मैला आँचल
मैला आँचल[1954] रेणु का बहुचर्चित और बहुपठित उपन्यास है। अपने प्रकाशन काल से लेकर आज तक इसे पढ़ा-पढ़ाया जाता रहा है। इस उपन्यास के प्रकाशन से ही ‘आँचलिक उपन्यास’ की अवधारणा को बल मिला; हालाकिं कि इससे पूर्व भी उपन्यासो में अंचल विशेष के चित्र हुआ करते थे। लेकिन इस उपन्यास में जिस तरह एक अंचल(मिथिला) की संस्कृति गहनता से अपनी लोक संस्कृति, भाषा-बोली, विडम्बना और अंतर्विरोध के साथ चित्रित हुई वह पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई।पात्रों के साथ परिवेश का चित्रण इतनी सूक्ष्मता से पहले बहुत कम हुआ था।
जैसा की ख़ुद रेणु ने लिखा है “इसमे फूल भी हैं शूल भी , धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर निकल नही पाया”; उपन्यास में पूरा अंचल और उसके पात्र अपने वास्तविकता के साथ हैं; उन पर अलग से आरोपित ‘व्यवहार’ दिखाई नहीं पड़ता, उनमे जीवंतता है। वास्तविकता का यहां यह अर्थ नहीं कि चरित्रों की अपनी कोई जीवन दृष्टि न हो, कोई आदर्श(लक्ष्य) न हो। किसी भी मनुष्य की तरह उनकी भी अपनी चाह है। यह ‘चाह’ उनकी अपनी वर्गीय स्थिति(आर्थिक स्थिति), सामाजिक(जातीय), शैक्षिक स्थिति आदि से प्रभावित और निर्धारित है। इसलिए तहसीलदार विश्वनाथ, डॉ प्रशांत, कालीचरण, बालदेव, बावनदास, लक्ष्मी दासिन से लेकर किसानों, संथालों सब की ‘चाह’ अलग-अलग हैं।
उपन्यास का कथानक मुख्यतःआज़ादी के ठीक पहले से आज़ादी के कुछ बाद, गांधी जी के हत्या तक का है। बिहार के पूर्णिया जिले का ‘मेरीगंज’ एक पिछड़ा गांव है।गांव में सामंती जीवन अब तक व्याप्त है। जमीदार हैं, जातिवाद है, निरक्षरता, अंधविश्वास, गरीबी, बीमारी है तो प्रेम, जिंदादिली भी है। उपन्यास का कोई केंद्रीय पात्र नहीं है;कोई केंद्रीय कथानक नहीं है; कई घटनाक्रम समानांतर चलते रहते हैं। एक कहानी कबीरपंथी मठ का है;जहां लक्ष्मी दासिन के माध्यम से धार्मिक पाखण्ड और स्त्री शोषण को दिखाया गया है। लक्ष्मी अपनी इच्छा से ‘दासिन’ नहीं बनी है मगर अपना हित समझती है, और अवसर आने पर अपना अधिकार जताती भी है।’बालदेव’ का चरित्र भी लक्ष्मी से जुड़ता है। बालदेव कांग्रेस का कार्यकर्ता है, एक हद तक गांधी जी के सत्य के रास्ते पर चलता है; मगर एक हद तक ही। उसका चरित्र ढुलमुल है। वह अपने कांग्रेसी होने का फायदा भी उठाता है। जहाँ प्रतिरोध की आवश्यकता होती है, वहां पीछे हट जाता है।
कालीचरण सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ा युवा है;उसका चरित्र मुखर है।वह अन्याय का प्रतिरोध करना जानता है,इसलिए गांव के ‘अभिजन’ उससे भय खाते हैं। मगर एक उसके अच्छे होने से सबकुछ अच्छा नहीं हो जाता। उसके पार्टी में भी भ्रष्टाचार है;चोर-गुंडों को मेम्बरी मिल जाती है।कालीचरण जब झूठे आरोप में गिरप्तार होता है तो कोई उसकी मदद और विश्वास नहीं करता।
काली टोपी वाले साम्प्रदायिक दल का प्रभाव उपन्यास में अपेक्षाकृत कम दिखाया गया है।यहां पर भी उनका कार्य धार्मिक विद्वेष से ग्रस्त है।
