November 22, 2024

तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना : लोकजीवन का प्रेम और प्रतिरोध

0

समकालीन सृजनरत कवियों में रजत कृष्ण की विशिष्ट पहचान है।उनके यहां लोकजीवन की जितनी गहरी समझ है, उतना ही उसका प्रतिरोध पक्ष भी।यही कारण है वे कुछ कवियों की तरह ‘अहा लोक!’में खो नहीं जाते बल्कि उसकी विडम्बना को भी शिद्दत से व्यक्त करते हैं। रजत कृष्ण का ‘लोक’ अपनी संकट को पहचानता है तो उसका प्रतिवाद भी करता है और इसलिए राजनीतिक चेतना से असंपृक्त नहीं है। उनकी पहली कविता संग्रह ‘छत्तीस जनों वाला घर’ से लेकर विवेच्य संग्रह ‘तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना’ तक इसमे बराबर विकास दिखाई देता है। उनकी यह राजनीतिक चेतना बिना किसी लाग-लपेट के जनपक्षधर राजनीतिक चेतना है इसलिए सन 2000 में रजत ‘खेत ‘ के बारे में लिखते हैं “हम कहते हैं खेत/और हमारे अंतस जल में/शहद-सी घुल-मिल जाती है/बनिहार-बुतिहारों की/मेहनत कसी बोली/हँसी-ठिठोली!” वह 2021 तक आकर “कहते हैं हम खेत/और झूल आते हैं/अब तो आँखों में/ घर के मियार में अपने ही/फाँसी पर झूलते किसान…./कीटनाशक पीते/बेटे उंसके जवान-जवान !!” तो उनकी राजनीतिक चेतना के विकास का पता चल जाता है।

रजत की ‘समझ’ किसी हवाई या काल्पनिक बिम्बों में व्यक्त नहीं होती अपितु वे अपने परिवेश और घर-परिवार जो मुख्यतः किसानी है, से अपनी बात कहते हैं। कहना न होगा किसानी परिवार के लिए खेत केवल आजीविका का साधन नहीं होता, उन्हें उससे परिवार के सदस्य की तरह प्रेम होता है, इसलिए वे खेत को लाभ-हानि के गणित से नहीं देखते। और इसलिए जब ऐसी परिस्थिति आती है “कल साँझ खेत से/ हल-बैल लिए लौटे बाबूजी/बहुत मन टूटा दिखे,/बार-बार कुरेदने पर/खुलासा किया उन्होंने../कि हमारे खेतों के आस-पास ही/खड़ी होने लगी है/इन दिनों/एक कार काले रंग की!!” तो चिंता को वही समझ सकता है जिसका ज़मीन से लगाव उपयोगितावादी नहीं होता। किसी व्यापारी मानसिकता के व्यक्ति के लिए तो यह फायदेमंद सौदा हो सकता है कि एक जगह की ज़मीन बेचकर दूसरी जगह उससे कहीं अधिक ज़मीन खरीदी जा सकती है,मगर जैसा कि हमने कहा एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए ज़मीन का केवल आर्थिक पक्ष नहीं होता अपितु एक संवेदनात्मक लगाव होता है,जिसमे उंसके पूर्वजों की यादें भी जुड़ी होती हैं। ज़मीन से अलग होना कवि को ऐसा लगता मानो उसकी बेटी उससे अलग हो रही है।

इसलिए यदि “गुमसुम रहने लगी है माँ/न पेट भर खाती है/न नींद भर सोती है।” तो इस लगाव को समझा जा सकता है। नयी पीढ़ी के लिए भले ही “एक एकड़ के कम नहीं होते,/कहते हैं भइया/कहता है छोटा भाई/और उनकी आँखों में/लहरा उठते हैं/मुआवजे की रकम से जन्मे/सतरंगी सपने।” लेकिन माँ “भर्रा पड़ती है”। लेकिन किसानी जीवन से इतना लगाव होने के बाद भी रजत उसकी विडम्बना को महसूसते हैं इसलिए किसी हताशा के क्षण में कह उठते हैं “इस बखत सबसे बड़ी सजा है/किसान होना।/पुरखों के रक्त पसीने से सीझी मिट्टी को/अपना कहना। …चोर-उचक्के-भांड जो चाहे हो जाना/किसान भर मत होना…/किसान होओगे तो छाती में गोली खाओगे! महतारी-सा घुले मिले रहोगे जिस मिट्टी संग/ उसी की गोद में/आखिरी नींद सुला दिए जाओगे!!” क्या विडम्बना है कि सत्ता एक तरफ किसानों को ‘पूजती’ है और दूसरी तरफ अपने हक के लिए प्रतिवाद करने पर आख़िरी नींद सुला देती है।यह है एक जनपक्षधर कवि का लोकचित्रण!

