बस्तर पर मेरी एक कविता
विश्व आदिवासी दिवस की शुभकामनाएँ
केश तुम्हारे घुंघराले, ज्यों केशकाल की घाटी
देह तुम्हारी ऐसे महके, ज्यों बस्तर की माटी.
इन्द्रावती की कल-कल जैसी, चाल तुम्हारी रुमझुम
कोरंडम भी तरस रहा है, बन जाने को कुमकुम.
गुस्सा इतना प्यारा कि जब भी भौंहें तन जाये
चित्रकोट के जल प्रपात पर, इन्द्र धनुष बन जाये.
तीरथगढ़ के झरने जैसा, काँधे पर है आँचल
वन में बहती पवन सरीखी, पग में रुनझुन पायल.
बारसूर में सात धार का जैसा सुन्दर संगम
कंठ तुम्हारे समा गई है, सात सुरों की सरगम.
गुफा कुटुम्बसर की गहरी, रहस्यमयी हो जैसे
श्वेत श्याम रतनार दृगों की थाह मैं पाऊँ कैसे ?
रूठे तो भोपाल पट्टनम -सी, गरम बन जाती
प्यार करे; कांकेर की रातों -सी, शबनम बन जाती.
मुस्काए तो महुवारी में, महुआ झरता जाए
और हँसे खुलकर तो कोयल, अमराई में गाए.
नारायणपुर की मड़ई, जगदलपुर की विजयादशमी
क्यों लगता है रूप तुम्हारा, जादूभरा,तिलस्मी ?
बस्तर का भोलापन प्रियतम ! मुखपर सदा तुम्हारे
इसी सादगी पर मिट बैठे, अपना सब कुछ हारे.
चिकने-चिकने गाल तुम्हारे, ज्यों तेंदू के पत्ते
अधर रसीले लगते, जैसे मधु मक्खी के छत्ते.
प्रश्न तुम्हारे चार-चिरौंजी, उत्तर खट्टी इमली
कोसा जैसी जिज्ञासाएं, कोमल और रूपहली.
कभी सुबह के सल्फी-रस सी, मीठी – मीठी बातें
और कभी संझा की ताड़ी, जैसी बहकी बातें.
पेज सरीखी शीतल, मीठी प्रेम सुधा बरसाओ
राधा बनकर तुम कान्हा के, जीवन में आ जाओ.
बैलाडीला – बचेली जैसा, ह्रदय तुम्हारा लोहा
मैं शीशे-सा नाजुक-भावुक, ज्यों तुलसी का दोहा.
धमन भट्टियों में बिरहा की, जिस दिन गल जाओगी
उस दिन मेरे ही साँचे में, प्रियतम ढल जाओगी .
रचनाकार – अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़