बावनदास का चरित्र उपन्यास में सबसे उदात्त है। वह सच्चा गांधीवादी है। वह स्वतंत्रता पश्चात कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में आ रहे विचलन को देखकर हतप्रभ और दुःखी होता है; मगर फिर भी गांधी जी का एक आसरा रहता है। गांधी जी के हत्या के बाद जैसे सबकुछ खत्म हो जाता है। फिर भी बावनदास अपने जीवन की आहुति गांधीवादी राह में चलते तस्करी को रोकने में देता है। विडम्बना की तस्कर उसके अपने जाने पहचाने चेहरे हैं जो कल तक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में दिखाई देते थे।
डॉ प्रशांत और कमला के प्रेम प्रसंग में काव्यात्मकता और कोमलता है। डॉ प्रशांत मानवता से भरा सम्वेदनशील युवक है, इसलिए गांव में उसका सम्मान भी है। अवश्य अंधविश्वास से ग्रसित चरित्रों के लिए उसका होना सन्देहास्पद है।संथालों-गरीबों से सहानुभूति के कारण उसे कम्युनिस्ट समझा जाता है,और कुछ समय के लिए गिरिफ्तार भी कर लिया जाता है।
संथालों का चित्रण उनके जनजातीय पृष्टभूमि के अनुरूप है। वे परिश्रमी, प्रेम से भरे, जीवन का आनन्द लेते, हँसमुख मगर संघर्षशील हैं। उनकी स्त्रियाँ भी, जितनी निश्छल उनकी हँसी है, उतने ही खतरनाक उनके तीर। वे संख्या में कम हैं मगर संगठित है। उनके साथ अन्याय होता है तो वे उसका संगठित होकर मुकाबला भी करते हैं।
फुलिया, खलासी जी, रमपियरिया जैसे कई लोक जीवन के चरित्र हैं, जो अपने ‘अच्छाइयों-बुराइयों’ के साथ मौजूद हैं। यहाँ तत्कालीन लोकजीवन का यौन खुलापन है, उसकी चालाकियां हैं, मगर सम्वेदना रहित नहीं हैं। यहां जातिवादी ‘खेल’ भी है जहां निम्न वर्ग और दलितों के लिए तमाम लांछन है तो प्रभु वर्ग के लिए केवल व्यंग्य।दलित-गरीब वर्ग की समस्या यह भी है कि वे आर्थिक रूप से प्रभु वर्ग पर ‘निर्भर’ हैं, इसलिए उनके कई तरह के अन्याय सहते हैं।
गांव के प्रभु वर्ग आर्थिक के साथ-साथ जातिगत रूप से भी बंटे हैं।उनके आर्थिक हितों में जातिवाद भी जुड़ा हुआ है, इसलिए वे अपनी जाति के मुखिया भी हैं।पुरोहित वर्ग का हित भी इन सब से जुड़ा हुआ है। तहसीलदार विश्वनाथ यद्यपि अपने पद से स्तीफा दे देते हैं, तथापि तहसीलदार हरगौरी के निधन के बाद पुनः उनकी केन्द्रीयता हो जाती है। विश्वनाथ कमला के पिता हैं। सह्रदय हैं,खुले विचार के हैं, प्रशांत को दामाद के स्वीकार लेते हैं मगर सामंती चरित्र नहीं त्यागते। संपत्ति बढ़ाने का मोह और अधिकार भाव अक्षुण्ण रहता है। आखिर में प्रशांत के लौटने और नाना बनने पर प्रत्येक किसान को पांच बीघा ज़मीन देने और संथालों के ज़मीनी हक को वापस देने का उनका नाटकीय व्यवहार आकर्षक जरूर है मगर सहज नहीं लगता।डॉ रामविलास शर्मा ने भी इस ‘हृदय परिवर्तन’ को कथानक में अस्वाभाविक माना है।
अंधविश्वास, जतिवाद, पुरोहितवाद अपने चरम में हैं। लोग बीमारियों को दैवी प्रकोप मानते हैं, गणेश की नानी की हत्या इसके ‘डायन’ होने के आरोप के कारण होती है; लोग बीमारियों का इलाज़ नहीं कराना चाहतें। उस पर ‘जोतिखी जी’ का दुष्प्रचार अनवरत जारी रहता है।
उपन्यास के शिल्प को काफी सराहा गया है। जीवंत लोकभाषा, जीवंत चरित्र, लोकसंस्कृति सहज रूप, लोकगीतों-लोकनाट्यों का प्रयोग कथानक को सरस बनाते हैं। लेकिन इन्ही कारणों से उपन्यास पर ‘रोमेंटिक दृष्टिकोण’ का आरोप भी लगा। डॉ रामविलास शर्मा का मानना है कि इस उपन्यास में लेखक ने किसानों को संगठन शक्ति का अहसास नहीं दिलाया है, एक तरह से ज़मीदार का हृदय परिवर्तन दिखलाया गया है, जनता और उसकी राजनीतिक कार्यवाही में उसकी आस्था नहीं है, उसे लोक संस्कृति प्रिय है किंतु इस संस्कृति के रचनेवालों में उसे कहीं प्रकाश की किरणे दिखाई नहीं देती; आदि। मगर डॉ शर्मा ने इसकी तारीफ भी की है “फिर भी ‘मैला आँचल’ का एक महत्वपूर्ण पक्ष है जो उसे प्रेमचन्द की परंपरा से जोड़ता है। बहुत कम उपन्यासों में पिछड़े हुए गांवों के वर्ग-संघर्ष, वर्ग-शोषण और वर्ग अत्याचारों का ऐसा जीता-जागता चित्रण मिलेगा।”