रजत की कविताओं में किसानी जीवन के विविध चित्र हैं। उनका परिवेश छत्तीसगढ़ का होते हुए भी व्यापक रूप में समग्र लोकजीवन की झाँकी है।संग्रह में स्त्री व्यक्तित्व की कई छवियां हैं।वे माँ, बहन, प्रेमिका सभी रूपों में चित्रित हैं; परिवेश कहीं ग्रामीण है तो कहीं ‘क्षेत्रमुक्त’। रजत स्त्री जीवन को यथार्थ दृष्टि से देखते हैं। लोकजीवन में जहां स्त्री पुरूष से कंधा से कंधा मिलाकर चलती है, बराबर का श्रम करती है, वहीं कई रूपों में पितृसत्ता अभी बरकरार है।रजत इससे दामन बचाकर नहीं चलते, वरन इसे भी देखते-दिखाते हैं। किसानी जीवन मे ‘बनिहारिनें’ “सुबह की किरणें समेटे/ यह छिंटही कतारें/बिगर रही हैं जो चारों खूँट में/बनिहारिनें हैं वो हमारे गॉंव की!” इनके श्रम की महत्ता ये है कि “सुख-समृद्धि के नाम पर/दिन पर दिन/ हो रहे हैं बंधुआ जब/काली रातों के हम,/तब श्रम की उजास से/ झुका रही होती हैं दिनमान को”। इन ‘कमइलीन बेटियों’ के लिए श्रम उनके जीवन का हिस्सा है, जो उन्हें ‘घुट्टी में’ मिला रहता है।

स्त्रियां घर-परिवार, बच्चों-पति के लिए क्या कुछ नहीं करतीं! लोकजीवन में व्रत-उपवास का भी एक सांस्कृतिक पक्ष होता है। भले ही उनमें वैज्ञानिकता न हो लेकिन सदिच्छा निःसन्देह होता है। स्त्रियां अपने परिवार के खुशहाली के लिए व्रत रखती हैं मगर विडम्बना यह कि “एक बात तो बताओ/क्या कोई व्रत है ऐसा भी/ साथ देते हो जिसमें/ तुम्हारे अपने वे सभी,/जिनके खातिर रहती हो/निराहार कभी तो कभी निर्जला ही!!” अधिकांश स्त्रियां घर का पूरा काम करती हैं मगर “क्या वह दर्ज होता है कहीं/कोस या किलोमीटर के पैमाने में कभी?” अभी भी समाज उस स्थिति में नहीं है जहां स्त्री के श्रम यथेष्ठ मूल्यांकन हो “नहीं है पूंजी की सत्ता/कोई तुम्हारे पास/देखे जिसे/आँखे दुनिया की,/ ना ही होती पंजी कोई ऐसी/दर्ज हो जिसमें/बाकायदा तुम्हारे काम की/पूरी अवधि!”

इस तरह रजत स्त्री की विडम्बना को भी देखते हैं। बावजूद इसके लोकजीवन में स्त्री की महत्ता का सम्मान बेहतर होता है। इसलिए ‘गृहणी के बीमार पड़ने पर’ केवल घर का काम नहीं रुकता बल्कि ‘चिरई-चिरगुन, पेड़-पौधे, तुलसी’ सब उदास हो जाते हैं। स्त्री का ‘महतारी’ रूप सबसे उदात्त होता होता है जो “मुड़ पर/ईंटो की थड़ी लादे/गर में दुधमुँहे को लटकाए/भरे जेठ की दोपहरी/देह होम करती महतारी यह/श्रम की किताब में अंकित/सबसे जीवंत कविता है”।

छत्तीसगढ़ में ‘तीजा’ की परंपरा बहुत महत्वपूर्ण हैं जहां स्त्रियां अनिवार्यतः मायके जाती रही हैं और इस तरह एक समय विशेष में सभी स्त्रियों के मायके आने से मेल-मुलाकात हो जाती है। और ‘तीजहारिन बहनों’ के घर आने से रौनक आ जाती है। और जब वे जाती हैं तब “तीजहारिन बहनें/ तीजा से…/प्रकट में तो यह/कितना उलट-फेर जाती हैं/ माँ की ममता/पिता के दुलार/और भाइयों के प्यार को!” स्त्रियां किस तरह माँ-बाप का सहारा बन सकती हैं, बनती हैं कवि ने ‘मॉं बनते गए पिता और उनकी बेटियाँ’ में चित्रित किया है “और उम्र के भार से/निरन्तर झुकती गई कमर पिता की;/तब पता ही नहीं चला/की बेटियाँ यह फूल-सी/कब, कैसे पाँवों पर अपने/ खड़ा होते हुए चुपचाप ही/ज्यों माँ बनती चली गई आहिस्ता-आहिस्ता /अपने सत्तर वर्षीय पिता की!”

