“हे आम्र-वृक्ष “
आज अपने गांव जाते समय आम्र-वृक्ष आम्र मंजरी से श्रृंगारित बहुत ही लुभावने लगे कुछ पँक्तियाँ भी मचल उठीं मन में…
“हे आम्र-वृक्ष ”
क्यों इतराते हो श्रंगार करके
बहुत बौरा रहे हो.. क्या इसलिए?
आँधियाँ पूछ रही हैं तुम्हारा पता
न जाने तिरते हुए कब पहुँच जाएंँ
आवारा हवाएं तुम तक ।
हे आम्र वृक्ष !
नहीं जानते क्या..
कुछ भी स्थाई नहीं है यहांँ
न विरह न मिलन
न खुशी न गम
कुछ भी तो नहीं।।
निरुपमा सिंह (स्वलिखित)🌾🌳🌾🌳