अपना सा लगता है घर: अपनेपन के अहसास की कहानियां
वरिष्ठ साहित्यकार सत्यभामा आड़िल छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत में चर्चित नाम हैं। कविता, उपन्यास, नाटक, लोकसाहित्य आदि विविध क्षेत्रों में वे सृजनरत रही हैं। ‘अपना सा लगता है घर’ मूलतः उनका कहानी संग्रह है; लेकिन इसमे कहानियों के अलावा कुछ दूसरी गद्य रचनाओं को भी शामिल किया गया है। इनमे दो साक्षात्कारनुमा आत्मपरक आलेख जो उनकी पहली रचना और उनके संघर्ष पर केंद्रित हैं, दो व्यंग्य रचनाएं हैं; एक जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कन्दगुप्त’ के पात्र ‘देवसेना’ से उनके भावनात्मक लगाव से सम्बंधित टिप्पणी है।
संग्रहित सोलह रचनाएं काफी अंतराल की हैं; लेखिका के युवावस्था सन 62-63 से लेकर 2003-04 तक।इस तरह इतने अंतराल की इतनी कम रचनाओं में तारतम्यता कठिन है।इसलिए प्रारम्भिक रचनाओं में युवामन का आदर्श और रोमेंटिक दृष्टि अधिक है। इन रचनाओं में ‘नायिका’, ‘मृदुला का अंतिम पत्र’, ‘मरियम के आंसू’,’पत्थर’ को देखा जा सकता है।फिर भी इन रचनाओं में स्त्री के सम्वेदना और अपनी अस्मिता के प्रति जागरूकता को चिन्हांकित किया जा सकता है।
‘सौतिया डाह से परे सौत कथा’, और ‘तलाश है एक अदद सौतन की’ में पहले में जहां सामंती जीवन जो लोक में भी रहा है, मुख्यतः पुत्र प्राप्ति और वंश वृद्धि के लिए पुरुष द्वारा दूसरी(तीसरी चौथी भी) पत्नी रखने का विवरण है। अवश्य इसमे सौतों के परस्पर प्रेम और सहानुभूति के उदाहरण हैं, मगर यह व्यवस्था पुरुष प्रधान सामंती सोच का ही परिणाम है। लेखिका इसके प्रति सजग हैं, इसे रेखांकित भी करती है “पुरुष अपनी कमी व कमजोरी के बारे में सोचना भी नहीं चाहता। सारा दोष नारी के सिर मढ़ने की आदत पड़ गई है। इससे उसके अहं की तुष्टि होती है- इसी अहं को लेकर वह पत्नी, परिवार और समाज के समक्ष अपना रोब प्रदर्शित करता है”। फिर भी इस कहानी में लेखिका का मन पुरुष के अहं के उद्घाटन की अपेक्षा स्त्री के मन के उद्घाटन में अधिक रमा है। दूसरी रचना ‘तलाश है एक अदद सौतन की’ एक व्यंग्य रचना है। इसमे व्यंग्य का आधार सार्थक नहीं बन पड़ा है; स्त्री की ‘आधुनिकता’ पर व्यंग्य एक कमजोर भावभूमि के सहारे किया गया है।
संग्रह की प्रथम चार रचनाएं ‘अपना सा लगता है घर’, ‘नैहर छूटो जाय’, ‘गलियारे में बसे लोग’ जात्रा का आशियाना’ महत्वपूर्ण हैं। इसी के साथ ‘ये मालकिनें हमे ढंग से काम करने नहीं देती’ को भी रखा जा सकता है। लेखिका ने प्रथम तीन कहानियों में अपने गांव से दूर ठेकेदारों के साथ बनते शहर में काम करने वाले मजदूरों के जीवन, विवशता और जीवटता का मार्मिक चित्रण किया है। इन कहानियों में भूमिहीन और अल्प भूमि वाले किसानों-मजदूरों की शहरों में सुविधाविहीन स्थिति में काम करने की आवश्यकता और विवशता का जीवंत चित्रण हैं। मजदूर जरूर बनते मकानों में मजदूरी करते हैं मगर लम्बे समय तक जुड़े रहने और अपने स्वभावगत सदिच्छा और प्रेम के कारण उनसे लगाव हो जाता है। इसलिए जब वे एक मकान के निर्माण पूरा हो जाने पर उसे छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं तो भावुक हो जाते हैं। लेखिका ने यहां लोक और अभिजात्य जीवन के अंतर को भी रेखंकित किया है और कहना न होगा कि उनका लगाव और सम्वेदना इन मजदूरों के प्रति है। ये परिवार एक तो सुविधा विहीन स्थिति पर काम करते हैं; उस पर भी मौसम की मार तो कभी स्थानीय प्रशासन-पुलिस उन्हें परेशान करते हैं। लेखिका ने महिलाओं से सम्वाद के जरिये उनकी मनःस्थिति, लोक जीवन, गीत, बोली, संस्कृति के साथ-साथ उनकी उत्कट सम्वेदना को भी रेखंकित किया है।
संग्रह की इन रचनाओं में स्त्री जीवन के संघर्ष, मनोविज्ञान, सम्वेदना का व्यापक चित्रण हैं उनमे लेखिका के निजी जीवन की झलक भी समाहित है। ‘जात्रा का आशियाना’ में ट्रेन में नौकरी के लिए सफर करती स्त्रियों की अपनी समस्याएं हैं तो उल्लास भी है। साथ ही ट्रेन के साथ चलने वाला एक पूरा जीवन और दिनचर्या है जिसका अच्छा चित्रण हुआ है।लेखिका चूंकि छत्तीसगढ़ी संस्कृति की अध्येता रही हैं इसलिए प्रसंगानुकूल उसका चित्रण गहराई से कर पायी हैं।
लेखिका के दीर्घ लेखकीय जीवन के हिसाब से ये कहानियां कम हैं। इसलिए उन्होंने सम्भवतः सभी रचनाओ को संग्रह में शामिल किया है;इसलिए दीर्घ अंतराल में लिखी कहानियों में रचनात्मक भिन्नता स्वाभाविक है। और जैसा की लेखिका ने ‘अपनी बात’ में लिखा भी है कि इन रचनाओ को सहेजकर रखना भी उनका उद्देश्य है।
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कृति- अपना सा लगता है घर(कहानी संग्रह)
रचनाकार- डॉ सत्यभामा आड़िल
प्रकाशन- वैभव प्रकाशन, रायपुर
कीमत-₹ 100
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[2020]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320