चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूं
मैं आसमान में चाँद देख रहा हूं
किन्तु चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूं
मुझे डर लगता है कहते हुए कि
इस बार ईद की सेवइयां खाने जावेद तुम्हारे घर आऊंगा
पिछली बार भी दोस्तों ने कहा था मुझसे
रामनवमी की रैली में तलवार लेकर जय श्री राम के नारे लगाने को
“मुझे पढ़ना है” के बहाने मैं नहीं निकला था उस दिन घर से बाहर
मैं जहां इस वक्त बैठकर कविताएं लिख रहा हूं
मुझे डर है कि मेरी कविता को देश विरोधी बताकर मुझपर लगा दिया जायेगा आरोप देशद्रोही का और साबित कर दिया जायेगा किसी अलगाववादी दल का नेता
जबकि मुझे अपने देश के संविधान में पूरी निष्ठा है और रामचरितमानस से ऊपर अपने देश के संविधान की प्रति रखता हूं
बचपन में अपनी पेंसिल छिन जाने पर उसके लिए लड़ जाता था मैं
खाने के समय मां जब भाई से कम देती थी खाना तो अड़ जाता था मैं
क्रिकेट खेलते वक्त गलत निर्णय पर तूल जाता था मैं
अब बड़ा हो गया हूं और चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूं
मुझे रामनवमी के मेले खूब पसन्द हैं
गेहूं की दौनी करके थकी देह जब मेले में जाने के लिए नहाकर तैयार होती है,तो रात में निकला चांद अधिक दूधिया लगता है और देह की गंध मंडप में जल रही अगरबत्ती से अधिक सुगंधित लगती है
मेले की जलेबियां और समोसे का स्वाद लेना
जीभ के साथ किया गया सबसे सुन्दर न्याय है
किन्तु, मैं अब मेला को मेला कह पाने के भय से सहमा हुआ हूं
एक लड़की से बरसों से प्रेम करता हूं मैं
किन्तु कह पाने के भय से सहमा हूं
बगल के गांव में पिछ्ले ही बरस एक लड़के को दिन दहाड़े मारकर जला दिया गया था
वह लड़का भी किसी लड़की से प्रेम करता था और वह यह कह पाने का साहस रखता था
इस देश में जितनी जोर से अल्लाह हु अकबर और जय श्री राम के नारे लगाए जाते हैं,
उसका एक प्रतिशत भी अगर “मुझे तुमसे प्रेम है” कहने में खर्च कर देता
तो मुझे चाँद को चाँद कहते डर नहीं लगता
छठ पूजा में शाम को जब कोसी भरा जाता था तो
गीतहारिन आती थीं गीत गाने
साथ में रबीना, समीना और तेतरी दाई भी होती थीं
सबको आता था सुन्दर स्वर में गाने “काँच ही काँच के बहंगियाँ, बहंगी लचकत जाय…”
सुबह उठकर समीना, रबीना जाती थी मदरसा कुरान पढ़ने और उधर से ही कुरान सीने से लगाए पहुँच जाती थी छठ घाट
अब पिछले कुछ सालों से नहीं आती हैं तेतरी दाई और न समीना रबीना
अब वे दूर से देखने लगे हैं छठ घाट
उन्हें भी शायद छठ को छठ कहते डर लगने लगा है
टीवी पर न्यूज देख रहा हूं
“विपक्षी दल के नेता की सदस्यता खत्म”
न्यूज चैनल का नाम रिपब्लिक भारत है ,किन्तु
मुझे रिपब्लिक भारत को रिपब्लिक भारत कहते डर लग रहा है
क्योंकि लोकतांत्रिक होने का भय दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है
विपक्ष कटता जा रहा है और
हम जन गण मन अधिनायक की जय हो रटते जा रहे हैं
भारत भाग्य विधाता बनता जा रहा है।
– आदित्य रहबर