स्त्रियों के इस चित्रण से ऐसा नहीं कि रजत उनका आदर्शीकरण करते हैं अपितु वे उनकी विडम्बना को देखते हैं जो गांव-कस्बो में भी है। मगर प्रतिरोध यहां भी है “लड़कियाँ गॉंव-कस्बे की/जो जी चाहे खा रही हैं/फुटपाथ पर ठेले में,/पी रही है पाइप से/थम्सअप, पेप्सी-कोला!/पिट रही हैं अब भी/पर चुप नही हैं, हां चुप नहीं हैं/ बेटियाँ अब गाँव-जनपद की भी!!” स्त्री का एक रूप ‘साथिन’ का भी है, जहां प्रेम और साहचर्य होता है, वहां भी उनका ममतामयी रूप ही अधिक दिखाई देता है “मेरी बड़ी से बड़ी भूल-गलतियों/पर भी जब कई दफे/तुम मुझे कुछ नहीं कहती/और चुप रहती हो प्रायः/जान-बूझकर की गई/मेरी मूर्खताओं पर भी/लगता है तब-काश एक बार/मुझे डाँट लेती तुम…/ और कान उमेठते हुए मेरा, कहतीं यह-/ आखिर कब जाएगा बचपना/कब आएगी अक्ल तुम्हें भला!” इस तरह प्रेम की कई कविताएँ हैं। “हँसी में लहलोट/तुम्हारा वह मुखड़ा/टँका है करेजा भीतर मेरे/अब भी वैसे के वैसे ही…/जैसे कि मया की मुंदरी में/मोती हो जड़ा।”

रजत के यहां जितना प्रेम है, सम्वेदना है, उतना ही संघर्ष भी है, इस असमता मूलक स्थिति को बदलने की छटपटाहट है।इधर सत्ता का चेहरा विभाजनकारी और क्रूर होता चला गया है, कवि उससे बेखबर नही है “सत्ता के मुँह में/जब खून लग जाता है/मानों कत्लगाह बन जाती है राजनीति!” मगर कवि का पक्ष स्पष्ट है “जीवित रहेंगे हम तो/सालों-साल/भय भरी तुम्हारी स्मृतियों में… /करते रहेंगे सवाल” । और आतातायी कितना भी ज़ुल्म करे “पर आँखों में हमारी खिलखिलाती/ज्योति चाँद की-छीन कौन सका है!/ रौंद सका है कौन भला…/किरणें-हमारे अंतस में/उम्मीद बन खिल उठे सूरज की।।” दमन से मुक्ति का यह संघर्ष सर्वव्यापी है इसलिए कवि ‘रोहित वेमुला’ से लेकर ‘मंडेला’ तक को याद करता है। रोहित वेमुला के लिए “मैं फिर मारा गया एक बार/सफेद सूत से बने दस्ताने वाले/उन्हीं हाथों से/जिसका जिक्र हमारे पुरखे/प्रायः करते थे।” यह स्थिति एक दिन बदलेगी मगर अभी वह दूर की बात लगती है, वरना ‘इरोम शर्मिला’ की हार न होती जिसने अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा लोकतंत्र के सम्मान के लिए अर्पित कर दी। “बताती है समाचार वाचिका टीवी चैनल की/इरोम के अपनी विधानसभा सीट में/ महज नब्बे वोट पाने की खबर/और ख़बर जमानत जब्ती की भी..।/दिखाती है साथ ही फुटेज/अनशन वाले उन दिनों के/ जब उन्हें जिंदा रखने दी जाती रही खुराक/जबरन अन्न-जल की।”

‘ईश्वर की डायरी के पाँच पन्ने में’ कवि ईश्वर की ‘बेबसी’ के बहाने आदमी के स्वार्थ में अंधे हो जाने को दिखाता है।सन्दर्भ उत्तराखंड आपदा का है, जब ईश्वर को कहना पड़ता है “भक्तों मैं शर्मिंदा हूँ/कि तुम्हारी आस्था पर/खरा न उतर सका/कि सही-सही तूल न सका/तुम्हारी भक्ति के तुला पर भी!/ ढोने पड़ रहे थे जब बूढ़े कंधों को/जवान बेटों की।लाशें/तब मैं तमाशबीन-सा/कैसे बैठा रहा अपने ठौर पर ही”। ग्लानि यहां तक है कि “स्त्रियों के गहने छीने/उनकी देह से वस्त्र हेरे,/स्त्रीत्व को कुचल-रौंदा!!/उफ!ऐसे दिन देखने-सुनने से अच्छा/मैं स्वयं जलजले में समा क्यों न गया!

भाषा के स्तर पर भी रजत की कविताएं सहज हैं। वे छत्तीसगढ़ी क्रियाओं और शब्दों का जिस सहजता से प्रयोग करते हैं उससे हिंदी समृद्ध होती है, साथ ही भाव सम्प्रेषण में आसानी होती है। कहीं पर भी शब्द जबरदस्ती प्रदर्शन के लिए ठूंसे दिखाई नहीं पड़ते और छत्तीसगढ़ी पृष्टभूमि से भिन्न पाठक को भी इनसे कोई दिक्कत नही होती।

इस तरह इस संग्रह की कविताएं अपने गांव-जनपद से नगरों-महानगरों तक के किसान-मजदूरों, स्त्रियों, परिवारों के सुख-दुख, उनकी समस्याओं तथा संघर्ष को बहुत स्पष्टता से रेखांकित करती हैं, साथ ही इनमें कोमल सम्वेदना और अपनेपन का अहसास है, जो पाठक को संवेदित और जागृत करती है।

———————————————————————–

कृति- तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना(कविता संग्रह)
कवि- रजत कृष्ण
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन,जयपुर
कीमत- ₹150

————————————————————————-

●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *