोड़कर
तन जोड़ने की इजाजत तो नही।
तब क्यूं दी मुझे यह आजादी?
चूसकर मुझे फेंक दिया है अब कूड़े दान पर
और कृपा की है
जीने दिया है मरने के लिये।
न जाने कौन था वो
समझ ही नही पाई
बस युवा तन जो मांगता रहा देती रही।
रोका क्यों नही मुझे सबने
कौन बताता ?
घिन से भरा है तन
और सडांध से भरा है मन
रोकते तो मुझे।
क्यूं नही रोका?
मुझे नही पता क्या करूंगी मैं
पर जाओ
उन्हे बता दो
न आने दें मेरी बहन को यहां मेरी तरह
खो रही हैं लड़कियां
तन से भी मन से भी
यह सिस्टम चूस जाएगा उसे भी
रोक लो उसे
इस कथित तरक्की के झूठ में मत फंसने दो
कह दो उनको।
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मेरी चिंता में
हर कोई परेशान है
संविधान मेरे लिये बनाया
बेचारे मेरे लिये चुनाव लडते रहे
इतनी चिंता की
कि मोटे हो गये
पत्रकार मेरे लिये लड़े
चैनल चलाने लगे
कारें ले ली
ओहदेदार हो गये
मजदूर नेता खूब लड़े मेरी खातिर
इतना ज्यादा
कि खुद कभी काम न किया
फिर भी घर बना लिये
परिवार पाल लिये
सारे साहित्यकार
मेरे लिये ही लिखते रहे
व्यंग्यकार सत्ता के खिलाफ
मेरे लिये खड़ा रहा
नाम व नामा कमा गया
कथाएं लिखी
कालम लिखे
कारटून बनाए
क्या नही किया
सबने मेरी खातिर
कवि भी आया
कविता लिखी
मेरी झोपड़ी ,खाली पतीली
भूखा पेट झाक गया
समीक्षक बोला
कवि सशक्त कलम लेकर
पूरी ताकत से
खड़ा है मेरे साथ
समीक्षक नाम कमा गया
मैं रेलगाड़ी के फर्श पर उंकडूं बैठा
अपनी कमजोर व बीमार बच्ची को
बुखार से बचाने
पत्नी का फटा लुगड़ा उढाए
शहर जा रहा हू ताकि
रोजी कमाकर इलाज करा लूं
मंत्री कहता है
उनकी सरकार
बस मेरे लिये काम कर रही है
मेरी जेब में पैसा
पेट में अन्न
और आंखों में
कोई सपना नही है

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