आलोचक वीरेन्द्र यादव डॉ शर्मा के इस आलोचना को ‘अतिक्रांतिकारिता’ से ग्रसित मानते हैं। उनका कहना है कि “रेणु सामंती समाज की सड़ाँध, टूटन, बिखराव, संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को जिस प्रमाणिकता के साथ मैला आँचल में दर्ज करते हैं, रामविलास शर्मा अपनी आलोचना में उसकी चर्चा नहीं करते।” यादव जी उनपर दलित दृष्टि की उपेक्षा का आरोप भी लगाते हैं।
आलोचकों की अपनी-अपनी दृष्टि और कोण होता है, जिस पर देशकाल का भी प्रभाव होता है।डॉ शर्मा शीतयुद्ध कालीन दौर में वर्गदृष्टि और संघर्ष पर अधिक बल देते हैं, क्योकिं यह उपन्यास उस दिशा में आगे बढ़ता है, मगर पुरी तरह नहीं। यादव जी बदले समय में उपन्यास में निहित संघर्षात्मक पक्षो और दलित दृष्टि पर अधिक बल देते हैं।
आँचलिकता के प्रश्न पर शम्भुनाथ जी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि “आँचलिक उपन्यास की श्रेष्ठता वस्तुतः इसमें निहित है कि स्थानीय अनुभव की विशिष्टता के बावजूद उसमे जातीय आत्मपहचान का संघर्ष है या नहीं और एक बिंदु पर वह ‘सार्वभौम’ को आलोकित करता है या नहीं।” इस दृष्टि से वे मानते हैं कि रेणु बावनदास के माध्यम से आदर्शवाद के व्यापक जातीय संकट को रेखांकित करते हैं।मैला आँचल में यह कई जगह देखा जा सकता है कि स्थानीय अनुभव की विशिष्टता के बावजूद समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। इसमे राजनीतिक चरित्र में गिरावट, अवसरवाद, ज़मीदारी का नए ढंग से पुनरुत्थान आदि प्रमुख हैं।
बहरहाल उपन्यास का हर दौर में नया पाठ और विवेचन होता रहेगा। विवेचक अलग-अलग दृष्टि और पृष्टभूमि के होते रहेंगे।मगर श्रेष्ठ रचनाएं अपनी तमाम देशकाल गत सीमाओं, दृष्टियों के बावजूद अपनी उत्कट सम्वेदनात्मकता, शिल्प कौशल, जन सरोकारों के कारण पढ़ी जाती रही हैं।’ मैला आँचल’ को भी हम इसी श्रेणी की रचना मानते हैं। बावनदास उपन्यास में बार-बार कहते हैं “भारत माता ज़ार ज़ार रो रही है”। यह रोना पहले परतंत्रता के कारण था, जिसे स्वतंत्रता के बाद कम होते जाना था; मगर नहीं हुआ। आजादी के तुरंत बाद ही इस बात का अहसास होने लगा। आज आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी भारतमाता का ज़ार-ज़ार रोना खत्म नहीं हुआ है।
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डॉ रामविलास शर्मा की आलोचना के लिए देखें उनकी पुस्तक ‘आस्था और सौंदर्य'(1961)का निबन्ध ‘प्रेमचन्द की परंपरा और आंचलिकता।
वीरेंद्र यादव की आलोचना के लिए देखें ‘आलोचना सहस्त्राब्दी अंक पाँच(2001) में उनका आलेख ‘कथा आलोचना और रामविलास शर्मा।
शम्भुनाथ जी की टिप्पणी के लिए ‘हिंदी उपन्यास राष्ट्र और हाशिया’ पुस्तक का लेख ‘उपन्यास:गांव और विश्व गांव’ देखें।
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[2020]
●अजय चन्द्रवंशी,कवर्धा (छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320